Post – 2018-08-13

किसी भी विषय पर विचार करते समय लोक पर ध्यान देना उपयोगी रहता है। संस्कृत की तुलना में उसकी जड़ें अधिक गहरी हैं। यदि कोई शब्द विशेषतः भोजपुरी में हो और वह संस्कृत का तदभव प्रतीत हो तो सबसे पहले इस संभावना पर विचार किया जाना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मूल भो. में बचा रह गया हो, यह देववाणी का हो जिसका संस्कृतीकरण हुआ हो।
आज दो शब्दों ने ध्यान खींचा। एक कर्ष दूसरा काढ़ना। गिरिजेश जी ने दूसरे को पहले से निकला माना। तब समय का अभाव था इसलिए तफसील में न गया, अब मेरे कंप्यूटर ने समस्या पैदा कर दी। आइकन और लिपि का विकल्प ही आरहा इसलिए इस पर चर्चा जरूरी लगा।
मेरी तर्क शृंखला निम्न प्रकार हैः
1. सं. कर्ष के लिए भो. रूप कसना और खींचना है। देवसमाज को इन क्रियाओं के लिए संज्ञा की जरूरत रही होगी। इसलिए कर्ष देववाणी से सारस्वत क्षेत्र में पहुंचा शब्द हुआ।
2. पर देववाणी में न असवर्ण संयोग होता था, न इसमें ष की ध्वनि थी, इसलिए इसका रूप कस रहा होगा। सं. करण की प्रक्रिया में हम कह आए हैं कि अजन्त ध्वनियों में अन्तस्थ (य, र, ल, व) सें से किसी के योग से असवर्ण संयोग किया गया अब कर्स बना। रकार के सान्निध्य में स का ष हुआ और इस तरह कस कर्ष बना। पर हरयाणवी की तरह यह उसी क्षेत्र की विवशता थी जो आगे चली अतः ईरानी में कशिश, कोशिश, काश, मिलता है जो देववाणी के निकट। एक मानी में सं. से भी दूर नहीं है।
3. पर खींचना (खींचल) के कर्ष का अपभ्रंश होने की अधिक संभावना है।
4. कस का मूल स्रोत या कहेो इसका मूल अर्थ जल होना चाहिए। यह कषाय – स्वाद विशेष, कोसा – जलपात्र या प्याला(पानपात्र) और ई. कश्ती मे और निषेधार्थी कष्ट – पिपासा जन्य पीड़ा (तु. करें त्रास, पाहि, तड़प, दर्द से)।

काढ़ना पुनः जल और उसकी गति से संबद्ध है। त. कडर – समुद्र, 0कड -जल, कुडि- पी, सं. कुंड, भाे. कूंड़ि- पानी निकालने का पात्र, कूंड़ा- जल भंडारण का पात्र, काढ़ा, कढ़ी, स्वाद सूचक कड़वा, अतः इसका कर्ष से संबन्ध दिखाई नहीं देता। इसका सं.करण काष्ठा में हूआ है, प्रक्रिया कर्ष वाली ही है। इसका प्रयों ऋग्वेद में हुआ है इसलिए यह भी देववाणी से पहुंचा शब्द है।