Post – 2018-07-20

#आइए_शब्दों_से_खेलें(२४)
पांव, चरण, लात,

पांव के डग बहुत लंबे हैं। इसे बोलियों से लेकर यूरोप की भाषाओं तक फैला पा सकते हैं। चाहें तो तमिल के पो – जाना से जल की एक ध्वनि, पो (पा/पी/पे/पो) से सिद्ध कर सकते हैं, और यदि मेरी मानें तो चलते समय पाँव के जमीन पर रक्खे जाने के साथ उत्पन्न ध्वनि ‘पद्’ से उद्भूत मान सकते हैं ( यहां मैं व्युत्पन्न करने की जगह उद्भव का प्रयोग जानबूझ कर कर रहा हूँ। )

परन्तु यहां एक समस्या है। पद शब्द देववाणी का है। देववाणी में हलन्त उच्चारण तो हो नहीं सकता। पांव के गिरने में जो आकस्मिकता है, वह अजन्त पत से पूरी नहीं होती। इसके अभाव में अनुनादन का तर्क व्यर्थ हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह समझना होगा कि आकस्मिकता की समस्या को देववाणी कैसे सुलझाती थी? यह था, अजन्त (स्वरयुक्त अन्तिम अक्षर) से पहले उसी का हलन्त घुसा कर। सवर्णसंयोग या मिथ की प्रवृत्ति के पीछे यह प्रधान कारण प्रतीत होता है। पत् के स्थान पर पत्त, पद के स्थान पर पद्द, और इसी तरह अन्य पच्च, पट्ट, खट्ट, सत्त, सट्ट, आदि । कहें, देववाणी में पांव के लिए पद नहीं, पद्द का प्रयोग होता रहा होगा।

समस्या एक और है। जब पाँव की बात की जा रही है तो इसमें केवल मनुष्य नहीं, दूसरे जानवरों के पांव भी आते हैं जिनमें कुछ के खुर भी होते हैं। फिर जमीन की कठोरता और मृदुता के अनुसार पांव की ध्वनि अलग अलग हो सकती थी। इसलिए इसके अनुनादी शब्द पत, पद, पट, पड (पत्त, पद्द, पट्ट, पड्ड) कई हो सकते थे पर पांव, पैर नहीं, यहां तक कि पात/पाद आदि भी नहीं। इसके बाद भी ये सभी समस्रोतीय हैं। इसका रहस्य क्या है?

पत, पट (पत्त/पद्द, पट्ट/टप्प) की ध्वनि पत्ती के गिरने, पानी की बूँद के गिरने, या किसी पक्षी के पंख से भी पैदा हो सकती है और इससे उनकी संज्ञाएं बन सकती हैं और इस तरह एक ही ध्वनि वाले कई शब्द (समनादी या homophonic) व्यवहार में आ सकते है। पत्ते के हवा में उड़ने से भी ध्वनि (परपर, फरफर, फड़फड़) पैदा हो सकती हैं जिसे पर्र, फर्र, पड़ (तु. करें- गम् >गो/गोरू; पड़>पाड़ा पड़रू) के रूप में अनुनादित किया जा सकता है। पत की साझी ध्वनि का पांव, पत्ती, पानी में समान होने के कारण सभी की एक संज्ञा पत्त/पद्द हुई। शेष दो की एक अन्य संज्ञा बन गई। अर्थात उसका एक पर्याय भी हो गया। समनादी सगोत्रता के कारण इनके पर्याय से वह शब्द भी प्रभावित हो सकता है, जिसकी ध्वनि या अनुनाद रकारयुक्त नहीं होते। अब इनकी चौबन्दी पर ध्यान दें:

१. (क) पत् = पंख की ध्वनि, (ख)पतन=उड़ान, पतनक- पंचतंत्र में एक कौए का नाम; (ग) पताति, पप्तन, आदि क्रिया रूप; (घ) पतंग = सूर्य (दिव: पतंग), (ङ) kite;
(२) पर =(उड़ने के साथ र-कार युक्त पर्, फर् के कारण) पंख, पर्ण = पंख, सुपर्ण =पक्षी (सुपर्ण एक आसते; द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया), परेवा, परिन्दा)।
(३) (क) पक् / पंक = पंख की ध्वनि, (ख) पक्ष/ पंख/पख/ पाख (ग) पक्षी/ पांखी/ पाखी (घ) पक्ष, पाख, (ङ) दो समान भागों में बटा और परस्पर जुड़ा कुछ भी, जैसे मकान के मुंडेर से फैल दोनो पाख, महीने के पखवारे, जुए के दोनों भाग।
अब इसी की तरह पत् की ध्वनि से पत्ता, पर्ण, पत्र, पान, पतन जो उड़ान की जगह अध:पतन का सूचक होता है, पातन, पातक, पत्तल, पतूखी, पातर/ पतला, पट, पाती, पन्ना आदि ।
पानी के मामले में पत/पट/टप बूंद गिरने कि ध्वनि, पत = पानी> पतवार, पतन/ पातन – नीचे गिराना, भरना, पान- पीना, पानी, पातर/पतला – घोल में सान्द्रता में कम या जल की मात्रा की अधिकता आदि।

