Post – 2018-09-19

मनोरचना और सर्जना

मेरे प्रश्नों के उत्तर में अनेक मित्रों ने बहुत है सार्थक बातें लिखी हैं। परंतु जिन कारणों से मैंने ये प्रश्न उठाए थे, वे कुछ अलग है। समस्या केवल #रचनाप्रक्रिया# की नहीं है। हमारा दिमाग कैसे काम करता है इसकी सही जानकारी आज भी विज्ञान के पास
नहीं है। अभी हाल में वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीन की खोज की है जिसकी रचना बिल्कुल अलग तरह की है। उनका मानना है कि हमारे चिंतन और सर्जना को, हमारे मानसिक कार्य व्यापार को यही नियंत्रित करता है । खोज नई है अभी कुछ जांच बाकी है। पर्याय, विलोम, सहचर, सीमा सभी की ओर हमारा ध्यान जाता है या कहें उनकी ओर ढलान पैदा होता है और यह इतना क्षणिक होता है कि हम इस विषय में सचेत नहीं हो पाते। भले हम उनमें से किसी का चुनाव न करें, यद्यपि इसकी संभावनाएं तैयार होती हैं*

{*होना और बोध होना और ध्यान में न आना के कारण, अन्य घटकों की तरह भौतिक ही हैं। किसी वस्तु के ध्यान में आने के लिए उस पर हमारी दृष्टि को जितना समय चाहिहए, जितना प्रकाश चाहिए, सुनने या स्पर्शानुभूति के लिए ग्राह्यता की जिस सीमा में ज्ञानात्मक संवेदन संभव है उससे कम या अधिक होने पर वह होते हुए भी अज्ञात रह जाएगा, या यातना में बदल जाएगा।

इसी तरह शब्दचयन में हम कहते हैं तर्क तो कुतर्क, वितर्क, तर्कहीन, अतर्क्य, इसकी परिधि में आभासित होते हैं और इनमें से किसी का चुनाव अगले वाक्य के तर्क की दिशा तय कर तकता है। यदि हमने विलोम की ओर रुख किया विचार की दिशा ही उलट जाएगी।}

कई बार हम सचेत रूप में विनोद या रोचकताके लिए विषयान्तर हो जाते हैं यह सोच कर कि जल्द ही हम विषय पर आ जाएंगे, परंतु प्रायः ऐसा कर नहीं पाते, इसके कारण आरंभ में हम कहना कुछ चाहते थे और कुछ और कहते चले जाते हैं। जो बात कहनी थी उसे कह ही नहीं पाते । मैंने अपनी बात को कुछ इकहरे रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे कुछ बातें अस्पष्ट रह गईं।

आज से 54 साल पहले मैंने रचना प्रक्रिया पर एक शोधपत्र प्री एचडी के लिए तैयार किया था। उसमें रचनाकारों के संबंध में बहुत रोचक जानकारी सामने आई थी। लिखने का उनका मूड कैसे बनता है, रचना कैसे आरंभ होती है, इसके मजेदार नमूने सामने आए थे। एक लेखिका ऐसी थी जिसका मूड सड़े हुए सेव की बदबू से संबंध रखता था, दूसरे का शराब के 1 पेग से । सिगरेट और शराब को तो लेखन के लिए इतना जरूरी माना जाता रहा है कि अनेक लोग लेखक बनने के लिए शराबी ही नहीं मारिजुआना और हीरोइन के भी शिकार हो गए, परंतु लेखक या कवि बने तो घटिया ही या औसत से आगे नहीं बढ़ सके।

परंतु सिद्ध लेखकों के बारे में जो आश्चर्यजनक सच्चाई सामने आई वह यह कि वे लिखने के लिए मूड की चिंता नहीं करते। हेविंगवे पेंसिल से और खड़े होकर लिखते थे। एक दर्जन पेंसिलें गढ़ कर तैयार कर लेते थे । जब सारी पेंसिलें घिस जाती थीं, तो दिन का काम पूरा। इलियट अपने दफ्तर में पूरे कोट पैंट टाई के साथ सज कर बैठते हैं, और कविता लिखते थे। दफ्तर की गुफ्तगू और टाइप मशीनों की आवाज उन्हें बैकग्राउंड म्यूजिक जैसी लगती थी। इससे उन्हें कोई बाधा नहीं होती थी।

