#सर_सैयद_अहमद- #सांप्रदायिकता के जनक
सर सैयद के सामने सबसे बड़ा लक्ष्य था अंग्रेजों को अपनी भक्ति से मंत्रमुग्ध कर के इस सेवा के बदले मुसलमानों के लिए सुविधाएं हासिल करना। कांग्रेस के जन्म के साथ 18 57 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद एक नया वैधानिक वैचारिक और नैतिक संग्राम आरंभ हो रहा था। सर सैयद अहमद उसे गलत रूप में प्रस्तुत करते हुए पहली बार सांप्रदायिक सोच को जन्म दे रहे थे उनकी पूरी सोच सांप्रदायिक थी। उनके संस्कार धार्मिक थे परंतु धार्मिकता और सांप्रदायिकता दोनों अलग चीजें हैं यह दूसरी बात है कि हमारी समझ की गड़बड़ी के कारण सांप्रदायिकता के चरित्र को समझने की जगह इसे धार्मिक विभाजन का रंग देकर असाध्य बनाया जाता रहा है।
सर सैयद के विचारों में वे सारी विकृतियां उपस्थित थीं जिनके भुक्तभोगी सबसे अधिक हिंदू रहे हैं और यह भी इसलिए हैं उन्होंने पूरे समाज को जोड़कर रखने की कोशिश की और इसका मूल्य चुकाया। परिस्थितियां ऐसी थी कि उन्हें आसानी से यह समझाया जा सकता था और समझाया गया कि यदि अंग्रेजों को किसी दिन सत्ता छोड़नी पड़ी तो उन्हें हिंदू बहुमत के कारण उसकी अधीनता स्वीकार करके रहना पड़ेगा । हम इसके विस्तार में नहीं जाएंगे, परंतु सर सैयद अहमद ने अपने भाषणों के माध्यम से इसके सभी पक्षों पर विचार करते हुए यही निष्कर्ष निकाला था। हम नहीं कह सकते कि उनके अंदेशे निराधार थे। इसका एक अनुभव तो सचमुच डरावना थाः In Calcutta an old, bearded Mahomedan of noble family met me and said that a terrible calamity had befallen them. In his town there were eighteen elected members, not one of whom was a Mahomedan; all were Hindus.
परन्तु इसका जो समाधान उन्हें दिखाई दे रहा था, वह उससे भी अधिक डरावना था, जिसके लिए अंग्रेजी का मुहावरा है कठौत का पानी फेंकने के साथ बच्चे को भी फेंक देना या बांसुरी के सुर से चिढ़ कर बांस को ही निर्मूल कर देना।
भारत की सामाजिक समस्या थी आपसी विश्वास की कमी। यह मध्यकाल से चली आ रही थी। इसे पैदा करने की कोई कोशिश मुस्लिम समाज की ओर से कभी न की गई। यदि अपने तटस्थता के दावे के बाद भी अलक्ष्य पूर्वाग्रहों के कारण मुझे ऐसी कोई कोशिश मुसलमानों की ओर से होती दिखाई नहीं देती तो मुझे इसकी याद दिलाई जा सकती हे, परन्तु हिंदुओं की ओर से इसकी लगातार जी जान से कोशिश होती रही और हिन्दू सेकुलरिज्म भी इसी का नमूना माना जा सकता है। यह कोशिश इतनी उत्कटता से की जाती रही कि सर सैयद मिथ्या आरोप की हद तक जाकर इसकी शिकायत करते दिखाई देते हैं। हिंदुओं की इस कोशिश का परिणाम यह रहा है कि हिंदुओं को लगातार झुकना पड़ा है और इसी अनुपात में उनकी मांग और अकड़ बढ़ती गई है। जिसे हम आज का हिन्दू सेकुलरिज्म कहते हैं वह झुकते झुकते बिछ जाने की स्थिति है।
सम्मानजनक मेल मिलाप में किसी को झुकना नही होता। वे आपस में छोटे-बड़े हों तो भी। झुकना न केवल अपमानजनक है. यह मेल मिलाप में बाधक भी है। कहें इसमें मैत्री संबंध संभव ही नहीं है। यह झुकने के साथ ही बदल कर सेवक-स्वामी का संबंध बन जाता है। इसलिए दंडवत फैलने की जगह सहज मुद्रा में बैठकर उन कारणों का पता लगाया जाना चाहिए था कि मुसलमान क्यों मिलने का कूटनीतिक दांव तो चल सकता है, पर हिंदुओं से मिल नहीं सकता।
संभव है यह वाक्य आल्डस हक्सले का अपना न हो, पर जब वह एक अखबार में कालम लिखा करते थे तब इतिहास पर लिखते हुए बिना किसी उद्धरण चिन्ह के लेख का आरंभ किया था कि इतिहास से एक ही शिक्षा मिलती है कि कोई इतिहास से सीखता नही है। भारतीय राजनीतिज्ञों से लेकर बुद्धिजीवियों की अक्षौहिणियों की समझ में यह मोटी बात इतने लंबे अनुभवों और खुली लिखावट के बाद भी क्यों नही आती कि आप मुसलमान से प्रेम करने के प्रयासों से उसकी निजता को भंग करते हैं। जरूरी नहीं कि आप ऐसा करें फिर भी आप उससे नफरत करके (तू अलग मैं अलग) तो बचे रह सकते हैं परन्तु प्रेम करके नहीं, क्योंकि इसकी शर्तें पूरी करते हुए आपको तन्मय हो जाना पड़ेगा। भारतीय सेकुलरिज्म तन्मयता की दिशा में अागे बढ़ते जाने का दूसरा नाम है।
