#ब्रिटिश_भेदनीति की भूमिका
हम अक्सर लोगों को यह शिकायत करते पाते हैं कि अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपना कर हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाया, जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़ा अपराध किया। इसके साथ उठने वाले जरूरी सवालों कोहम उठाते ही नहीं। वे सवाल हैं:
१. जब हमेंपता चल गया कि वे हमें बांट कर लड़ा रहे हैं, तब हम उनकी चाल से बचे क्यों नहीं, आपस में लड़े क्यों? इसका जो उत्तर है उसका सामना करने से टहम कतराते है।
२. अंग्रेजों के चले जाने के बाद क्या हम उसी नीति का निर्वाह करते हुए अपने समाज को बांट और लड़ा नहीं रहे है? यदि हां तो उन्हें दोष कैसे दे सकते हैं?
३. क्या हम नहीं जानते कि किसी ने भेद नीति का प्रयोग करते हुए हमें भारी से भारी क्षति पहुंचाई हो तो भी हम इसके लिए उसे दोष नहीं दे सकते, क्योंकि इस हथियार का आविष्कार इस देश ने, इसके ब्राह्मणों ने किया था जिनके पास शिक्षा और बुद्धि कौशल तो था, परंतु बाहुबल, धनबल या श्रमबल नहीं था। उत्पादन कार्य में अक्षम और दूसरों को बाध्य करने की शक्ति के अभाव में ब्राह्मणों ने साम और भेद नीति का आविष्कार किया और इन्हीं के बल पर वर्णव्यवस्था में अपने को सर्वोपरि बनाए रखने में और अपने को चुनौती देने वाली विचारधाराओं को परास्त करने में सफल रहे।
हमारा कथा साहित्य और नीति साहित्य साम और भेद नीति के प्रयोग की कहानियों और सूक्तियों से भरा पड़ा है। उसमें दाम दंड को नाममात्र को ही स्थान दिया गया होगा। पश्चिमी जगत ने इसका प्रयोग हिंदू ग्रंथों से परिचय के बाद धर्मप्रचार और साम्राज्य विस्तार दोनों के लिए ब्राह्मणों जैसी ही सफलता से किया।
इससे पहले वे दंड या बलप्रयोग से ही धर्मांतरण तक कराते थे। यही हाल मुसलमानों का भी था। राजनीतिक तथा सामरिक सफलता के लिए धोखेबाजी और उत्कोच का प्रयोग उन्होंने अवश्य किया था धोखाधड़ी का प्रयोग नि:संकोच करते थे जिसे वे विज्ञान की संज्ञा देते थे। भेदनीति और धोखाधड़ी में अंतर है। धोखाधड़ी और रिश्वत या उत्कोच भारतीय कूटनीति मे अकल्पनीय हैं इसलिए यदि कहीं इनका प्रयोग हुआ हो तो भी इनकी चर्चा नहीं आयी। यह स्पष्टीकरण इसलिए जरूरी था कि कोई इन्हें दाम और भेद का रूपभेद न समझ ले। धोखाधड़ी या छल की सचाई सामने आने के बाद मोहभंग हो जाता है और प्रतिहिंसा की भावना उत्पन्न होती है, जबकि भेद नीति में असर इतना गहरा होता है वह हमारी अंतः चेतना का अंग बन जाता है। यह ऊपर से दीखे नहीं भीतर चकनाचूर करने वाली और लंबे समय के बाद ही कभी भरने वाली चोट है। कुछ दूर तक ब्रेनवाशिंग से मिलती जुलती है परंतु ब्रेनवाशिंग एक ही बात को बार बार दोहरा कर झूठ को सच में बदलने की क्रिया है और ब्राह्मण इसका भी प्रयोग बहुत पहले से करते रहे जबकि पश्चिम में बीसवीं शताब्दी के मध्य में पहली बार इसकी धूम नाजियों के प्रचार में देखने में आई।
ईस्ट इंडिया कंपनी के कूटविदों ने इसका प्रयोग लगभग मनुस्मृति के पुराने रूप जिसे उन्होंने Gentoo Law की अवमाननापूर्ण संज्ञा दी थी (अठारहवीं शती के अन्तिम चरण ) से परिचित होने के बाद आरंभ किया।
[[पहले कंपनी ने इसे केवल अपने प्रयोग के लिए गुप्त दस्तावेज के रूप में रखा था पर जल्द ही इसकी प्रति किसी अन्य के हाथ लग गई और उसने इसका सार्वजनिक प्रकाशन करा दिया था। ( It was translated into English with a view to know about the culture and local laws of various parts of Indian subcontinent. It was printed privately by the East India Company in London in 1776 under the title A Code of Gentoo Laws, or,Ordinations of the Pundits. Copies were not put on sale, but the Company did distribute them. In 1777 a pirate (and less luxurious) edition was printed; and in 1781 a second edition appeared. Translations into French and German were published in 1778. It is basically about the Hindu law of inheritance (Manusmriti) Wikipedia) बाद में सर विलियम जोन्स ने तर्क पंचानन की मदद से इसका आधिकारिक अनुवाद प्रकाशित किया, यह हम देखआए हैं]]
