Post – 2018-10-04

#भारतीय_मुसलमान -#सैयद_अहमद

सैयद अहमद नाम के दो व्यक्ति थे । दोनों 19 वी शताब्दी की मुस्लिम चेतना की उपज थे। एक तस्करी करता था नशे का कारोबार पंजाब में चलाता था और कम पढ़ा लिखा था। रणजीत सिंह के प्रभुत्व के बाद नशे के कारोबार पर रोक लग गई। गोवध पर रोक लग गई। वह हज के लिए गया, और वहां से लौटने के बाद, अपने को शिक्षित करने के बाद, वह वहाबी आंदोलन का नायक बन गया। उसके असाधारण प्रभाव का इससे बड़ा नमूना नहीं हो सकता कि वह अपने को नया पैगंबर बताने लगा और उसके प्रभाव में आने वाले मुसलमान अपने को नया मुसलमान कहने लगे(But the Caliphs, or Apostolic Successors, whom the Prophet had appointed at Patna, came to the rescue.
यह कुछ तो उसका प्रभाव था और कुछ मुसलमानों में पहले से सुलगती आग कि १८५७ के बाद भी कलकत्ता के अखबारों में महारानी से खुली बगावत की ख़बरें छपती रहीं और मुल्ले इस आशय के फतवे जारी करते रहे (During the past nine months, the leading newspapers in Bengal have filled their columns with discussions as to the duty of the Muhammadans to wage war against the Queen., Page 10). और इसके परिणाम भी सामने आ रहे थे।
राजाओं को हराना आसान होता है, वह आमने सामने की लड़ाई होती है, परन्तु जन विक्षोभ का सामना फौजी ताकत से नहीं हो सकता। उसका कोई न तो मोर्चा होता है, न उस पर डटे शत्रु, अत: १८५८ के क्रूर दमन के बाद भी अंग्रेजों को मुसलमानों के कारण खासी बेचैनी का सामना करना पड़ रहा था (THE Bengal Muhammadans are again in a strange state. For years a Rebel Colony has threatened our Frontier ; from time to time sending forth fanatic swarms, who have attacked our camps, burned our villages, murdered our subjects, and .. a regular organisation had been established for passing up men an् arms from Bengal to the Rebel Camp. At the same time the Patna Magistrate reported that the rebel sect were upon the increase in that City. …… they have, in the first place, the Central Propaganda at Patna, which for a time
defied the British Authorities in that city, and which, although to a certain extent
broken up by repeated State Trials, still exerts an influence throughout all Bengal.Page 68
)
वहाबियों का यह उभार हिंदुओं के लिए भी चिन्ता की बात थी। कम से कम पश्चिमोत्तर सीमान्त के कबायलियों का साथ मिल जाने के कारण रणजीत सिंह के राज्य के लिए भी इससे परेशानी थी। यह उपद्रव इतना बड़ा रूप ले चुका था अंग्रेजों की तीनों को बार इनके दमन के प्रयास में हार का मुंह देखना पड़ा थाThe D Battery P Brigade Royal Artillery, the E Battery 19th Brigade R.A., and the 2-24th Brigade R.A. ; the 1st Battalions of the 6th and 19th Foot; 2 Companies of the 77th; the 16th Bengal Cavalry, the 2nd Gurkha Regiment ; …Page 41)
गोवध पर प्रतिबंध और नशीले पदार्थों की तस्करी पर रोक के कारण रणजीत सिंह क के लिए भी उसने समस्या पैदा की परंतु हिन्दू जवाबी कार्रवाई में कबायलियों की बस्तियों का सफाया कर देते थे। हालत यह की जमीन की लगान कटे हुए शिरों की गिनती से पूरी की जाती थी।
हमारे पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है फिर भी परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा लगता है कि 18 57 के संग्राम में यदि रणजीत सिंह तटस्थ बने रहे तो इसका एक कारण यह हो सकता है कि इन उपद्रवों के कारण उन्हें जो अनुभव हुआ था उसमें वह किसी मुसलिम सम्राट के नेतृत्व में भारत के स्वतंत्रता संग्राम को सफल होते नहीं देख सकते थे। सत्ता मजबूत होने के बाद उनका चरित्र कब बदल जाए इसका कोई भरोसा नहीं था। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने उनके साथ परस्पर हस्तक्षेप न करने की संधि कर ही रखी थी।
