Post – 2018-07-14

#आइए_शब्दों_से_खेलें (20)

हमारी चर्चा के तीन पक्ष हैं : एक, देववाणी से संस्कृत की दिशा में यात्रा और उस के दौरान घटित परिवर्तनों को प्रस्तुत करना। दूसरा, देववाणी और संस्कृत दोनो के निर्माण में अन्य भारतीय भाषाओं की भूमिका। तीसरा, यह समझने का प्रयत्न कि जो संज्ञा किसी वस्तु को मिली है, उसका स्रोत क्या है।

‘हाथ’ पर विचार करते समय हमने पाया कि ‘हस्त’, वैदिक और संस्कृत में देववाणी से आया हुआ शब्द है, परन्तु अपने मूल रूप में हस्त नहीं रहा हो सकता। अधिक संभावना है, यह हत्थ रहा हो, क्योंकि प्राकृत में भी यही रूप मिलता है। क्या यह ‘हत्त’ या ‘हत्ता’ का सजात(cognate) है, जिससे हत्या व्युत्पन्न है? हम निश्चय के साथ यह नहीं कह सकते कि, शिकार करने में जरूरी होने के कारण, इसे यह संज्ञा मिली लगती है। परन्तु अं. के आर्म arm पर ध्यान देने पर इसकी संभावना प्रबल तो होती ही है। ऐसी स्थिति में इसका अनुनादी स्रोत हुआ आघात करते समय हाथ या हथियार के वेग से चलने के साथ वायु के घर्षण से उत्पन्न ध्वनि, जिसका अनुकरण ‘भस्स’, ‘घस्स’ या ‘हस्स’। ऋग्वेद में भर> सं. हर, घन> सं. हन में बदलता दिखाई देता है। इससे उल्टी गति दिखाई नहीं देती। आगे की यात्रा ह-कार के अ-कार में बदलने या लोप या मूक हो जाने की है जो आद्य ह-कार के मामले में ग्रीक मे नियमित और अंग्रेजी में वैकल्पिक (honour, hour परन्तु साथ ही hot, hit, hat) में पाई जाती है, और मध्यस्थ या अन्त्य होने पर घोषमहाप्राण ध्वनि लिखत में दिखाई देती है, पर मध्य में उच्चारण में मूक हो जाती है (might, drought) अथवा अन्त्य होने पर उच्चारण विकृत कर देती है (rough, laugh)।

ऐसी स्थिति में हम प्रहार की मूल अनुकृति ‘हस्स’ नहीं मान सकते। बचे दो विकल्प। ऋग्वेद में हम हाथ के लिए ‘गभस्ति’ का प्रयोग देख आए हैं, जिसमें ‘गभ’ ‘घस्स’ का और ‘भस’ ‘भस्स’ का अवशेष है। यह इस बात का संकेत है कि प्रहार की ध्वनि को दो रूपों मे अनुनादित किया गया – ‘घस्स’ और ‘भस्स’ और हाथ और आघात दो’नों के लिए ‘घस्त’/’घत्त’, ‘भस्स’/भस्त’ का चलन रहा और जिनसे ‘हत्त’/’हत्थ’, ‘भस्त’/’हस्त’ रूप सामने आए पर कभी कभी दोनों के युग्म से हाथ का पर्याय ‘घभस्त’ हो जाया करता था, जैसे तण् =पानी, नीर=पानी, तण्+नीर= तन्नी=पानी। इस युग्म ‘घभस्त’ का ही गभस्ति रूप हम ऋग्वेद में पाते हैं और साथ ही भस्त का हस्त रूप भी जारी रहा।

कोहनी पर बात करते हुए हम यह तो सुझा सके कि यह ‘कुभ’ पूर्वरूप से निकला है, परंतु यह व्याख्या अधिक से अधिक धातु और उसके लिए कल्पित अर्थ के समान है, जिसमें यह पता नहीं चलता कि उसे वह अर्थ मिला या वे अर्थ मिले कैसे। हमारी सैद्धांतिकी के अनुसार कुभ के पीछे जल की किसी ध्वनि का हाथ होना चाहिए। हम पाते हैं कि कुभ में वही कु है जो ‘कुंभ’, ‘कूप’, ‘कुआँ’, ‘कुमुद’, ‘कुंड’ आदि में है। जल के वर्तुल उछाल के कारण वलयाकार वस्तुओं के नाम में इसकी भूमिका निर्णायक रही लगती है। ‘कुंडल’, ‘कुड्म’, ‘कुंचन’, ‘कुब्ज’, आदि इसी से जुड़े हैं। ”गुजहा’ भी इसी शृंखला में आता है।

