Post – 2018-08-05

फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया

इन दिनों मैं पिछले दो वर्षों के दौरान लिखी गई पोस्टों को पुस्तकाकार संकलित, संपादित, और संवर्धित करने का काम कर रहा हूं। इनसे छह किताबें निकल कर आती हैंः
1. हिन्दुत्वद्रोह का इतिहास और वर्तमान.
2. औपनिवेशिक मानसिकता और भारतीय बुद्धिजीवी
3. प्राच्यवादी राजनीति और भारोपीय भाषा परिवार
4. भारतीय वाम – दक्षिण की सांप्रदायिकता और भारतीयता का भविष्य
5. भाषा की उत्पत्ति और विकास (देववाणी का संक्कृतीकरण और प्रसार)
6. जिन्दगी में जो मिला जितना मिला (आत्मकथा)

इनको अपना काम मानता हूं, बीच बीच की तुकबन्दियों को निष्काम उच्छ्वास। उनको भी जगह दें ताे 7. तीर और तुक्के।

इनमें एकरूपता लाने और अनगढ़ता को संवारने का यह काम मैं इंटरनेट पर ही करूंगा। अनेक मित्रों को ऐसा लग सकता है कि मैं सुलभ हूं और वे मुझसे छेड़-छाड़ करने को उत्चासुक हो सकते है। मैं उनके लिए समय नहीं निकाल सकता । मुझसे इस बीच संपर्क करने का प्रयत्न किया जाए और यदि मैं उसकी उपेक्षा करूं तो इसको अन्यथा न लिया जाए।

कृपया पसन्द न करें, नीचे के लेख पर ध्यान दें।

दो

असीम भी असंख्य सीमाओं से बंधा है – असीमता के अनुरूप ही क्षुद्रतम सीमाएं भी उसी की हो सकती हैं। कोई इसका अपवाद हो ही नहीं सकता। हमारी रुचियों का विशेषीकरण और ज्ञान की भी सीमा होती है और एक क्षेत्र में असाधारण दक्षता रखने वाला व्यक्ति दूसरे क्षेत्र की अपेक्षाओं को समझ नहीं पाता। यहां तक कि विभिन्न चरणों पर उसकी गति कभी किसी एक में होती है कभी दूसरे में। एक व्यक्ति जो कभी सर्जनात्मक लेखक रहा है, यदि अनुसंधान और विश्लेषण के क्षेत्र में लंबे समय तक लगा रहे तो वह उन क्षेत्रों की मार्मिक रचनाओं का मूल्यांकन करने में चूक जाता है जिनसे सर्जनात्मक सक्रियता के दौर में वह एकप्राणता अनुभव करता था।
बचपन में, जैसी भी सही, तुकबंदियां कर लिया करता था। उनके भरोसे अपने को छोटी उम्र में ही कवि मानता था। इसका परिणाम यह कि मेरी समझ में ही नहीं आता था कि गद्य भी, जिसे हर ऐरा गैरा इतनी आसानी से बोल लेता है, पढ़ने की चीज है। पहली बार चंद्रकांता संतति पढ़ने के बाद मुझे लगा गद्य भी रोचक हो सकता है, परंतु तभी जब उसमें तिलिस्मी वैचित्र्य हो। सातवी कक्षा में पहुंचने के बाद पहली बार प्रेमचंद का गबन पढ़ने को मिला और फिर लगा कि तिलिस्मी से अलग गद्य रचनाएं भी पठनीय हो सकती हैं।

रामनरेश त्रिपाठी अपने जीवन के अंत तक गद्य की सर्जनात्मकता को नहीं समझ सके। अमरनाथ झा अंग्रेजी के रोमांटिक साहित्य के प्रशंसक थे पर हिंदी में रीतिकाल से आगे का साहित्य उनकी समझ में नहीं आता था। प्रेमचंद को कविता की समझ नहीं थी, फ़िराक़ साहब को कथा साहित्य समझ में नहीं आता था।

