#भारतीय_मुसलमानः आन्तरिक विक्षोभ
जिन्ना के माध्यम से हम मुस्लिम समाज की मानसिकता को सतही रूप में ही समझ सकते हैं। वह अपने जीवन और व्यवहार में बहुत दूर तक नेहरू के समान थे । जन्म के कारण भारतीय परंतु मिजाज में अंग्रेज। उनकी इसी बात को लक्ष्य करके कुछ लोगों ने उन्हें धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति बताया। वह अपने जिस अनुभव के आधार पर विश्वासघात की चेतना से ग्रस्त थे, वह था गांधी जी द्वारा उनको मुसलमानों का प्रतिनिधि न मानकर मुहम्मद अली को मुसलमानों का प्रतिनिधि मानना, जबकि जिस बाल गंगाधर तिलक से उन्होंने कांग्रेस का दायित्व ग्रहण किया था, उनकी दृष्टि में वहीं मुसलमानों के सच्चे प्रतिनिधि थे। गांधी जी के निर्णय के पीछे, सबसे प्रधान कारण मुस्लिम लीग की मानसिकता वाले मुसलमानों को भी मुख्य धारा में लाने का प्रयास था, अथवा इनके अनीश्वरवादी और इस अर्थ में कम भरोसे का व्यक्ति होना, यह तय करना आसान नहीं है। परंतु गांधी जी से व्यक्तिगत द्वेष उनके वक्तव्यों और कार्यों में अंत तक बना रहा। गांधी जी की हिमालय जैसी बड़ी भूल का ही परिणाम था जिन्ना का मुस्लिम लीग में जाना और जो एक ख्याल था उसे हकीकत में बदलना। इसलिए उनके व्यक्तिगत विचारों के आधार पर मुस्लिम मानसिकता को समझने में सहायता नहीं मिल सकती। वह मुसलमान से अधिक राजनीतिक महत्वाकांक्षा से प्रेरित व्यक्ति थे। इसके बाद भी उनके लीग का नेतृत्व संभालने के बाद मुस्लिम चेतना में आए बदलाव को उनके बिना नहीं समझा जा सत्ता सकता।
इससे पहले स्वतंत्रता का आंदोलन दो भागों में विभाजित और विभाजन के बीच में कई सीमाएं थी।
इनको समझने के लिए 19वीं शताब्दी के घटना चक्र को समझना होगा और फिर उसकी बुनियाद समझने के लिए 18 वीं शताब्दी में लौटना होगा। इस विषय को उठाते समय हमारे मन में इतने विस्तार में जाने का इरादा नहीं था। परंतु विषय के साथ न्याय करने के लिए इस ब्यौरे में जाना एक विवशता है। यथासंभव संक्षेप में अपनी बात रखने का प्रयत्न करेंगे।
इसे एक हिंदू के रूप में यदि हम समझना चाहें तो नहीं समझ पाएंगे, क्योंकि हिंदू अपने को पहले ही पराधीन अनुभव करते थे और जब तक ऐसी वसूली के शिकार होते थे कि विद्रोह स्वरूप खेती तक बंद कर देते थे । धार्मिक उत्पीड़न अलग था। फिर भी मुसलिम सत्ता में गिरावट के अनुपात में उत्पीड़न में कमी आई थी और कंपनी के अधिकारियों द्वारा की गई वसूली पहले से भी अधिक अन्यायपूर्ण होने के कारण****, मुस्लिम शासकों के प्रति हिंदुओं की भी सहानुभूति बढ़ी थी। इसके बाद भी उनको कंपनी का प्रशासन अधिक कष्टदायी, नहीं लगा था। और बंगाल में तो उन्हें एक नया अवसर मिला था जिसके कारण कंपनी का शासन उनको रास आ रहा था।
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In collecting the revenue for instance from the ryotes or husbandsmen, there was no fixed standard. Agreements did indeed pass between land holders and their tenants at the beginning of the year (for their leases extended only for one year) but as before hinted, those agreements were commonly broken by the stronger party upon a thousand pretences, of which the superior made himself the judge, and this practice opened a door of exaction to every subordinate officer of the revenue. Hence the people never knew what portion of their produce of their labour would be left to them, were not only impoverished but also discouraged from exertion.
