#सर_सैयद_अहमद -3
दिमाग है तो सही पर दिमाग किसका है?
सर सैयद जल्द से जल्द मुसलमानों को हिन्दुओं की समकक्षता मे लाना और हो सके तो उनसे भी आगे बढ़ाना चाहते थे। इसके लिए वह आधुनिक शिक्षा के महत्व को जानते थे। वह अंग्रेजों की सूझ-बूझ और सभ्यता के इस हद तक कायल थे कि इंगलैंड के दौरे के बाद उनकी तारीफ में जो पत्र लिखा था उनकी गरिमा के अनुरूप न था। इसका एक कारण यह था कि महारानी से लेकर वहां के सांसदों और भद्र वर्ग ने उन्हें जो सम्मान दिया था उससे वह अभिभूत थे। सम्मोहन में मर्यादा का निर्वाह करने तक का ध्यान न रहा। अंग्रेज हर दृष्टि से असाधारण प्रतिभा के लोग थे उनका यह विचार गलत नहीं था, परन्तु अपने समाज को सर्वथा हेय मानते ही आप की प्रतिरोध क्षमता समाप्त हो जाती है।
पशुपालन से लेकर मनुष्यपालन तक का नियम एक ही रहा है। सुरक्षा, भरण-पोषण से लेकर छवि निर्माण तक की तुम्हारी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति मैं करूंगा। तुम्हें अपने को पूरी तरह हमारे प्रति समर्पित करना होगा। तू जो भी करेगा हमारी इच्छा को जान कर करेगा। जो भी सोचेगा, हमारे हित का ध्यान रख कर सोचेगा। भक्ति के साथ विश्वास, बुद्धि के हस्तक्षेप से मुक्ति, चाहे वब ईशभक्ति में हो या राजभक्ति में या स्वामिभक्ति में, इसी कारण बढ़ जाता है। अपने कौम की भलाई की चिन्ता में वह स्वेच्छा से इसी मुकाम पर पहुंच कर अपने ही देश के विरुद्ध काम कर रहे थे। उसी की सत्ता में अधिक भागीदारी का विरोध कर रहे थे।
I ask whether there is any example in the world of one nation having conquered and ruled over another nation, and that conquered nation claiming it as a right that they should have representative government
उनका मेरठ का भाषण यदि लिखित होता तो हमारे पास यह मानने के अतिरिक्त कोई चारा न होता कि इसे किसी अंग्रेज ने ब्रिटिश हित के लिए कूटनीतिक चतुराई से उनके मुंह से अपनी प्रशासनिक स्थाइत्व को अनिवार्य और लोकहितकारी सिद्ध करने के लिए लिखा था। संभवतः ऐसा नहीं था, इसलिए कहना होगा उन्हे खुश करने के लिए उन्होंने समग्र समर्पण कर दिया था:
Now, suppose that the English are not in India, and that one of the nations of India has conquered the other, whether the Hindus the Mahomedans, or the Mahomedans the Hindus. At once some other nation of Europe, such as the French, the Germans, the Portuguese, or the Russians, will attack India. Their ships of war, covered with iron and loaded with flashing cannon and weapons, will surround her on all sides. At that time who will protect India? Neither Hindus can save nor Mahomedans; neither the Rajputs nor my brave brothers the Pathans. And what will be the result? The result will be this: that foreigners will rule India, because the state of India is such that if foreign Powers attack her, no one has the power to oppose them.
…It is the duty of the people to give all their money and all their property to the Government, because they are responsible for giving Government all that it may require. And they say: “Yes, yes; take it! Yes; take it. Spend the money. Beat the enemy. Beat the enemy.” These are conditions under which people have a right to decide matters about the Budget.
प्रश्न इस आशंका तक रहता तो बात अलग थी। हम यह भी मान सकते हैं इसकी आड़ में वह कांग्रेस को खुराफात की जड़ सिद्ध करते हुए उसका विरोध कर रहे थे । यह भी मान सकते हैं कि १८५७-58 के दमन के सदमे से जिसमें उन्हें भी अपनी माता को छोड़कर अनेक स्वजनों के प्राण गंवाने पड़े थे, वे मुक्त नहीं हो पाए थे।[1] यह भी संभव है कि मुसलमानों के मन में सुलगती आग को जानते हुए वह उन्हें इस बात का कायल बनाने के लिए यह तर्क दे रहे थे कि रहना तो हमें किसी न किसी विदेसी शासन में है और दूसरों को देखते हुए अंग्रेजों का शासन सबसे न्यायोचित है, इसलिए शासन के प्रति द्वेष का भाव छोड़ कर सहयोग का रास्ता अपनाना ही होगा।
परन्तु यह बात कदापि गले नहीं उतरती कि जो अंग्रेज मुस्लिम शासनकाल की तुतना में अधिक कर ले रहे थे उनको वे बे रोक टोक जितना भी चाहें कर वसूल करें, इस पर किसी तरह की आपत्ति न की जाए और वह इसे उचित ठहराने की सिखाई हुई दलीलें पेश करे। पहली नजर में ही लगता है कि यह उनके सरोकार से बाहर की जानकारियां थीं:
In India, the Government has itself to bear the responsibility of maintaining its authority; and it must, in the way that seems to it fittest, raise money for its army and for the expense of the empire. Government has a right to take a fixed proportion of the produce of the land as land-revenue, and is like a contractor who bargains on this income to maintain the empire. ….The English have conquered India, and all of us along with it. And just as we made the country obedient and our slave, so the English have done with us. Is it then consonant with the principles of empire that they should ask us whether they should fight Burma or not? Is it consistent with any principle of empire? In the times of the Mahomedan empire, would it have been consistent with the principles of rule that, when the Emperor was about to make war on a Province of India, he should have asked his subject-peoples whether he should conquer that country or not? Whom should he have asked? Should he have asked those whom he had conquered and had made slaves, and whose brothers he also wanted to make his slaves? Our nation has itself wielded empire, and people of our nation are even now ruling. Is there any principle of empire by which rule over foreign races may be maintained in this manner?
