#भारतीय_मुसलमान-2
आपसी समझ
(विषय पर आगे बढ़ने से पहले, कई बार दोहराई गई, इस बात को याद दिलाना चाहता हूं कि आपके विचार मेरे विचार से भिन्न हो सकते हैं । इन्हें अधिक लोग पसंद कर सकते हैं। परंतु अधिक लोगों की पसंद के कारण किसी के विचार सही नहीं हो जाते। उनसे केवल यह सिद्ध होता है कि विचार दूसरों से मिलते जुलते हैं अर्थात्, कोई नई बात नहीं कही है। लोगों के पूर्वाग्रहों का अनुमोदन मात्र किया गया है। कम लोगों द्वारा पसंद किया जाना इसी तरह गलत होने का प्रमाण नहीं है। यदि वह संगत या प्रामाणिक है तो संभव है उसमें ऐसे विचार व्यक्त किए गए हैं जो अपने समय से आगे या जिनके समझने की की क्षमता लोगों में नहीं है परंतु इसी कारण उनकी चर्चा बहुत जरूरी है। आइंस्टाइन को समझने वाले कम थे, स्टीफन हॉकिंस की पुस्तकें बेस्ट सेलर है। पसंद की संख्या नहीं, प्रस्तुत विचार और उनका आधार हमारे लिए अधिक महत्वपूर्ण है।
दूसरी बात जिससे मैं उलझन में रहता हूं वह है एक संवेदनशील प्रश्न पर आंकड़े की प्रस्तुति में थोड़ी सी भी शिथिलता होने पर निष्कर्ष गलत हो सकते हैं। अतः जिन्हें भी लगे कि मैंने कहीं कोई निराधार, असंतुलित या गलत बात कही है, तो वे अपने प्रमाण रखते हुए अपनी आपत्ति तीखे शब्दों में भी प्रकट करें तो इस विषय पर हमारी समझ में कुछ सुधार ही आएगा । आरोप की भाषा में वे लोग बात करते हैं जिनके पास न तो तर्क होता है न ही प्रमाण। ऐसे लोगों से मुक्ति का एक ही मार्ग है। उनसे संबंध समाप्त कर देना।)
वर्तमान की गाठें इतिहास में खुलती है। गांठ लगाने की जुगत समझ में आ जाने के बाद खोलने का तरीका समझ में तो आ जाएगा। जिन्होंने सोच समझ कर गांठ लगाई या लगाने के लाभ उठा रहे हों और इस पेच को खोलने के विरोधी हों, उनकी आदत आप नहीं बदल सकते, परंतु उनके भीतर की सचाई को समझ लेने के बाद उनसे सावधानी^ बरत सकते हैं।
{nb. ^सावधानी मात्र आत्मरक्षा का उपाय है न कि किसी पर आक्रमण या प्रतिघात। यह शौर मचाते हुए आवारा जानवरों या घुसपैठ करने वालों के पीछे लट्ठ ले कर दौड़ने की जगह बाड़ लगाकर मर्यादा में रहने और दूसरों को रखने का मौन संदेश है।}
मैं स्वभाव से न तो भीरु हूँ न दुस्साहसी, न घबराता हूँ, न अचानक कुछ भी करने को तैयार होता हूं न ही, लापरवाह या निश्चिंत रहता हूं। मैं किसी पर न तो संदेह करता हूं, नहीं विश्वास करता हूं, अंधविश्वास कदापि नहीं करता। इसकी सलाह मुझे साहित्य भी देता है हमारे किसी विचार से सहमत न होने वाले भी देते हैं और जीवन का अनुभव की देता है। केदारनाथ सिंह एक पंक्ति मेरे सूत्र वाक्यों में है ‘मैं उपेक्षा नहीं करता किसी भी आवाज की वह कहीं से भी आय‘।
महाभारत कहता है, न विश्वसेत अविश्वस्ते, विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने 1940 के लाहौर के भाषण में कहा थाः
We have learnt many lessons. We are now, therefore, very apprehensive and can trust nobody. I think it is a wise rule for every one not to trust anybody too much. Sometimes we are led to trust people, but when we find in actual experience that our trust has been betrayed, surely that ought to be sufficient lesson for any man not to continue his trust in those who have betrayed him. ..