Exactions still more scandalous were practiced in the judicial courts. The phousdari, or criminal court, raised a revenue by the imposition of fines upon crimes and misdemeanours tried before it, having thus a direct interest in the multiplications, and in finding the accused guilty. The government of 1772 styles its exactions, “detestable and unauthorised, but yet imitated by every farmer and aumil in the province.” Charles Grant, Observations on the State of Society P. 151
इसके विपरीत, कंपनी की नीतियों के कारण रोजगार से वंचित होने वाले जुलाहे, और उनकी रंगाई आदि करने वाले मुसलमान थे। जिन शासको के निकम्मेपन, स्वार्थपरता और अदूरदर्शिता के कारण कंपनी ने धूर्तता से अपनी सत्ता कायम की थी, वे भी मुसलमान थे। उसका विवरण मैकाले ने ब्रिटिश पार्लियामेंट में एक भाषण में निम्न प्रकार दिया थाः
‘मुगलों ने सन् 1765 में बंगाल, बिहार और ओडिशा की मालगुजारी वसूलने का काम कंपनी के सुपुर्द किया था इसलिए लोग स्वत्वाधिकार ग्रहण करने की तिथि भी इसे ही मान लेते हैे…..लेकिन 1765 से बहुत पहले से कंपनी राजनीतिक शक्ति बन चुकी थी। इससे बहुत पहले ही आर्काट का नवाब बनाया था और अपनी मनमर्जी से किसी को भी नवाब बनाते और हटाते रहे। उन्होंने अवध के नवाब की शान मिट्टी में मिला दी। इन्होंने हिन्दुस्तान के बादशाह तक को आड़े हाथों लिया। बंगाल की मालगुजारी का आधा से अधिक ये किसी न किसी बहाने स्वयं हड़पते रहे । वसूली का अधिकार मिलने के बाद तो कंपनी नाम ऐर रूप दोनों ही तरह से स्वतन्त्र सत्ता बन गई । इसकी हैसियत दिल्ली दरबार के एक मंत्री मात्र की थी सिस के सिक्कों पर शाह आलम का नाम अंकित रहता थाअभी हाल में मार्क्विस आफ हेस्टिंग्स ई समय तक गवर्नर जनरल मुगल बादशाह का बड़ा खिदमतगार और गुलाम लिखा करता था।
“इतने दैत्याकार, दो मुंहे चरित्र वाला राजनीतिक शैतान जिसका आधा हिस्सा गुलाम है और आधा खुद मुख्तार दुनिया में पुराने किसी जमाने में कभी किसी ने न तो सोचा होगा, न इसका विधान किया होगा।”*
{nb. * “It has been the fashion indeed to fix on the year 1765, the year in which the Mogul issued a commission authorising the Company to administer the revenues of Bengal, Bihar, and Orissa, as the precise date of the accession of this singular body to sovereignty… Long before 1765 the Company had the reality of political power. Long before that year, they made a Nabob of Arcot; they made and unmade Nabobs of Bengal; they humbled the Vizier of Oude; they braved the Emperor of Hindostan himself; more than half the revenues of Bengal were, under one pretence or another, administered by them. And after the grant, the Company was not, in form and name, an independent power. It was merely a minister of the Court of Delhi. Its coinage bore the name of Shah Alam. The inscription which, down to the time of the Marquess of Hastings, appeared on the seal of the Governor-General, declared that great functionary to be the slave of the Mogul…
“The existence of such a body as this gigantic corporation, this political monster of two natures, subject in one hemisphere, sovereign in another, had never been contemplated by the legislators or judges of former ages. Nothing but grotesque absurdity and atrocious injustice could have been the effect”,}.
नवाबी के दौर में आम मुसलमान भले विशेष लाभान्वित न हुए हों, परंतु हिंदुओं की तुलना में उनकी पूछ कुछ अधिक थी। अमीर जो लगान की वसूली से ही अपनी शान शौकत बनाए हुए थे उनके दिन लद चुके थे। उनके शानदार महल खंडहरो में बदल रहे थे। इसका बहुत कारुणिक चित्र विलियम विल्सन हंटर ने अपनी कूटनीतिक सूझ से लिखी पुस्तक The Indian Musulmans: are they bound in conscience to rebel against the queen? में दी है जिसके विस्तार में यहां जाना संभव नहीं। आम मुसलमानों को किसी भी महत्वपूर्ण पद पर रखने के लिए कंपनी के अफसर तैयार नहीं थे, इसका कारण यह था जिनसे उन्होंने सत्ता छीनी वे किसी भी महत्वपूर्ण पद पर आने पर बदले की कार्रवाई कर सकते, इसलिए हंटर के शब्दों में Musalman dialect फारसी; and, in fact, there is now scarcely a Government office in Calcutta in which a Muhammadan can hope for any post above the rank of porter, messenger, filler of inkpots, and mender of pens. इसका एक कारण फारसी का चलन खत्म होना और अंग्रेजी पढ़ने से उनकी नफरत भी थी।
इससे जो विक्षोभ पैदा हुआ था वह 1857-58 के क्रूर दमन के बाद भी जारी रहा। इसका जो वर्णन हंटर ने दिया है वह उनकी पुस्तक के पृ. 99 पर एक बानगी के तौर पर अवश्य देखा जा सकता है:
The state trial of 1864 proved little effective as the retribution campaign of 1863 to check the zeal of the traitors. …. The holy war was vigorously preached within our country. In Eastern Bengal every district was tainted with treason and the Muhammadan peasantry down the whole course of the Ganges from Patna to the sea, were accustomed to lay apart weekly offerings in aid of the rebel camp. What proportion of these oblations reached the frontiers is doubtful. And as the difficulties in transmission increased the preachers seem to have been left justified in helping themselves more liberally than their earlier zeal would have permitted. The call themselves the New Musalmans, and muster in vast numbers in the Districts east of Calcutta. We have already seen how, in 1831 a merely local leader got together between three ad four thousand men, beat back a detachment of Calcutta Militia, and was only put down by regular troops. In 1843 the sect had attained such dangerous proportions as to form a subject of special inquiry by Government The head of the Bengal Police reported that a single one of their preachers had gathered together some sixty thousand followers, who asserted complete equality within themselves, looked upon the cause of each as that of the whole sect, and considered nothing criminal if done in behalf of a brother in distress
यह याद यालाना जरूरी हो सकता है कि मौलाना आजाद मुसलमानों के मन में अंग्रेजी राज के प्रति सुलगती उसी आग की देन थे।वह लीग के साथ इसलिए नहीं जा सकते थे कि उसने अंग्रेजौं से हाथ मिला लिया था जब कि कांग्रेस उन्हे उखाड़ फेकना चाहती था। वह कांग्रेस के साथ नहीं थे, दुश्मन के दुश्मन के साथ थे। सपना उनका भी दारुल इस्लाम ही था।