यहां हम जो सुझाव रखना चाहते हैं वह मान्यता नहीं मात्र प्रस्ताव है कि पत् की ध्वनि के कारण पंख, पत्ता, पानी से समनादी homophonic संबन्ध ही हो सकता है जिससे पद/पाद में उनके विकारों को पद के नामभेदों में रकार ( पैर, para, parallel, pair, parity)’ पंख के अनुनासिक का नासिक्य प्रभाव (पाँव, पाँवड़ा) और पन्ना की तरह पद पन में बदला होगा (पनहा – खोए पशु के पांवों के निशान पहचानते हुए उसके वर्तमान ठिकाने पर पहुँच कर लाने की फीस, पनही/ उपानह जैसे शब्द बने होंगे) कारण ये ध्वनियाँ पद की गिरने की नैसर्गिक ध्वनि में नहीं हो सकतीं।

हम यहां नाम के पर्यायों में समनादी शब्दों के अलक्ष्य दबाव को स्पष्ट करना चाहते थे।पता नहीं कर सके या नहीं।

अंग्रेजी में एक ओर तो यह फुट बना दूसरी स्वरभेद के साथ pedi, paddle, pedestrian आदि में लातिन के माध्यम से पहुंचा। para के विषय में हम विचार कर आए हैं, परन्तु न-कार युक्त पन्- की क्या fund, fundamental, और foundation के पीछे भूमिका हो सकती है?

चरण
चरण जल की चर/सर ध्वनि से निकला है, और यहां गति के आशय में प्रयुक्त होने के कारण चलने वाले अंग का सूचक बना है इसलिए पंडितों की उद्भावना प्रतीत होता है। इसका प्रयोग इसीलिए साहित्य में अधिक और सामान्य बोलचाल में कम होता है। कविता के चरण और आदमी के पांव। यू पद कविता के भी होते हैं पर पूरी कविता को समेट लेते हैं या भाषा में एक खंड तक सिमट कर रह जाते हैं। चर क्रिया के रूप में बोलियों से लेकर ऋग्वेद और संस्कृत ही नहीं यूरोप तक (chariot, carry, carrier, car) तक व्याप्त है और बोलियों में तो यह चरने, चराने, चरी, चारा आदि में अर्थोत्कर्ष भी पा सका है, परन्तु चरण के रूप में ऋग्वेद में यह आचरण, संचरण, चरण (गति), चरणीय, विचरण, उपाचरण, प्रचार आदि रूपों में ही इसका प्रयोग हुआ है। एक स्थल पर ‘मृगाणां चरणे चरन्’ प्रयोग आया है पर यह भी रफ्तार के ही आशय में है। इसके विपरीत पद का प्रयोग स्पष्टत: पांव (त्रेधा निदधे पदम् ; अपदे पादा प्रति धातवे क:) के अर्थ में, है यद्यपि गन्तव्य या स्थान (तद् विष्णो: परमं पदं) के आशय में भी इसका प्रयोग हुआ है । चर का प्रयोग जहां संभव था वहां भी दूत (यमस्य दूतौ चरतो जनां अनु) या स्पश (देवानां स्पश इह ये चरन्ति) हुआ है।

एक रोचक बात यह कि वैदिक या संस्कृत में पैर का प्रयोग नहीं हुआ है पर यदि हमारा आकलन सही है तो यह यूरोप तक पहुंचा। जाहिर है बोलचाल की भाषा का सही पंरतिनिधत्व वेद भी नहीं करता और प्रसार इस बोलचाल की भाषा का हुआ था।

लात
लात से मिलते लता और लट शब्द ही दिखाई देते हैं। अर्थ या उद्भव समझ में नहीं आता। ऐसा भी नहीं लगता कि यह विजातीय या वैभाषिक शब्द है। अभ्यस्ति के आशय में हिन्दी का सबसे सटीक शब्द ‘लत’ अवश्य इससे निकला है। लात का प्रयोग अमर्यादिद कथनों – लात मारना, लतखोर, आदि में ही होता है। संभव है कल को किसी अन्य सन्दर्भ में इसका अर्थ खुले।
लात से मिलते लता और लट शब्द ही दिखाई देते हैं। अर्थ या उद्भव समझ में नहीं आता। ऐसा भी नहीं लगता कि यह विजातीय या वैभाषिक शब्द है। अभ्यस्ति के आशय में हिन्दी का सबसे सटीक शब्द ‘लत’ अवश्य इससे निकला है। लात का प्रयोग अमर्यादिद कथनों – लात मारना, लतखोर, आदि में ही होता है।

लात का संंबन्ध लाट से लगता है। इसके दो रूप मिलते हैं। एक कृत्रिम जलाशयों के बीच मे गाड़ा जाने वाला लकड़ी का खंंभा या स्तंभ जो एक तो पानी की गहराई का संकेत देता था, दूसरे यदि कोई जलाशय को पार करने के इरादे से तैरने को उतरा हो और चौड़ाई का सही अनुमान न लगा पाने के कारण थक जाय तो इसका सहारा ले कर सुस्ता सके।
अशोक ने ऐसे स्तंभ अपने धर्मोपदेश लिखवाने के काम के लिए तैयार कराए। इनके साथ सुविधा यह थी कि ऊँचाई के कारण इन्हें दूर से ही लक्ष्य किया जा सकता था।

हमारे प्रयोजन के लिए लात स्तंभ या खड़ा होने का आधार या stand। अपने पांवों पर खड़ा होने के मुहावरे को चरितार्थ करने के कारण इसका नाम लात पड़ा।

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