मेरा एक बार सुनीति कुमार चटर्जी से साक्षात्कार हुआ। समय तय था। वह स्टेनोग्राफर को कोई लेख लिखा रहे थे। मैंने समझा कोई व्यक्ति भीतर है, और उसके निकलने की प्रतीक्षा करने लगा। मेरा संकोच को देखकर उनके ऑफिस क्लर्क ने कहा, रुक क्यों गए। चले जाइए। मैं झिझकता हुआ भीतर गया, तो वह महाशय बैठे रहे । लगभग 1 घंटे उनसे मेरी बातचीत चलती रही। उसके बाद मेरे बाहर निकलते ही आवाज आनी शुरू हो गई। अब जाकर मुझे असलियत का पता चला। किसी के आने-जाने या कोई और कारण उपस्थित होने से ऐसे लोगों का समय भले चला जाय, पर मूड खराब नहीं होता। रामविलास जी के काम के घंटे निश्चित थे। जहां तक का काम हो चुका है उसे आगे होना ही है।

ऐसे लोगों से, अपनी तुलना करने का कोई इरादा नहीं है, फिर भी न तो किसी के आने-जाने, बात करने से मेरे काम में रुकावट आती है, न ही मूड की प्रतीक्षा करनी होती है। परंतु जिस विषय पर लिख रहा हूं उसका एक ताप होता है जो उसके पूरा होने तक बना रहता है, भले इसमें महीनों का समय लगे। यदि इस बीच में किसी कारण से किसी दूसरे विषय पर लिखने की बाध्यता पैदा हुई और तो यह ताप भी उधर मुड़ जाता है। वह विषय अधूरा रह जाता है। कोशिश करने पर भी उसे उसी तेवर से उठाने मैं सफल नहीं हो पाता। बात समझ में न आई हो ताे चावल पकाइए, पूरा पकने से पहले उसे अंगीठी से उतार कर कोई दूसरी चीज पकाने लगिए। उसके पकने तक चावल ठंढा हो गया। अब इस अधपके चावल को पूरा पकाने की लाख कोशिश करें, पक नहीं सकता। मामला रसायन का है। उधर नए विषय की परतें खुलती चली जाती है।.मांग एक लेख की की गई थी, और पोथा तैयार होने लगता है। परंतु मैं इस समस्या के कारण भी प्रश्न नहीं कर रहा था।

प्रकृति में कोई भी दो चीजें एक जैसी नहीं होती। केवल आंखें देखकर, या आवाज सुन कर आप असंख्य लोगों के बीच किसी को पहचान लेते हैं, इसी तरह का अलगाव प्रत्येक व्यक्ति के बोलने, हंसने, चलने, सोचने और व्यक्त करने के तरीके में भी बना रहता है। कहें अंगूठे के निशान से लेकर कलम के निशान तक सब पर आप का हस्ताक्षर होता है। और इसके बाद भी कुछ ऐसी समानताएं होती है जिनके कारण हम सोचते हैं, हम दूसरों की तरह कुछ कर सकते या वैसा ही बन सकते हैं। दोनों बातें सही है। पहली हमें हमारी निजता प्रदान करती है, और एकरूपता कम करने की कोशिश में इसी को नष्ट किया जाता है। साम्यवादी सोच में सबसे बड़ा दोष यही है। प्रकृति की हर चीज अलग है, मनुष्य ही ऐसा है जो सांचा बना कर एक जैसी चीजें बना या एक जैसे काम कर सकता है। सांचे में ढले हुए इन उत्पादों को निर्जीव या बुद्धिहीन होना ही पड़ेगा, जीवन आते ही उनमें विभिन्नता पैदा हो जाएगी, जो यंत्र के वश में नहीं रह जाएगी। साम्यवाद नया इंसान नहीं सांचा ढले मानव यंत्रों की उत्पत्ति करना चाहता था, यद्यपि उसकी आकांक्षाएं बहुत मानवीय प्रतीत होती थी और आज भी ऐसा ही लगता है।