कोहनी के ”नी” बारे में हम पहले देख आए हैं कि यह हीनार्थक है। यही बात अंगुल या उँगली (अंगुली) के विषय में कही जा सकती है। अंगुल में अंग लालित्य के तकाजे से अंगु हो गया है और -ल या -र परसर्ग ”का” या ”वाला” का द्योतक (अपत्यार्थक)है। अंगुल का अर्थ अंग का या अंग से उत्पन्न या उपांग है, जिसका प्रयोग अंगोपांग में होता है।

हाथ के लिए दो अन्य शब्दों का प्रयोग होता है पाणि और कर। कर का क्रिया के रूप में तो ऋग्वेद में प्रयोग हुआ है (करतां न सुराधसः, सुपथा करत् , सूनृतावतः कर, रथं न दस्रा करणा समिन्वथः, तथा राजाना करथो यदीमह, , सर्वाभ्यो अभयं करत्, यथा विद्वाँ अरं करद्, उरुं हि राजावरुणश्चकार ) और एक दो स्थलों पर कारनामे या कृत्य के लिए करणानि (सत्या सत्यस्य करणानि वोचम् प्र ते पूर्वाणि करणानि वोचं) या कर्त्व (बहूनि मे अकृता कर्त्वानि) के रूप में।

चारण के लिए कारु और चारणगान के लिए कारा का प्रयोग मिलता है पर हाथ या किरण के लिए इसका एक बार भी प्रयोग देखने में नहीं आता। हाथी के लिए भी ऋग्वेद में करी नहीं मिलता। भो. में भी इसका इन आशयों में प्रयोग नहीं होता। हम मान सकते हैं कि हाथ और किरण के आशय में कर का अर्थविस्तार सं. के विद्वानों के शब्दकौतुक की देन है।

अपने क्रिया रूप में इसके दो स्रोत हैं। एक जल से व्युत्पन्न जो चर / कर / सर / छर और इनके लकारान्त भेदों के साथ विविध बोलियों में अपनाया गया, जल की ध्वनियों में से एक और इस कर का अर्थ हुआः 1. जल, 2. जल से किसी रूप में संबंधित (करमा, करमुआ) 3.सिंचित करना (करमोवल), 4. आवाज देना (कर्र्हावल – भैंस को पास बुलाने की आवाज) > कारा (कीर्ति गान) > कारु – चारण।

चक्र के विषय में कुछ विद्वानों की राय है कि यह ‘चर’ धातु से निष्पन्न है (मो.वि.), दूसरे इसे ‘कृ’ धातु से उत्पन्न मानते हैं। हम इसे द्विधातुक ‘चर्कर’ से व्युत्पन्न मानते हैं।

इसका दूसरा स्रोत है पत्थर पर नुकीले पत्थर के खरोंचने (किरोने) की ध्वनि जिसे कर्र /किर्र/ कुर्र के रूप में अनुकृत किया गया और जिससे हिंसा आदि से संबंधित शब्दावली का विकास हुआ। इसके स्वरभेद वाले शब्दों को एकमूलीय सिद्ध करने के लिए ‘कृ’ धातु की उद्भावना की गई। आगे के ब्यौरों में जाने की जरूरत नहीं। इन दोनों स्रोतों से निकली शब्दावली ऋग्वेद और भोजपुरी में मिलती है और इस आधार पर हम मान सकते हैं कि इनमें से वे शब्द जो सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से देवसमाज के स्तर के हों वे देववाणी से आए हैं।

पाणि
पाणि/पानि/पनि भो- में नहीं हैं. बानी/बानि/ बनिज/ बनिया मिलते हैं परन्तु ये अपने संस्कृत प्रतिरूपों के तद्भव हैं। विकास की दृष्टि से भी ये देव समाज की अपेक्षाओं से मेल नहीं खाते, इसलिए यह विनिमय और वाणिज्य के विकास के बाद की उपज है। ऋग्वेद में विभाजन, वितरण, और दानशीलता के अतिरिक्त तोड़ने, आघात करने के सन्दर्भों में इसका प्रयोग हुआ है (हिरण्य पाणि, वीळुपाणि, पृथिव्याः सानौ जङ्घनन्त पाणिभिः, सविता सुपाणिः, आदि)। इसकी उत्पत्ति भांड निर्माण के बाद की लगती है और इसका स्रोत किसी बर्तन के फूटने की ध्वनि के अनुनादों (पण् , भण्) में से एक है। सामान्य बोलचाल में यह विवाह के भड़कीले कार्डों पर छपने वाले पाणिग्रहण की कृपा से भोजपुरी में प्रवेश पा सका।