#सर_सैयद_अहमद- दो
द्विराष्ट्र और सांप्रदायिक हिंसा और पान-इस्लाम के सिद्धांतकार
कोई व्यक्ति परिस्थितियों से बड़ा नहीं होता। एक सीमा तक उससे ऊपर उठने का प्रयत्न करता है। सर सैयद अहमद खान की असाधारणता इस बात में उन्होंने निस्पृह भाव से अपने वर्ग हित के लिए काम किया। इसे उन्होंने कौम की संज्ञा दी और उनके भाषणों का अनुवाद करने वालों ने कौम को नेशन के रूप में प्रस्तुत किया।
कौम की उनकी समझ सही नहीं थी। किसी अधिक सटीक शब्द के अभाव में उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया, अथवा इसके पीछे कूटनीतिक चालाकी थी, इसका निर्णय हम नहीं कर सकते । भारत में राष्ट्रवाद का विकास अभी तक नहीं हुआ, सांस्कृतिक चेतना की समानता के आधार पर बहुत प्राचीन काल से हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक की एक देश होने की अवधारणा मौजूद थी, जिसके भीतर भाषा, खानपान, विचार, विश्वास, संप्रदाय के भेद थे। राष्ट्र शब्द का व्यवहार समाज के व्यापक अर्थ में किया जाता था। परंतु धर्म के आधार पर जो एकता व्याप्त थी, उसे संप्रदाय कहा जाता था। संप्रदायों में आत्मीयता का अभाव न था। जाति, जातीयता, वर्ण, आदि के अर्थ अलग थे। हम यह बात पहले कह आए हैं कि तुर्कों के साथ भारत में इस्लाम के प्रवेश के कारण भौगोलिक पहचान से अलग हिंदू और तुर्क की धार्मिक पहचान की इकाइयां बनी और बाद में दूसरे क्षेत्रों से मुसलमानों के आने के साथ तुर्क शब्द का स्थान मुसलमान ने लिया। सर सैयद अहमद इसी अर्थ में कौम का प्रयोग करते थे और इस तरह उन्होंने धार्मिक पहचान को सामाजिक पहचान में बदल कर पहली बार द्विराष्ट्र सिद्धांत को जन्म दिया।
कांग्रेस से उनका एक मतभेद इस बात को लेकर था कि कांग्रेस पूरे देश को एक राष्ट्र मानती थी जिसे वह मानने को तैयार नहीं थे।
our friends the Bengalis have shown very warm feeling on political matters. Three years ago they founded a very big assembly, which holds its sittings in various places, and they have given it the name “National Congress.” We and our nation gave no thought to the matter.
इस बात को वह बार-बार कई तरह से दोहराते हैंः
Our Mahomedan nation has hitherto sat silent. It was quite indifferent as to what the Babus of Bengal, the Hindus of these Provinces, and the English and Eurasian inhabitants of India, might be doing.
वह जानते थे की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सभी समुदायों का योगदान था और वे सभी प्रशासन में अधिक भागीदारी के पक्ष में थे। अभी स्वतंत्रता प्राप्त करने का दूर-दूर तक कोई खाका किसी के पास नईहीं था। कांग्रेस में सम्मिलित होने वाले लोगों में मुसलमान भी थे, परंतु उनके विषय में वह गलत प्रचार करते हैं, झूठे आरोप लगाते हैं, और उनको अपमानित करने का प्रयत्न करते हैंः
In some districts they have brought pressure to bear on Mahomedans to make them join the Congress. I am sorry to say that they never said anything to those people who are powerful and are actually Raïses [nobles] and are counted the leaders of the nation; but they brought unfair pressure to bear on such people as could be subjected to their influence.
They even did not hold back from offering the temptation of money. Where is the man that does not know this?Who does not know who were the three or four Mahomedans of the North-West Provinces who took part with them, and why they took part? The simple truth is they were nothing more than hired men.Such people they took to Madras, and having got them there, said, “These are the sons of Nawabs, and these are Raïses of such-and-such districts, and these are such-and-such great Mahomedans,” whilst everybody knows how the men were bought. We [[33]] know very well the people of our own nation, and that they have been induced to go either by pressure, or by folly, or by love of notoriety, or by poverty. If any Raïs on his own inclination and opinion join them, we do not care a lot. …. I should point out to my nation that the few who went to Madras, went by pressure, or from some temptation, or in order to help their profession, or to gain notoriety; or were bought. No Raïs from here took part in it.
This was the cause of my giving a speech at Lucknow [in 1887], contrary to my wont, on the evils of the National Congress; and this is the cause also of today’s speech. And I want to show this: that except Badruddin Tyabji, who is a gentleman of very high position and for whom I have great respect, no leading Mahomedan took part in it.