मार्क्सवादी सोच ने सांचे में ढले मनुष्य तो न पैदा किए, वह काम पूंजीवाद ही करने जा रहा है, परंतु उसने वैविध्य की संभावनाओं को कम करते हुए यंत्र चालित साहित्य और साहित्यकार अवश्य पैदा किए। दोष साम्यवाद का नहीं है प्रकृति पर अतिनियंत्रण के बाद यांत्रिक उत्पादन ही होता है। अनुशासन पर अधिक बल देने वाले सभी संगठनों से यही खतरा पैदा होता है। जब मैं संघ से जुड़े लोगों का मन दुखाने की कोई इच्छा न रखते हुए भी यह कहने को बाध्य होता हूं कि उनका अनुशासन शिक्षा, संस्कृति, बौद्धिक विकास, सर्जनात्मकता, और संवेदनशीलता मानवीय अपेक्षा के विपरीत है, तो इसका कारण हमारी ऊपर की समझ ही है। मेरे प्रश्न में कहीं धुंधले रूप में यह समस्या रही हो तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि जैसा हम ऊपर देखा आए हैं हम अपने मन की कारगुजारियों को बहुत अच्छी तरह जानने की स्थिति में आज तक नहीं आ सके हैं, पर मेरी चिन्ता के केन्द्र में यह भी न था।

जो बात मैं वास्तव में कहना चाहता था वह यह है कि जैसे जल की धारा होती है, उसी तरह भावनाओं की, आवेग की एक धारा होती है, उसी तरह विचारों की श्रृंखला होती है। अध्ययन और ज्ञान से हमारा भावजगत और ज्ञान जगत अधिक समृद्ध होता है। परंतु ज्ञानी और संवेदनशील व्यक्ति जब लोभ, डर, दबाव, आसक्ति, और दूसरे कारणों से इनके स्वाभाविक प्रवाह में बाधा उत्पन्न करते हुए इसे किसी इच्छित दिशा में मोड़ना चाहते हैं, या दबे ढंग से प्रकट करते हैं तो उनका भाव जगत अपनी सीमा से आगे नहीं बढ़ पाता। ज्ञानजगत जाने हुए दायरे से अधिक विस्तृत नहीं हो पाता । इससे वाग्मिता या कलावादिता पर आधारित रचना या विचार ही प्रकट होते हैं। आप पुरानी भावसंपदा और ज्ञानसंपदा में कोई वृद्धि नहीं कर पाते। परंतु यदि आप में साहस है, आसक्ति से ऊपर उठ चुके हैं, अपने पराए की चिंता से आप अपने विचारों को बाधित नहीं होने देते, तो उनका स्वाभाविक प्रवाह अज्ञात और आश्चर्यजनक लोकों तक पहुंचता है जहां आप स्वयं भावसंपदा और ज्ञानसंपदा में वृद्धि करते हैं, नई जानकारी और नई सौंदर्य चेतना से लोग आह्लादित अनुभव करते हैं और आप स्वयं भी रचना के क्षण में आश्चर्यचकित रह जाते हैं।

ऐसा समर्थ रचनाकारों और विचारकों से ही संभव हो पाता है। अंतर्यामी या रहस्यमय शक्ति का रहस्य यही है। अधिकारी विद्वान और कला सिद्ध कलाकार कमाल कर सकते हैं, पर न तो आत्मविस्तार कर सकते हैं, न ही अपने क्षेत्र की असंभव ऊंचाइयों को हासिल कर सकते हैं।

यदि कोई विचारक या रचनाकार निर्मल मन से किसी ऐसे भाव सत्य या जीवन सत्य को प्रस्तुत करता है जो आपके अपने विचारों, भावनाओं, आग्रहों और योजनाओं अनुरूप नहीं है तो सम्मान पूर्वक उससे कुछ सीखने का प्रयत्न करें न कि उस पर दोषारोपण करने की कोशिश करें । मैं लिबरेटिंग इंडियन माइंड में ऐसे अनेक निष्कर्षों पर पहुंच रहा हूं, जो मुझे स्वयं चकित करते हैं, और आपको कष्टदायक भी लग सकते है, परंतु जो दिख रहा है उसे दूसरों को दिखाना मेरी बाध्यता है.। मेरा प्रश्न इसी विषय में आपको मानसिक रुप में याद करने के लिए था।