इसका कारण यह है कोई भी विधा, कोई भी क्षेत्र, आपकी समस्त ऊर्जा की मांग करता है। रक्त की एक एक बूंद निचोड़ लेना चाहता है। ऐसा करने के बाद ही आप उसमें कोई उँचा स्थान बना पाते हैं । ऐसे भाग्यशाली लोग बहुत कम होंगे जो सभी विषयों में, सभी विधाओं में, सभी काल के, देसी और विदेशों लेखन में रुचि और दक्षता रखते हों, अथवा इसका दावा करते हों। ऐसे ही अभागे और खासे बड़बोले होते हैं बेचारे आलोचक जिनके लिए मुहावरा है जैक ऑफ आल बट मास्टर ऑफ नन।

मुहावरे मुहावरे हैं, वास्तविकता को एक सीमा तक ही उजागर कर पाते हैं, फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता की सामान्य अभिज्ञता को छोड़ दें तो किसी भी क्षेत्र में आधिकारिक पहुंच के लिए जरूरी है कि हमारा अधिकतम समय और ऊर्जा उसी में लगे और इससे दूसरे क्षेत्रों अभिज्ञता प्रभावित होती है।

इन सीमाओं के बीच हमारी कुछ दृढ़ मान्यताएं होती हैं। मेरी भी हैं। इन्हीं में से एक है ज्ञान और क्रिया के किसी भी क्षेत्र की समाज सापेक्षता। यदि उसका लाभ समाज को नहीं मिलता है, वह एक छोटे से दायरे तक सिमट कर रह जाता है तो वह नशीला तो हो सकता है और अपनी दुर्लभता के अनुरूप बहुमूल्य भी हो सकता है, पर व्याधिकारक भी हो सकता है।
कला और साहित्य से परिचित प्रत्येक व्यक्ति “कला कला के लिए” मुहावरे और रूपवाद की सीमा से परिचित है। क्या “साहित्य, साहित्यकारों के लिए”, “कविता, कवियों के लिए” का मुहावरा उतना ही मोहभंग करने वाला नहीं है?

हमारे बीच उत्कृष्टता के दावे करने वाले साहित्यकारों की कमी नहीं है। उनके कद्रदान हम भी हैं जैसे किसी असाधारण करतब के हुआ करते हैं। उन्होंने विदेसी फूल देसी गमलों में उगाए हैं। विदेसी फूलों की एक सीमा है – उनमें रंगत होती है, गंध नहीं होती। रंग गमलों की हैसियत रखने वालों को या दूसरों के गणलों तक आयासपू्र्वक पहुंचने पर दिखाई देती है। गंध दूर दूर तक फैलती है। हैसियत वालों तक सीमित नहीं रहती। रूप और गंध को शरीर या जीव और आत्मा का संबंध माना गया है। हमारी मिट्टी, घास और सूखे काठ तक में गंध होती है। हमारा साहित्य इसी की उपज है।

हमारा नई किवता के दौर से बाद का सारा साहित्य जहां चकित करता है वहां भी उद्वेलित नहीं करता – यह किंशुक की तरह निर्गंध है। साहित्य की सही सामाजिक भूमिका से वह गंध पैदा होती है। मार्क्सवादी सोच की हड़बड़ी में हमने किंशुक पर विदेशी इत्र छिड़क कर वह गंध पैदा करने की कोशिश की। वह समाज तक पहुंचने से पहले ही उड़ जाती है।

दुर्भाग्य से अपनी अनेक सीमाओं के बाद भी शुक्ल जी ही हमारे सबसे बड़े आलोचक, प्रेमचंद ही सबसे बड़े कथाकार और गुप्त जी और प्रसाद ही सबसे बड़े कवि हैं, निराला दोनों के बाद। पर इनसें से किसी की सही समझ हमारे पास है? हमने प्रेमचंज का इस्तेमाल किया है, उन्हे समझा नहीं।

बाद का हमारा सारा साहित्य साहित्यकारों के बीच में घूम कर रह जाता है। बहुत कम लेखक ऐसे हैं जिन का लिखा जनसाधारण तक पहुंचता है तो उन्हें रंजित ही नहीं उन्हें प्रेरित भी करता है।