सर सैयद ने इस सचाई को बहुत साफ शब्दों में बयान किया है
1….If we join the political movement of the Bengalis our nation will reap loss, for we do not want to become subjects of the Hindus instead of the subjects of the “People of the Book.” And as far as we can we should remain faithful to the English Government
2. If our Hindu brothers of these Provinces, and the Bengalis of Bengal, and the Brahmans of Bombay, and the Hindu Madrasis of Madras, wish to separate themselves from us, let them go, and trouble yourself about it not one whit. We can mix with the English in a social way. We can eat with them, they can eat with us. Whatever hope we have of progress is from them. The Bengalis can in no way assist our progress. And when the Koran itself directs us to be friends with them, then there is no reason why we should not be their friends. But it is necessary for us to act as God has said.
यहां सबसे रोचक है उलटबांसी। जो साथ रखने की कोशिशों के कारण दुष्ट सिद्ध किए जा रहे हैं उन पर ही यह अभियोग कि वे मुसलमानों को अपने से दूर भगा रहे हैं, क्योंकि साथ उनकी शर्तों पर ही हो सकता था। यह शर्त बहुत सीधी है। हिंदू कांग्रेस का साथ छोड़ दें, अधिकारों की मांग छोड़ दें। जो ऐसा नहीं करते हैे वे क्या चाहते हैं some Hindus — I do not speak of all the Hindus but only of some — think that by joining the Congress and by increasing the power of the Hindus, they will perhaps be able to suppress those Mahomedan religious rites which are opposed to their own, and, by all uniting, annihilate them.
यदि सर सैयद की सलाह न मानी गई तो इसके दुष्परिणाम उसे भोगने पड़ेंगे और इन दुष्परिणामों को वह उपद्रव के रूप में प्रस्तुत करते थे ।
But I frankly advise my Hindu friends that if they wish to cherish their religious rites, they can never be successful in this way. If they are to be successful, it can only be by friendship and agreement. The business cannot be done by force; and the greater the enmity and animosity, the greater will be their loss.
हिंदुओं को मिलकर साथ चलने की बात करते हुए वह लगातार यह संकेत देते थे कि हिंदुओं को उनके अनुसार अपने को बदलते हुए मैत्री संबंध बनाए रखना होगाः
If these ideas which I have expressed about the Hindus of these provinces be correct, and their condition be similar to that of the Mahomedans, then they ought to continue to cultivate friendship with us.
ऐसी स्थिति में यदि कोई यह जानना चाहे कि उस भावुक उद्गार का क्या मतलब, जिसमें वह हिंदुओं और मुसलमानों को भारत माता की दो सुंदर आंखें बताते थे, तो इसका एक ही उत्तर है। तमिऴ का एक मुहावरा है- एण्णुं एऴुत्तुं, कण्णे नत्तगुम् – संख्याएं और अक्षर दोनों आंखों के समान हैं और सर सैयद नागरी लिपि को वेकल्पिक लिपि का भी दर्जा देने को तैयार न थे। ऐसी मांग करने वालों को सांप्रदायिक कहते थे। वह चाहते थे कि हिंदू अरबी आंख से देखें। उन्हें अपनी आंख की जरूरत न थी जब कि अरबी लिपि भारतीय भाषाओं के लिए पत्थर की आंख जैसी है।
जो समुदाय बात-बात में कुरान की दुहाई देता हो, और जिसके सुलझे दिमाग के लोग भी इस पर चुप रहते हों उसमें यदि हिंदुओं को काफिर कहा गया हो और याद दिलाया गया हो कि काफिर केसाथ किस तरह काबरताव किया जाना चाहिए वह सांप्रदायिक घृणा को छिपा सकता है पर उससे मुक्त नहीं हो सकता। सर सैयद इसे सुशिक्षित मुसलमानों की चेतना का अंग बनाने के लिए जिम्मेदार हैं।