भारत पर उन्होंने अपनी विजय भारतीय सैनिकों की सहायता से हासिल की थी, प्रशिक्षण पद्धति अवश्य उनकी अपनी थी। परंतु उनकी सबसे बड़ी समस्या जीते प्रदेश में नियंत्रण और व्यवस्था बनाए रखने की थी। प्रशासन वे भारतीयों के हवाले करने को तैयार न थे। आरंभ में तो यह प्रशासन से अधिक खुली लूट थी जिससे कंपनी के अधिकारी स्वयं भी मालामाल हो रहे थे। वे प्रशासन के साथ निजी व्यापार भी करते थे और विश्वास किया जाता है कि भाव बढ़ाने के लिए चावल की उनकी ही जमाखोरी से बंगाल का वह महा अकाल आया था जिसमें उसकी आबादी की दोतिहाई का सफाया हो गया था।मुसलमानों के आक्रोश और विद्रोह के कारण व्यवस्था बनाए रखना एक टेढ़ी समस्या थी। इसकी गंभीरता का कुछ परिचय मैकाले के उस भाषण के एक अंश से मिल सकता है जिसका हवाला मैं पहले भी दे आया हूं।
That Empire is itself the strangest of all political anomalies. That a handful of adventurers from an island in the Atlantic should have subjugated a vast country divided from the place of their birth by half the globe; a country which at no very distant period was merely the subject of fable to the nations of Europe; a country never before violated by the most renowned of Western conquerors; a country which Trajan never entered; a country lying beyond the point where the phalanx of Alexander refused to proceed; that we should govern a territory ten thousand miles from us, a territory larger and more populous than France, Spain, Italy, and Germany put together, a territory, the present clear revenue of which exceeds the present clear revenue of any state in the world, France excepted; a territory inhabited by men differing from us in race, colour, language, manners, morals, religion; these are prodigies to which the world has seen nothing similar. Reason is confounded. We interrogate the past in vain. General rules are useless where the whole is one vast exception. The Company is an anomaly; but it is part of a system where everything is anomaly. It is the strangest of all governments; but it is designed for the strangest of all empires. (The Miscellaneous Writings, Speeches and Poems, Volume 3)
संभवत: मैकाले को भी इस बात का इस व्याख्यान के समय तक पता न रहा हो कि कंपनी के हाथ कौन से कूटनीतिक औजार आ चुके हैं और उन पर अमल हो रहा है। भेद नीति का प्रयोग हेस्टिंग्स के जमाने से समय से ही आरंभ हो गया मनुस्मृति के पुराने संस्करण के बाद ही हेस्टिंग्स समझ में यह रहस्य आया था जब उसने कहा था कि जिस देश पर शासन करना है उसकी भाषा, संस्कृति और इतिहास को जानना जरूरी है और उसके बाद ही वह लश्कर तैयार हुई थी जिसे हम प्राच्यवादी कहते हैं। इसके कुछ ही बाद आरंभ हुआ था फोर्ट विलियम कॉलेज**जो इस कूटनीति का अखाड़ा बना था।
आगे हम देखेंगे कि बांटने और टकराव पैदा करने के लिए के लिए क्या हथकंडे अपनाए गए और सर सैयद कैसे इसके शिकार होते चले गए।
{पाद टि. ** इसकी स्थापना १० जुलाई सन् १८०० को तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने की थी। इस संस्था द्वारा संस्कृत, अरबी, फारसी, बंगला, हिन्दी, उर्दू आदि के हजारों पुस्तकों का अनुवाद हुआ।
कुछ लोगों ने इस संस्थान को भारत में भाषा के आधार पर भारत के लोगों को बांटने का खेल खेलने का अड्डा माना है। …. फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी भाषा जाँन बोर्थ्विक गिलक्रिस्ट (1759 – 1841) के निर्देशन में सुचारू रूप से चला। वह उर्दू, अरबिक एवं संस्कृत का भी विद्वान था।}#