यहां सुरुचि और भदेसता, कद्रदानी और बह्जनग्राह्यता, लोकप्रियता और साहित्यिक परिष्कृति के प्रश्न उठाये जा सकते है और इन पर लंबी बहस की आड़ में बचाव के रास्ते निकाले जा सकते है। इस पर लंबी बहस हो सकती है और होती रही है।

मेरे सामने केवल एक कसौटी है- अधिकांश लोग अपने विचारों को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए जब किसी उक्ति का सहारा लेते हैं तो किस दौर की रचनाएं उनके काम आती हैं। ध्यान रहे कि इसमें वे सुरुचि का डंका बजाने वाले भी आते हैं। हमारा साहित्य क्या उन अपेक्षाओं की पूर्ति कर सकता है ? वे जिन पंक्तियों का सहारा लेते हैं वे काव्य सौंदर्य की दृष्टि से हेय पंक्तियों नहीं होतीं।

विदेशी साहित्य काव्यानन्द के लिए होता है जिससे बहुत अलक्ष्य रूप में हमारा सौंदर्यबोध और शिल्प भी प्रभावित होता है। पर अपने रिक्थ को नकारते हुए विदेशी साहित्य के पीछे दौड़ते हुए साहित्यकार ने या तो स्वय अपने को समाज से बाहर कर लिया है या समाज द्वारा साहित्यकार को निष्कासित कर दिया गया है। शक्ति केलिए ऐसे साहित्यकार को दौड़कर राजनीतिज्ञों के पीछे भागना पड़ता है उनके चरणामृत स्वरूप मिले पुरस्कार और सम्मान, पदों को अपने कृतित्व की सार्थकता मानना पड़ता है । यह पुरस्कार और सम्मान साहित्यकार को बड़ा नहीं बनाते अपितु और तुच्छता को चमकदार बनाते हैं।

हमारे लिए यह शर्म की बात है हम आधुनिक चुनौतियों के अनुरूप न तो अपना काव्यशास्त्र विकसित कर सके न अपनी काव्य दृष्टि विकसित कर सके ना आधुनिकता की सही समझ विकसित कर सकें और पश्चिम के अंधानुकरण को अपनी पहचान बना बैठे। इस साहित्य का न तो पश्चिम के लिए कोई अर्थ है न हमारे अपने समाज के लिए।

हमें यह नहीं देखना चाहिए दूसरे देशों में साहित्य और कला तक कितने प्रतिशत लोगों की पहुंच है। वहां विचार परिवर्तन तलवीर के जोर पर होता रहा है। भारतीय समाज हे सभ्यता का बहुत लंबा दौर देखा है और इससे ऐसा सांस्कृतिक पर्यावरण तैयार करने में सफल रहा है जिसमें संगीत और साहित्य जीवन का अंग रहा है। सूर के पद गाने वाले गांव देहात तक सुने जाते रहे हैं और लोग दूसरे सारे काम छोड़ कर ऐसे अवसरों पर एकत्र होकर उनकी रचनाओं को सुनते रहे हैं। वे बात-बात में मुहावरे बोलने, काव्य पंक्तियां दोहराने पर गर्व ही नहीे करते रहे हैं और इसलिए विचार और साहित्य के प्रभाव में धर्म तक बदलने को तैयार हो जाते रहे हैं जिनकी रक्षा के लिए घोर यंत्रणा तक को तुच्छ समझते रहे हैं।

साहित्यकार को यह समझना होगा कि यहाँ सत्ता और सत्ता प्राप्ति के औजार -तोप और तलवार – विचार और साहित्य के सम्मुख झुकते रहे हैं, विचारक और साहित्यकार उनके सम्मुख नहीं। उसे अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा और शक्ति ह्सिल करनी है। आज उसके समक्ष यह सबसे जरूरी कार्यभार है।

यह एक निवेदन है । इसे कितने लोग सम्मान दे पाएंगे या सही मान पाएंगे इसका मुझे ज्ञान नहीं है।