हमारा यह आकलन गलत साबित हो तो भी फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि मुख्य समस्या मुस्लिम विद्रोह कम करने और हिंदुओं की प्रशासन में बढ़ती भागीदारी से पैदा होने वाले संकट से बचाने के लिए अंग्रेजों के पास एक ही रास्ता था, मुसलमानों का विश्वास जीतना और उनके मित्रों को हिंदुओं के सीधे विरोध में उभारते हुए अपनी सत्ता मजबूत करना।
इन्ही परिस्थितियों में उन्हे दूसरे सैयद अहमद उपलब्ध हुए थे जिनके नाम के साथ सर लगाना यदि अन्य किसी कारण नहीं तो उनके हम-नाम ले अलग करने के लिए ही जरूरी है।
सर सैयद अहमद ने मुस्लिम चेतना के नव-निर्माण में सर्वाधिक निर्णायक भूमिका निभाई और उनको अलग रख कर मुस्लिम अन्तश्चेतना को समझा ही नहीं जा सकता। शिक्षित मुस्लिम मन की उन ग्रंथियों को जिन पर वह औपचारिक संवाद और व्यवहार में परदा डाले रहता है सर सैयद के माध्यम से ही समझा जा सकता है, क्योंकि वह उसकी अन्तशचेना का अंग हैं।
वह राज राज-भक्ति के संस्कारों में पले बढ़े थे। उनके नाना जी को उस समय भी ऊंचे और जिम्मेदारी के पद दिए गए थे जब आम मुसलमानों पर अंग्रेज भरोसा नहीं करते थे और उन्हें भी संभवत: उसी कारण एक सम्मानजनक पद मिला था। 1857 के खतरनाक दिनों में उन्होंने कुछ अंग्रेज परिवारों को अपने घर में रखकर संरक्षण दिया था। इसके उपरांत जो दमन की कार्रवाई हुई उसमें छोड़ा तो किसी को नहीं गया, परंतु मुसलमानों के प्रति दमन और क्रूरता इसलिए अधिक निर्मम थी क्योंकि बहादुर शाह को बादशाह माना गया था और संभवत: अवध की जनता और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की भागीदारी अधिक सक्रिय और हिंसक थी।
सैयद अहमद ने अपनी वफादारी और अधिकार का प्रयोग करते हुए लोगों के मना करने के बाद भी इसकी आलोचना करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मुसलमान अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्त हैं उनकी उतनी अधिक गलती नहीं थी जितनी कि मानी जाती है। इसके साथ ही उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन के द्वारा की गई गलतियों का भी हवाला देते हुए अपनी पुस्तिका लिखी, अपने पैसे से छपवाई और वितरित की तथा सरकार को भेजी। लोगों के भय के विपरीत सरकार में इससे उनकी साख बढ़ गई।
यहां से दोनों के लिए एक दूसरे को समझने का और एक दूसरे का इस्तेमाल करने का सुनहला अवसर खुला था।
सर सैयद अहमद की नजर में भारतीय आबादी तीन भागों में बंटी थी । पहली श्रेणी में विदेशी मूल के जमींदार और रईस थे जिन की दशा के बारे में वह सबसे अधिक चिंतित थे। उसके बाद धर्मांतरित मुसलमान संख्या-बल के लिए आते थे। परन्तु उनके लिए उनके पास कोई कार्ययोजना नहीं थी।
वे रईसों की बिगड़ती हालत और उसकी तुलना में बंगाली हिंदुओं की शिक्षा, समृद्धि, और उच्च पदों पर बढ़ते अधिकार, प्रशासन में बढ़ते दखल से घबराए हुए थे। वे उन्हें कभी तो हिंदू दिखाई देते थे कभी बंगाली। जब हिन्दू दिखाई देते तो लगता हिन्दू अधिक शक्तिशाली होते जा रहे हैं, और तब हिंदुओं का व्यापार आदि में आगे आकर डराने लगता। जब बंगाली हिन्दू दिखाई देते थे तो लगत बंगाल के हिंदू पूरे भारत पर अधिकार करना चाहते हैं और तब लगता दूसरे हिंदू भी जो शिक्षा और अवसर में पीछे रह गए हैं, उनके हित मुसलमानों से अलग नहीं हैं। तब वह उनसे एका पैदा करते हुए बंगालियों की बढत को रोकना चाहते थे। पर रोका कैसे जा सकता था? एक ही तरीका था कांग्रेस जिसके माध्यम से वे अधिक अधिकारों का और शासन में अधिक हिस्सेदारी की मांग करना चाहते थे उसमें शामिल होने से सबको रोकना।
पर रोक वह रईस मुसलमानों को भी नहीं पा रहे थे। हिंदुओं को कांग्रेस के अधिवेशनों में जाने से रोका नहीं जा सकता था। जो मुसलमान कांग्रेस में भाग ले रहे थे उन्हें वह बिका हुआ, लालची, बेगैरत मानते थे। इक्के दुक्के रईसों को गुमराह मानते थे। परन्तु कांग्रेस को वह हिंदुओं का संगठन बता कर सांप्रदायिक दहशत पैदा करते हुए अलग कर रहे थे।
परन्तु इससे हिंदुओं की बढ़ती हुई ताकत और डरावना रूप ले लेती थी। इस दहशत का एक उपचार था। राजपूत बंगालियों की गुलामी सहन नहीं करेंगे,उनकी तलवारों की मदद से बंगाली ताकत को रौंदा जा सकेगा। परन्तु राजपूत भी हुए तो हिन्दू ही न। यदि वे बंगालियों के विरुद्ध खड़े न हुए तो ?