ऐसी दशा में
निम्न पंक्तियों से ऐसा लगेगा कि कुछ कामों के लिए सरकार की ओर से उन्हें उकसाया जा रहा था और उनसे लगभग सहमति सी बन गई थी:७
The internal trade is entirely in their hands. The external trade is in possession of the English. Let the trade which is with the Hindus remain with them. But try to snatch from their hands the trade in the produce of the county which the English now enjoy and draw profit from. Tell them: “Take no further trouble. We will ourselves take the leather of our country to England and sell it there. Leave off picking up the bones of our country’s animals. We will ourselves collect them and take them to America. Do not fill ships with the corn and cotton of our country. We will fill our own ships and will take it ourselves to Europe!” Never imagine that Government will put difficulties in your way in trade. But the acquisition of all these things depends on education. When you shall have fully acquired education, and true education shall have made its home in your hearts, then you will know what rights you can legitimately demand of the British Government. And the result of this will be that you will also obtain honourable positions in the Government, and will acquire wealth in the higher ranks of trade. But to make friendship with the Bengalis in their mischievous political proposals, and join in them, can bring only harm. If my nation follow my advice they will draw benefit from trade and education. Otherwise, remember that Government will keep a very sharp eye on you because you are very quarrelsome, very brave, great soldiers, and great fighters.
यह राजनीतिक और आर्थिक पक्ष था। सभी के लिए शिक्षा में अग्रता अपेक्षित थी। इंगलैंड से वापस आने के बाद उनकी आकांक्षा कैंब्रिज जैसी एक संस्था तैयार करने की थी। मुसलमान स्वयं ही पिछड़ं थे। यह काम अंग्रेज ही कर सकते थे। दिल्ली कालेज[2] हो या अलीगढ़ विश्वविद्यालय [3], मुस्लिम शिक्षा को अंग्रेजों के हवाले करके उन्होंने अपनी कौमी चेतना के निर्माण और दिशानिर्देशन का काम पूरी तरह उन्हें सौप दिया। सोचते वे रहे, मुस्लिम समाज उस पर अमल करता रहा। सरसैयद को जिन बुराइयों का जनक माना जाता है वे केवल हिंदुओं की नजर में बुराइयां हें क्योंकि उसका नुकसान केवल हिंदुओं को उठाना पड़ा है, मुसलमानोे को इसका तुलनात्मक लाभ मिला है पर इसके पीछे इरादे भले सर सैयद अहमद के हों दिमाग अंगरेजों का काम कर रहा था।
[1] “उनका घर तबाह हो गया, निकट सम्बन्धियों का क़त्ल हुआ, उनकी माँ जान बचाकर एक सप्ताह तक घोड़े के अस्तबल में छुपी रहीं। अपने परिवार की इस बर्बादी को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उनके दिलो-दिमाग़ में राष्ट्रभक्ति की लहर करवटें लेने लगीं। इस बेचैनी से उन्होने परेशान होकर भारत छोड़ने और मिस्र में बसने का फ़ैसला किया। अंग्रेज़ों ने उनको अपनी ओर करने के लिए मीर सादिक़ और मीर रुस्तम अली को उनके पास भेजा और उन्हे ताल्लुका जहानाबाद देने का लालच दिया। यह ऐसा मौक़ा था कि वे इनके जाल में फँस सकते थे। वे धनाढ्य की ज़िन्दगी बसर कर सकते थे, लेकिन वे बहुत ही बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति थे। उन्होने उस वक़्त लालच को बुरी F बला समझकर ठुकरा दी और राष्ट्रभक्ति को अपनाना बेहतर समझा।” इंटरनेट,।
[2] दिल्ली कोलिज का इतिहास कुछ टेढ़ा है, It was reorganized as the ‘Anglo Arabic College’ by the British East India Company in 1828 to provide, in addition to its original objectives, an education in English language and literature. The object was “to uplift” what the Company saw as the “uneducated and half-barbarous people of India.” Behind the move was Charles Trevelyan, the brother-in-law of Thomas Babingdon Macaulay, the same infamous Macaulay whose famously declared that “a single shelf of a good European library was worth the whole native literature of India and Arabia”.]
Rev. Jennings started secret Bible classes in the officially secular Delhi College. In July 1852, two prominent Delhi Hindus, Dr. Chaman Lal, one of Zafar’s personal physicians, and his friend Master Ramchandra,[7] a mathematics lecturer at the Delhi College, baptised a public ceremony at St. James’ Church, Delhi.
Dr. Sprenger, then principal, presided over the founding of the college press, the Matba‘u ’l-‘Ulum and founded the first college periodical, the weekly Qiranu ’s-Sa‘dain, in 1845. विकीपीडिया ।
[3] मई 1875 में उन्होने अलीगढ़ में ‘मदरसतुलउलूम’ एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। उनकी परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में यह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया।