Post – 2018-07-15

#आइए_शब्दों_से_खेलें (21)

पेट
पेट के बारे में क्या कभी आपने सोचा है यह इसका मतलब क्या होता है। ठीक कहा आपने, पेट भरने के लिए होता है अर्थ लगाने के लिए नहीं। यह काम सिर के हि स्से में आता है। मैंने सुना है किसी चीज का अर्थ पता चल जाए तो पेट में इससे मरोड़ नहीं पैदा होती। यूं तो कहते हैं पेट में भी एक छोटा दिमाग होता है और वह अपने फैसले स्वयं करता है।

जो भी हो, पेट के बारे में जो सबसे दुखद बात है वह यह कि यह आपका पालन करता है और इसके बदले मे लोग इसे अक्सर पापी कहते रहते हैं। पापी पेट के लिए। हमने अपना उपकार करने वालों के साथ हमेशा कृतघ्नता ही प्रकट की है। तिरस्कार के बाद भी यह अपना काम करता रहता है।

पेट के बारे में एक सचाई यह है कि इसमें दो रोटी पड़ी रहे तो ही दिमाग भी काम करता है, अन्यथा वह भी काम करना बंद कर देता है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है और खाली पेट शैतान के काम आता है।

पेट का भरा होना और पेट का खाली होना कुछ इस तरह कहा जाता हैं मानो पेट न हुआ माल गोदाम हुआ। लेकिन अगर कहा जाता है उसके पीछे सचाई भी होगी। पेट का नाम आते ही आपके सामने माल गोदाम न सही पिटारी का या पेटी का चित्र आ ही गया होगा।

वक्ष के विषय में हमने पीछे कहा है कि यह एक बाक्स है परंतु यदि आप गौर करें तो पाएंगे पेट की माल गोदाम से उपमा वक्ष की अपेक्षा अधिक सही है।

कुछ लोग ‘पेट’ को ‘पोट’ बोलते हैं और लीजिए हमें पोटली -सामान सहेजने की मोटरी – की याद आ गई । हमारे पेट का जो निचला हिस्सा है उसे पेड़ू कहते हैं। इसका मतलब हुआ छोटी पिटारी। संस्कृत में पेट शब्द को जगह नहीं मिली और मिली तो पेटिका बन कर। पेट की तुलना में तो पीठ तक को अघदिक सम्मान मिला लगता है

संस्कृत में सामान्यतः पेट के लिए उदर का प्रयोग देखने में आता है। उदर का अर्थ हमारे मित्रों में शायद ही किसी को पता हो। परंतु कुछ को यह पता होगा की उदर के साथ भी भरने का मुहावरा चलता है उदरंभर, भर्तृहरि का तो कहना था कि पेट एक ऐसी चीज है जिस् भरते रहे फिर भी भर नहीं पाता। वह पापी पेट को बहुत मुश्किल से भरने वाला मानते थे — दुष्पूरोदरपूरणाय रात दिन पिसते रहो। आज जिसे तुंद होने के कारण तोंद कहा जाता है ऐसे लोगों काे पहले खासा रोबदाब था। उन्हे वृकोदर कहा जाता था। यहां वृक का अर्थ भेड़िया नहीं बृहद है।तोंद का पूर्वरूप जो देववाणी में चलता था, धोंध था जो गुड़ की चाशनी में लाई के बड़े आकार के लड्ड, (धोंधा) और चावल के आंटे के बने लड्डू (ढोंढ़ी) में बचा रह गया है। अर्थात गोललाकार।

वास्तव में उदर अनाज रखने की डेहरी या अन्नागार को कहते थे। ऋग्वेद में अन्नागार के लिए ऊर्दर का प्रयोग देखने में आता है- तमूर्दरं न पृणता यवेन – जहां प्रयोग राजकोष के लिए है इसलिए यदि इस शब्द के साथ मोंएं जोदड़ो केअन्नागार की याद आ जाए तो अपराध क्षम्य है।

उदर देव भाषा का शब्द होना चाहिए।परन्तु हमें ऐसा लगता है कि देवसमाज में पेट के लिए ढींढ़ा का प्रयोग किया जाता था जिसका अर्थ संकोच होने के कारण आज भोजपुरी में इसका प्रयोग गर्भ के कारण फूले हुए पेट के लिए होता है और जो स्त्रियों की व्यंग्य भाषा तक सीमित रह गया है। हम जानते हैं , सारस्वत बोली में घोष महाप्राण ध्वनियों का अभाव था। इनका उच्चारण वे बहुत कष्ट से कर पाते थे। यदि दो घोषमहाप्राण ध्वनियां पास पास आ जाती थीं तो पहले का महाप्राणन हट जाता था। हम आदि इकार के साथभी उनकी समस्या से परिचित हैं, जिसमें इकार ऋकार में बदल जाता था। इन्हीं के कारण ढीढ़ा दृढ़ बन गया। अर्थात् ढीढ़ा दृढ़ का अपभ्रंश नहीं, दृढ़ ढींढ़ा का संस्कृतीभवन है और इसका मूल अर्थ मजवूत नहीं, बृहदाकार रहा है।
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टिप्पणीः सरिता शर्मा ने बताया कि पंजाबी में पेट के लिए ढिढ का ही प्रयोग होता है। जिन शब्दों को हम नितान्त स्थानीय मानकर उन्हें तुच्छ समझते हैे उनकी महिमा और व्याप्ति का हमें बोध नहीं होता।