Post – 2018-07-16

#आइए_शब्दों_से_खेलें(22)

जब हम ‘उदर’ पर विचार कर रहे थे तो क्या आपका ध्यान ‘उदार’ की ओर गया था? यदि हां, तो क्या यह सोचा कि इसका प्राथमिक अर्थ फूला हुआ, फैला हुआ, भरा-पूरा रहा हो सकता है? जैसे सिकुड़ा हुआ, दबा हुआ का लाक्षणिक भाव साधनहीन, कृपण आदि होता है उसी तरह फूले और फैले या उदार के साथ दानशील, सहायक आदि का भाव आ जुड़ता है। धनात् धर्म:|

हम उदर के नीचे ‘कटि’ पर आएं। ‘गट्टा’ की तरह ‘कटि’ का अर्थ जोड़ होता है, यह हम कह आए हैं। भोजपुरी में कटि को कर्रहिआँव कहते हैं। इसमें ‘कर्रहि’ का अर्थ वही है जो कलाई के ‘कल्ल’ और कटि के ‘कट्ट’ का है। समस्या बोलियों के अनुसार ध्वनि परिवर्तन का है। यह कर्र ही ‘करधनी’ या ‘करधन’ – कटिबन्ध में ‘कर’ रह गया है और ‘धन’ या ‘धनी’ बन्ध या रज्जु का द्योतक है।

‘अंग’ को ‘लंग’ कहा जाता तो कोई हरज होता? अर्थ तब भी वही रहता जो लंग की ओर से असावधान लोग, इसके संस्कृतीकरण के बाद, ‘लग्न’ कहने पर समझ पाते है, अर्थात् लगा या जुड़ा हुआ हिस्सा। मेरे घर में दो परिवार रहते थे, आधे आधे बँटे हुए? यदि उधर कोई चीज पड़ी होती तो कहते, ‘चाचा के अलंगे’, अपने हिस्से के लिए ‘हमरे अलंगे’। जुड़े हुए, निकले हुए, लगे हुए हिस्से के लिए ही अंग और लंग का प्रयोग होता है। दोनों के मूल में प्रकट होने, दिखाई देने, अलग होने का भाव प्रबल है।

हमारे दोनों पांव धड़ से जुड़े होने के करण लंग कहे गए, जैसे अभी हम जिस कटि की बात कर रहे थे, उसे ‘लंक’ कहा जाता है। ‘लंक’, ‘लंग’, ‘अंग’ सबका अर्थ जोड़ है। लेकिन लंक पर एक जिम्मेदारी लचकने की डाल दी गई, और जिम्मेदारी डाली भी गई युवतियों की कमर पर जिनसे चलने के साथ अपेक्षा की जाती थी कि वे इठलाती हुई, बल खाती हुई, नागिन की तरह लहराती हुई चलेंगी और इस अपेक्षा की पूर्ति वे जिन्दगी में न सही, विज्ञापनों में कर भी लेती हैं। लचकने के लिए कमर पतली होनी चाहिए इसलिए यदि लंक में जुड़ने का भाव है तो उस तराश का, क्षीणता का भाव भी है जिसके कारण कुछ लोग ‘रंक’ कहलाते हैं। ‘रंक’ और ‘लंक’ में फर्क ही कहां है। यहां तक कि यह अंग्रेजी के लैंक और लैंकी (lank, lanky) और ब्लैंक (blank) छरहरेपन और खालीपन तक पहुंची लगती है और जो अंग वाला सादृश्य है वह एंकल (ankle) में दिखाई देगा।

कहें, यह शब्द-प्रतिशब्द (cognates) का मामला नहीं, शब्द-शृंखला और आर्थी प्रतिवेश (semantic domain)के निर्गमन और स्वायत्तीकरण का मामला है। यूरोप में कमर के लचकने का सवाल ही न था क्योंकि उनके नृत्य तक में इसकी गुंजायश नहीं जब कि भारतीय नृत्य और लास्य में भंगिमा और लोच (उंगलियों, पैरों, हाथों, कमर, ग्रीवा, होंठ, आँखों,भवों, नासिका, माथे की रेखाओं सभी में) सर्वव्यापी हैऔर नृत्य की अंतरात्मा है। कलात्मक सौन्दर्यबोध का यही तत्व स्त्री में, जिसकी शक्ति का स्रोत सौन्दर्य है, नैसर्गिक मान कर उस पर लाद दिया जाता रहा है।

‘टाँग’ में टँगे होने का भाव अधिक स्पष्ट है। टाँग का दुर्भाग्य कि इसे सं. में स्थान न मिला। एक मछली का नाम ‘टेंगरा’ है जिससे इस बात की संभावना पैदा होती है कि इसके पीछे जल की टगर-मगर ध्वनि का हाथ है। भो. में टाँग को टङरी कहते हैं। बांग्ला में इसे टेंग कहते है। पहली नजर में यह टङरी की अपेक्षा अधिक सही लगता है क्योंकि बूढ़े आदमी के झुकी कमर के साथ धीरे धीरे चलने को ठेघना कहा जाता है, और टेंगरी मछली के एकार से भी इसकी पुष्टि होती है, परन्तु टांग का टग ही डग, डगर, डिगना, डिगाना, डग्गा (लोहे की सरिया का बना गोल पहिया जिससे हम डगराते हुए दौड़ते थे) और ढंग – चलन, तरीका , बना इसलिए टँग, टाँग रूप अधिक सही लगता है। इसी से ठेघना से भिन्न टघरना > टहलना, टहल- सेवा, टहलुआ-सेवक की व्युत्पत्ति हुई लगती है।
(जारी)