Foot note to my yesterday’s post as promised.
किसी समाज को उसके ही इतिहास या वर्तमान के आप्त आंकड़ों या अकाट्य तथ्यों का संयोजन गलत ढंग से करके उसे बावला बनाया जा सकता है, गुलाम बनाया जा सकता है, विक्षोभ पैदा किया जा सकता है अथवा सौहार्द का वातावरण तैयार किया जा सकता है।
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प्रश्न यह है कि जहां जानबूझ कर आंकड़ों को इधर से उधर करके मनमाने नतीजे निकाले गए हैं, और जरूरत पड़ने पर उन्हें ही नए ढंग से संयोजित या कुयोजित करके पहले नतीजे में फेर बदल करते हुए नये दावे किए जाते हैं, उनसे बचते हुए उन्हीं घालमेलित आंकड़ों को क्या उस रूप में संयोजित किया जा सकता है कि वे वास्तविकता का परिचय दे सकें ।
कहें, क्या राजनीतिक कारणों से तोड़-मरोड़, छोड़ और गढ़ कर विकृत प्रस्तुति को जो इतिहास नहीं है अपितु ऐतिहासिक तथ्यों का कूटनीतिक उपयोग है उनके नये संयोजन से हम सही इतिहास तक पहुंच सकते हैं?
उत्तर है हां । इसे आप जिगसा पजल या जोड़ो-मिलाओ पहेली से समझ सकते हैं । इसमें बहुत से संयोजन काफी दूर तक सही लगते हैं, परन्तु एक दो ब्लाक ठीक बैठ नहीं पाते । बार बार बहुत कुछ सही लगने का भ्रम पैदा करते हुए अन्त में कुछ बेमेल मिलता है। ये सभी अधूरे समाधान हैं जिनमें कुछ खानों को छोड़ कर सही होने का भ्रम पैदा करते हुए तरह तरह के दावे किए जाते और अपने प्रयोजन से इतिहास के तथ्यों का उपयोग तो किया ही जाता है, हमारी व्याधि को ऐसा करने वालों की योजना के अनुसार सह्य और उग्र बनाया जाता है ।
झूठ के असंख्य संस्करण होते हैं, जिसमें सभी खंडों के विभिन्न कुयोजन होते हैं, सत्य केवल एक होता है आैर उस तक एक ही संयोजन से पहुंचा जाता है। उस पर पहुंच कर विसंगतियां समाप्त हो जाती है।
सत्य तक, अपने वास्तविक इतिहास तक, पहुंचने का यही उपाय है । इस बात पर ध्यान देना कि क्या क्या छोड़ कर यह नतीजा निकाला गया है, और जो कुछ चुना गया है वह भी एक दूसरे से मेल खाता है या अनमेल है । अनमेल है तो जितने भी बड़े विद्वान द्वारा प्रस्तुत किया गया है, वह गलत है, एक षड्यन्त्र का हिस्सा है और इस पर भरोसा करने पर हमारी समस्यायें अधिक जटिल होती चली जाएंगी!
हमने अब तक यही किया या होने दिया है, क्योंकि गुलाम मानसिकता का एक लक्षण आलस्य है और दूसरा अल्पतम से अधिकतम की साधना और ऐयाशी है जिसमें हमारा बौद्धिकवर्ग लिप्त रहा है ।
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मैंने यह आरोप लगाया था कि आप (Western scholars)जानते सब कुछ हो, आपस में आप एक दूसरे से अपने विचार साझा भी कर लेते हो, परन्तु हमें एक दूसरा पाठ पढ़ाते हो और इसे जानने वाले और हमारे हमदर्द बनने वाले भी इसे हमसे छिपाए रहना चाहते हैं ! फिर वे हमारे सच्चे हमदर्द हैं, या हमसे विश्वासघात करने वाले? जिन तथ्यों की ओर मैं यहां संकेत कर रहा हूं वे माइकेल विट्जेल की उस किताब से है जिसे उन्होंने आर्य आक्रमण की मान्यता के खंडन के बाद उसे पुनः प्रतिपादित करने के लिए लिखा था और जिसके तथ्य निम्न प्रकार हैंः
1. भारत पर आक्रमण करने वाले आर्य मध्येशिया के सिन्तास्ता से आए थे। वहां आज भी सिन्दोइ नाम से जाने जाते हैं। उन्होंने वहां की नदियों के नाम सिंध की सहायिकाओं के नाम पर रखे थे। एक वोल्गा की सहायक नदी का नाम कुभा रखा था ।
2. इससे सटा अन्द्रानोवो का क्षेत्र है, जो उसका अंगभूत भी है । एक अन्य विद्वाना ऐस्को पार्पोला आर्यों को इस क्षेत्र से भारत मे आते हुए चित्रित करते रहे हैं।
3. आन्द्रोनोवो का मेरी समझ से अर्थ हुआ नव आन्ध्र या अन्ध्र ( सिन्तास्ता का सिन्ध देश, सिन्त – सिन्ध, स्ता – स्तान/स्थान)।
4. अब भारत पर/में आर्यों का आक्रमण या आव्रजन हुआ था, या आन्ध्रों का, या सिन्धियों का और जिस प्राचीनतम कृति को आधार बना कर यह कहानी रची गई है उस ऋग्वेद में आन्ध्र या सिन्धी जनों का नाम क्यों नहीं मिलता?
5. जाहिर है यह पूरी मान्यता प्रस्तुत आंकड़ों के बेमेल होने के कारण गलत है, परन्तु इसके तथ्य सही हैं।
इतिहास क्या है, वास्तविक स्थिति क्या है इस पर हम कल विचार करेंगे । परन्तु जिस सिन्दोइ या सिन्धी या हिन्दी/ हिन्दू के इतिहास पर हम विचार कर रहे हैं वह आज से कम से कम पांच हजार साल पीछे जाता है, और विदेश में सिन्तास्ता बसाने वाले सिन्धदेश या ईरानी उच्चारण में हिन्द के और मध्येशिया से आगे के देश्ाों के लिए इंद के निवासी थे, यह अनुमान से हम कह सकते हैं ।