#सर_सैयद_अहमद का मूल्यांकन
हमारी आलोचना में संतुलन की कमी रही होगी जिससे कुछ लोगों के मन
में सर सैयद के व्यक्तित्व की गलत छवि बनी। आलोचना तो आगे भी जारी रहेगी पर मैं दूसरे पक्ष को सामने लाना जरूरी समझता हूं।
हम पहले कह आए हैं कि मुसलमानों के मन में अंग्रेजों के प्रति बहुतअधिक घृणा थी इसलिए उनका विरोध और विद्रोह कभी थमा ही नहीं। इसने अंग्रेजों की हर चीज – उनकी भाषा, पोशाक, संस्थाएं और मूल्यप्रणाली, यहां तक कि वैज्ञानिक सोच और तर्कपद्धति सभी से नफरत का रूप ले लिया और इसके कारण वे दुहरी मार के शिकार हुए। एक ओर एक एक कर सत्ता गई और दूसरी ओर नई सत्ता के भीतर जो अवसर मिल सकते थे उनसे भी वंचित होना पड़ा।
सर सैयद अहमद की भूमिका यहीं आरंभ हुई जिन्होंने रईसों की दिनो दिन बिगड़ती हालत सुधारने के लिए बीती बातें भूल कर अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेज भक्ति का रास्ता अपना कर अपनी दशा सुधारने का रास्ता अपनाने का अभियान चलाया। हमारे हित उनसे भले टकराते हों, उनकी अपनी स्थिति में अपने को डाल कर देखें तो वह एक असाधारण प्रतिभा और उच्च नैतिक आदर्शों के व्यक्ति थे। उनके प्रति मेरे मन में सम्मान है और उनकी तीखी आलोचना करते हुए भी यदि कोई उनके लिए अपमानजनक शब्द का प्रयोग करता है तो मुझे खिन्नता होती है। उन्हें दिल्ली के बादशाह, इंगलैंड की महारानी से लेकर हिन्दुस्तान की सरकार तक से उपाधियां इतनी मिली थीं कि उनकी माला पहणन सकते थे, पर उनको वह महत्व न देते थे। 1857 में अंग्रेज परिवारों की प्राण रक्षा के बदले सरकार ने उन्हे रियासत देने का प्रस्ताव दिया, उन्होंने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। बदले की कार्रवाई में अंग्रेजों ने जो जुल्म किए उनमें उनकी मां को अस्तबल में छिप कर जान बचानी पड़ी, दूसरे सभी संबंधी मारे गए। मां को वह लाने में सफल रहे पर वह बच न पाईं। इतना जहर पी कर भी उन्होंने कौम की भलाई के लिए अंग्रेजों से मेल बढ़ाने, आधुनिक शिक्षा हासिल करके, रईसी छोड़ कर उद्योग धन्धे अपनाते हुए आर्थिक दशा सुधारने का आंदोलन अकेले दम पर चलाया।
अकेला और आर्तभाव से किसी की शरण गया व्यक्ति अपनी प्रतिभा के बाद भी दूसरे द्वारा इस्तेमाल कर लिया जाता है। आरत के चित रहत न चेतू। इसलिए अपने हितों या महामानवीय अपेक्षाओं की कसौटी पर जिसे हम उनका अपराध मानते हैं उसे ब्रिटिश कूटनीति की सफलता के रूप में देखा जाना चाहिए। उस कूटनीति के लिए भी मेरे मन में आदर है। इसी को रेखांकित करने के लिए मैंने एक लेख का उपशीर्षक जोड़ा था ‘दिमाग था तो सही पर दिमाग किसका था।’ मेरे मित्रों ने उसे समझा नहीं, इसलिए उस इतिहास पर नजर डालना जरूरी है।
एक बात का उल्लेख करते चलें कि सर सैयद की लाख कोशिशों के बाद भी सभी मुसलमान उनके साथ नहीं आ सके। मुसलमानों का देवबन्द दारुल उलूम और मदरसों की तालीम पर जोर, कुछ बाद का बरेलवी आंदोलन अंग्रेज और पाश्चात्य संस्कृति विरोधी धारा का प्रतिनिधित्व करता और सर सैयद का तीखा विरोध करता आया था। सर सैयद के मित्र और उनके सबसे कटु आलोचक अकबर इलाहाबादी देवबंदी स्कूल का ही समर्थक रहे, पर न तो उसे राष्ट्रवादी (राष्ट्र के व्यापक अर्थ में) कहा जा सकता है न कम खतरनाक माना जा सकता।
जहां तक कांग्रेस में भागीदारी का प्रश्न है, मद्रास (चेन्नै) के जिस अधिवेशन का वह रोना रो रहे थे उसमें यदि ८० मुसलमानों की भागीदारी थी तो इलाहाबाद के चौथे अधिवेशन में, जिसमें उनके इशारे पर सरकार ने कई तरह के अवरोध डाले थे, सम्मेलन का स्थल तीन बार बदला था, एक नौबत यह तक आ गई थी कि सम्मेलन को पांच साल के लिए टाल दिया जाय, फिर भी यह संपन्न हुआ और इसमें मुसलमानों का प्रतिनिधित्व २००से ऊपर था। इसके बाद भी सर सैयद सरकारी योजनाके अनुसार चल रहे थे इसलिए उसका दबाव और भारत से लेकर इंगलैंड तक के अंग्रेजी अखबारों के माध्यम से यह प्रचारित किया जाता रहा कि कांग्रेस मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करती।