कल की चर्चा में एक कमी रह गई। ऐसी ही कमियों को दूर करने के लिए मैं आप लोगों को निमंत्रित करता रहता हूं। यह है कर्ष का समनादी (होमोफोनिक) जिसकी उत्पत्ति पत्थर पर नुकीले पत्थर से लकीर खींचने से उत्पन्न ध्वनि से हुई है, जिसे देववाणी में कर, किर, खर, खिर के रूप में सुना और उच्चरित किया गया। इसे संस्कृत में कृष. क्लिश, क्षर, कर्ष आदि रूप दिए गए। इसी मे आ, वि, आदि उपसर्गों के आकर्ष, आकर्षण, विकर्ष, विकर्षण सहित जौताई, लेखन, क्षीणता – कृश. जलाकर क्षीण करने वाले अग्नि कृशानु, क्लेश, क्लिष्ट, क्लोश (क्रोश, आक्रोश, कोसना), यहां तक कि क्षेत्र, क्षिति, क्षिप (ऋ, उंगली), क्षेप, क्षेपक आदि की एक विशाल शब्दावली का विकास हुआ जिसकी पूरी पड़ताल के लिए लंबा समय चाहिए। इनमें से कुछ बाद की छानबीन में खारिज भी हो सकते है।ध्यान देने की दो बाते हैं। एक यह कि देववाणी मे इसका स्वतंत्र विकास भी चलता रहा- किरोवल, छिनगावल, किरकिराइल जिसे हिन्दी में किरिकरी के रूप में अपनाया गया, कीरा, आदि ऐसे ही हैं। संस्कृत के क्षेत्र में कृषिजीवी देव समाज जब अपने मनस्वी होने पर गर्व करने लगा और देवों के प्रति अपने विनम्र आदर भाव के बाद भी अपने को मानव कहने लगा और नगर सभ्यता, उद्योग व्यापार की अपनी तकनीकी सीमा में संभव शिखर बिन्दु तक पहुंचा तो इस क्रम में उन्नत और सूक्ष्म संकल्पनाओं के लिए इसी मूल से जिस विशाल शब्दावली का विकास किया उसका अंशमात्र ही तद्भव रूप में देववाणी या भोजपुरी में पहुंचा। यहां तक कि आकर्षण, विकर्षण, संकर्षण जैसे शब्द तक तद्भव रूप में भी इसमें न पहुंचे।
दूसरी बात यह कि समनादी शब्दों में स्रोत विषयक भ्रम के कारण एक की अर्थछाया दूसरे पर पड़ने लगती है और हम शिथिलतावश सभी को एकमूलीय मान लेते हैं। उदाहरण के लिए आकर्ष, विकर्ष, के साथ हम निष्कर्ष और उत्कर्ष को भी रखने की भूल कर सकते हैं परन्तु इनमें जल के निर (नीर) और उत (उद) की साझी भूमिका है।
इस रहस्य को धातु-प्रत्यय-उपसर्ग और अन्तःसर्ग पर निर्भर रहने वाले वैयाकरण नहीं समझ सकते थे इसलिए यह न समझ पाए कि उपसर्ग से धातुओं का अर्थ क्यों इतना बदल जाता है मानो वह अर्थ जबरदस्ती लादा जा रहो है। रहस्य यह है कि जिन्हें हम धातु और उपसर्ग मान लेते हैं वे स्वतंत्र समनादी शब्द या उनके बदले हुए रूप हैं।