जिन्ना के कथन पर हम भरोसा नहीं कर सकते, क्योंकि वह एक कूटनीतिक बयान दे रहे थे, जिसका लक्ष्य श्रोताओं को अपनी बात मनवाना था। वह यही बात किसी से निजी बातचीत में कहते तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता था, भले यह प्रामाणिक न होता।
प्रामाणिक बात यह है कि स्वयं कट्टर मुस्लिम शासक तक इस कारण कि हिन्दू धोखा नहीं दे सकते, उन्हें उच्च सैन्यपदों पर रखते थे। वे स्वयं मानते थे की पीठ पीछे से आघात न करने की नीति के कारण ही राजपूतों ने अनेक युद्ध हारे थे। ठगों के जाल का अध्ययन करने वाले श्लीमन ने अपनी रपट में लिखा था यहां के हिंदू ठग भी झूठ नहीं बोलते। लोग अपने परिचितों के बीच झूठ नहीं बोलते। इसके बाद भी जिन्ना का बयान निजी होने की स्थिति में यह मान सकते थे कि जिन्ना का अपना अनुभव ऐसा ही रहा होगा। परंतु प्रामाणिक होते हुए भी यह आज का सत्य नहीं हो सकता। इस अंतराल में हमने बहुत कुछ खोया और सीखा है।
सचाई यह है कि जिन्ना के ये ही वाक्य, अधिकांश हिंदू, अपने अनुभव से मुसलमानों के बारे में दुहराते के चले आए हैं। विश्वासघात के नाम से ही उनके सामने कर्बला से लेकर मध्य काल सहित आज तक का मुस्लिम इतिहास खड़ा हो जाता है, जिसमें पाकिस्तान बनाने वालों का पाकिस्तान बनाने के बाद हिन्दुस्तान मे रह जाना और उसी कांग्रेस में, जिसे वे हिन्दुओं की पार्टी कहते आए थे** और इसलिए जिसके साथ मिलकर रहना संभव ही न था***, उसमें रातों रात घुसकर वे ही समस्याएं पैदा करना, जो पहले लीग के नाम से किया करते थे, और शोर मचाना कि देश की स्वतंत्रता के लिए हमने किसी कम काम नहीं किया है, भी आता है । मुस्लिम कूटनीतिक सफलता को बुद्धिमानी और व्यवहार की सरलता को मूर्खता मानने के आदी रहे हैं और इसी के आधार पर मानते रहे हैं कि शालॉसन की योग्यता उहीं में है।^^
{nb. **Congress, that he does not represent anybody except the solid body of Hindu people? Why should not Mr. Gandhi be proud to say. “I am a Hindu. Congress has solid Hindu backing”? I am not ashamed of saying that I am a Mussalman. वही।
***It is extremely difficult to appreciate why our Hindu friends fail to understand the real nature of Islam and Hinduism. They are not religions in the strict sense of the word, but are, in fact, different and distinct social orders; and it is a dream that the Hindus and Muslims can ever evolve a common nationality; and this misconception of one Indian nation has gone far beyond the limits and is the cause of more of our troubles and will lead India to destruction if we fail to revise our notions in time. The Hindus and Muslims belong to two different religious philosophies, social customs, and literature[s]. They neither intermarry nor interdine together, and indeed they belong to two different civilisations which are based mainly on conflicting ideas and conceptions. Their aspects [=perspectives?] on life, and of life, are different. It is quite clear that Hindus and Mussalmans derive their inspiration from different sources of history. They have different epics, their heroes are different, and different episode[s]. Very often the hero of one is a foe of the other, and likewise their victories and defeats overlap. To yoke together two such nations under a single state, one as a numerical minority and the other as a majority, must lead to growing discontent, and final. destruction of any fabric that may be so built up for the government of such a state.} वही।
{nb. ^^ यह दूसरी बात है की अंग्रेज इस मामले में उनसे बहुत सिद्ध हुए। सदाचार ओर सफलता के बीच की दरार पश्चिम की ओर बढ़ने के साथ-साथ चौड़ी होती हुई असाध्य बन जाती है। }
परंतु बचपन से लेकर आज तक जिन मुसलमानों से मेरा औपचारिक संबंध रहा है उनमें से अधिकांश को मैंने बुरा नहीं पाया। भरोसे का पाया यह भी कह नहीं सकता। संबंधों में इतनी प्रगाढ़ता आई नहीं। यह मेरा दोष हो सकता है। हिंदू और मुसलमान दोनों एक दूसरे के संपर्क में आने पर दोहरे व्यक्तित्व के शिकार होते हैं। उनका भीतरी मनोभाव उनके बाहरी कथन या व्यवहार से मेल नहीं खाता, इसलिए उनका दृश्य रूप मुखौटा जैसा प्रतीत होता है। यह बात में दोनों समुदायों के विषय में कह रहा हूं।
परंतु इसका परिणाम यह हुआ है कि लंबे समय तक एक दूसरे से व्यवहार करते समय भी हम एक दूसरे को समझ नहीं पाते। अपरिचय और नासमझी दुर्भाव और असुरक्षा को जन्म देती है। इस पर काबू करने के लिए दिखावटी प्रयत्न में अनुपातहीन सदाशयता दिखाते हुए सभी मुसलमानों को बहुत अच्छा मान कर उनके व्यवहार को जांचने समझने का प्रयत्न नहीं किया जाता। नतीजा एक ही होता है हमारे
समाज के लोग एक दूसरे से बावलों की तरह व्यवहार करते हैं और परिणाम निरंतर पहले से अधिक बुरे होते हैं । बटवारा कथित रूप में एक विवशता थी, जो भारत तेरे टुकड़े होेगे के खतरनाक खेल में बदल जाता है और इसे देशद्रोह तक नहीं माना जाता।
यह मौज चले, शोर चले और जियादा।
बरवादियों का दौर चले और जियादा।
क्योंकि हम मिल कर नहीं रह सकते।
क्योंकि कुछ लोग कुरान को छोड़ कर किसी संविधान को नहीं मानते और दूसरे मानते हैं कि एक ही देश में दो तरह का संहिताएं नहीं चल सकतीं।****
{nb. ****Muslim India cannot accept any constitution which must necessarily result in a Hindu majority government. Hindus and Muslims brought together under a democratic system forced upon the minorities can only mean Hindu Raj.वही।}