उस हालत मे मुसलमानों का एक सीमावर्ती समुदाय था, जिसने हिंदुस्तान को बार बार रौंदा था और जो भारत के मुसलमानों पर संकट आने पर चुप नहीं रह सकता था और इसलिए मुसलमानों की संख्या कम हो तो भी उन्हें किसी से दब कर रहने की जरूरत नहीं।
यह सभी नवचंडी के मेले के अवसर पर मेरठ में दूसरे व्याख्यान में मंच से व्यक्त किए गए उनके उद्गार हैं जिनमें आधी सचाई. आधी कूटनीतिक लफ्फाजी और इसके साथ ही साथ मन में गहरे समाई हुई घबराहट और असुरक्षा की चिन्ता के बीच कोई सम्मानजनक रास्ता निकालने की कोशिश माना जा सकता है। इन सारे कुलाबों के बीच में जो निश्चित और एकमात्र भरोसे का उपाय दिखाई दे रहा था उसे संक्षेप में रखें तो वह निम्न प्रकार होगा:
१. मुसलमानों में तेजी से शिक्षा का प्रसार हो, जिससे हिंदुओं की तरह वे भी सरकारी नौकरियों में सम्मानजनक पदों पर पहुंच सकें।
२. ब्रिटिश सत्ता को अधिक सुदृढ़ और निरंकुश बनाया जाये ( बादशाहों ने कभी रिआया की मर्ज़ी जानकर उस पर शासन किया है?)!
३. उन्हें मनचाही दर पर कर वसूल करने की छूट हो और युद्ध और राज्य-विस्तार, तथा आधुनिकीकृत हथियारों की बढ़ी कीमत को देखते हुए पहले की तुलना में अधिक ऊंची दर से कर वसूलने का अधिकार हो।
४. सरकार के प्रति मुसलमान अधिक वफादार बनें और इसके बदले पुलिस और सेना आदि में मुसलमानों को अधिक से अधिक भरती की जाए।
५. स्वतंत्रता भारत संभव ही नहीं है, यह एक तरह का राजद्रोह है जिसके परिणाम मुसलमानों के लिए अच्छे नहीं हो सकते।
६. भारत में आजादी तभी संभव है जब या तो मुसलमान हिंदुओं को मिटा दें, या हिंदू मुसलमानों को मिटा दें। एक ही तख्त पर दो बादशाह न कभी बैठे हैं, न बैठ सकते हैं।
७. यदि किसी सूरत में हिंदुस्तान आजाद भी हो जाए, खयाल के लिए हम मान लें कि अंग्रेज अपना लाव-लश्कर लेकर यहां से रवाना हो जाए तो हम सामरिक दृष्टि से तैयार न होने के कारण रूस, जर्मनी, फ्रांस आदि में से किसी के हमले का सामना न कर पाने के कारण उनके गुलाम हो जाएंगे जिनका शासन अंग्रेजों से बहुत बुरा होगा।
इसलिए हमारा हित इसी मे है कि हम कांग्रेस के जाल में न फँसे और इसे अपने नापाक हिंदू इरादों मे सफल न होने दें।
इसकी व्याख्या कल।