सचाई यह है कि वह केवल रईसों को अपनी बिरादरी का मानते थे।
उनकी हैसियत में तेजी से जो गिरावट आ रही थी उसको लेकर वह चिंतित थे, और उनकी चेतना के पीछे यदि कहीं यह आशंका भी बनी रही हो जो लोग संगठित होकर इतने शक्तिशाली रूप में जमे हुए ब्रितानी शासन की जड़ें हिला सकते हैं और इस बात की संभावना पैदा कर सकते हैं कि अंग्रेज इतने सौ साल शासन करने के बाद भी यहां से चले जाएं क्या पता अधिक शक्तिशाली हो जाने के बाद किस बात की मांग करने लगें। विदेशी मूल के मुसलमान जिन्होंने यहां की जमीन जायदाद पर कब्जा कर रखा है वे भी इस देश को छोड़कर चले जाएं।
कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता बात की मांग न उठी हो, परंतु अंग्रेजों के दिमाग में यह बात उस समय से ही घर करने लगी थी जब शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाने का प्शिरस्क्षाताव दिया जाने लगा। उन्हे डर था कि अंग्रेजी षिक्षा पाने के बाद ब्रिटेन के इतिहास से परिचित होने के बाद लोकतांत्रिक संस्थाओं से परिचित होने के बाद एक दिन ऐसा आ सकता है जब भारतीय स्वाधीनता की मांग करना आरंभ करेों। यह आशंका चार्ल्स ग्रांट ने कंपनी को लिखे अपने प्रसिद्त्ध पत्र में भी प्रकट किया था परंतु इसका समाधान तलाशहे का प्रयत्न भी किया और इसे अधिक स्पष्ट रूप में मैकाले ने भी अपने भाषण में करते हुए यह कहा था कि यदि भविष्य में ऐसा कोई दिन आया भी तो ब्रिटिश के इतिहास के लिए वह गौरव का दिन होगा।
सैयद अहमद की शिक्षा और पालन-पोषण मुगलकालीन संस्कारों में हुआ था और यह बात उनकी समझ में नहीं आती थी कि मात्र वैधानिक तरीके से कोई भी समाज अपने शासकों को सत्ता से वंचित कर सकता है ।
आशंका यदि उनके मन में थी भी तो इसे ्ंग्रेजों के माध्यम से उनके मन में रोपा गया होगा, जिसे अंग्रेज भले सही माने वह स्वयं मानने को तैयार नहीं थे।
इसके बाद भी यह विकल्प उनकी अंतः चेतना में विद्यमान था । अभी तक जो दो अलग अलग कौमें थी अब वे सीधे टकराव की स्थिति में थीो जिसमें एक को मिटाए बिना अथवा दबाए बिना दूसरा सम्मान के साथ जीवित नहीं रह सकता था, क्योंकि सत्ता में दोनों की भागीदारी उनके लिए अकल्पनीय थी अथवा उन्हें ऐसा समझा दिया गया थाः
Now, suppose that all English, and the whole English army, were to leave India, taking with them all their cannon and their splendid weapons and everything, then who would be rulers of India? Is it possible that under these circumstances two nations — the Mahomedans and the Hindus — could sit on the same throne and remain equal in power? Most certainly not. It is necessary that one of them should conquer the other and thrust it down. To hope that both could remain equal is to desire the impossible and the inconceivable.
इसे टकराव की स्थिति में संख्या बल की समस्या सामने आती थी और इसमें वह मुसलमालों को असुरक्षित पाते थेः
Now our condition is this: that the Hindus, if they wish, can ruin us in an hour.Therefore the method we ought to adopt is this: that we should hold ourselves aloof from this political uproar, and reflect on our condition — that we are behindhand in education and are deficient in wealth. Then we should try to improve the education of our nation
और इसका समाधान उनको संगठित हिंसक उपद्रव में दिखाई देता था। हर हाल में एक कौम को दूसरे को दबा कर या अधीन बना कर रखने के अतिरिक्त दूसरा कोई चारा ही नहीं है। जब तक मुसलमान हिंदुओं की तुलना में संख्या में कम हैं, शासक हिन्दू है तब तक अकारण भी मुसलमान असुरक्षित क्यों अनुभव करता है, और चाहे पाकिस्तान हो, या बांग्ला देश या भारत का कोई ऐसा भाग जहां जनसंख्या का अनुपात बदल गया हो वहां हिंदुओं पर क्या बीतती है इसकी ओर किसी मुसलिम पत्रकार और बुद्धिजीवी या उससे सेकुलरिज्म का प्रमाण पाने को आतुर बुद्धिजीवियों को या तो कुछ गलत लगता नहीं, या वे डरे रहते हैे कि उनसे सहानुभूति प्रकट करते ही भारतीय मुसलमान उनका प्रमाणपत्र वापस ले लेंगे इस भय से चुप लगा जाते हैे, उसके सूत्र सर सैयद के निम्न कथन को ध्यान से पढ़ने पर मिल जाएगाः
At the same time you must remember that although the number of Mahomedans is less than that of the Hindus, and although they contain far fewer people who have received a high English education, yet they must not be thought insignificant or weak. Probably they would be by themselves enough to maintain their own position. But suppose they were not. Then our Mussalman brothers, the Pathans, would come out as a swarm of locusts from their mountain valleys, and make rivers of blood to flow from their frontier in the north to the extreme end of Bengal. This thing — who, after the departure of the English, would be conquerors — would rest on the will of God. But until one nation had conquered the other and made it obedient, peace could not reign in the land. This conclusion is based on proofs so absolute that no one can deny it.