Post – 2018-07-07

#आओ_शब्दों_से_खेलें (१५)

मूंछ और दाढ़ी के विषय में रबीन्द्र की एक उक्ति बहुत रोचक है। संभवत: डॉ. भगवान दीन से बात करते हुए जब सवाल किया गया कि क्या वे हिन्दी जानते है। उन्होंने कहा, ‘ऐसी भाषा को कोई कैसे सीख सकता है जिसमें मूछ और दाढ़ी को स्त्रीलिंग और स्तन को पुलिंग माना जाता हो?’

हिन्दी का व्याकरणिक लिंग बांग्ला भाषियों के लिए एक समस्या है। यदि बचपन बंगाल में बीता और बाद की पूरी जिन्दगी हिन्दी क्षेत्र में तब भी गलतियां करते हैं। यह कई बार हिन्दी वालों के लिए भी समस्या बन जाती है। परन्तु जिस तरह यह बंगालियों के लिए समस्या बनती है, उस तरह भारत के किसी अन्य क्षेत्र के लिए नहीं। यहां तक कि उनके पड़ोसी ओडिया या असमिया भाषियों के लिए भी नहीं। हिन्दी के साथ जो समस्या पैदा होती है वह भोजपुरी के साथ नहीं पैदा होती, जिसमे व्याकरणिक लिंग तो है, पर स्त्रीलिंग और पुल्लिग के भेद स्पष्ट हैं। मूंछ और दाढ़ी की चर्चा में हम इन समस्याओं को भी शामिल कर लेते हैं। परन्तु इन सभी का समाधान हम उल्टे सिरे से या इस समस्या की जड़ों से आरंभ करेंगे।

हम पहले कह आए हैं कि देववाणी में लिंग भेद नहीं था। भोजपुरी में आज भी लड़की लोग जा एगा, लड़का लोग जाएगा प्रयोग चलता है। हमारा यह कथन आंशिक रूप में ही सही है। पहली बात यह कि संस्कृत में भी कर्ता और कर्म का लिंग क्रिया को प्रभावित नहीं करता है: बालक: गच्छति/ बालिका गच्छति। हिन्दी ने लिंग व्यवस्था तो संस्कृत से ली पर इसे क्रिया पर भी आरोपित कर दिया, जिससे जिन भाषाओं में लिंग क्रिया को परिवर्तित नहीं करता, उन्हें हिन्दी सीखने में परेशानी होती है।

देववाणी में लिंग भेद था, जो क्रिया को भले परिवर्तित नहीं करता, पर संज्ञा में होता है। लड़का/लड़की, गठरी/गट्ठर।

यह जैव जगत में नर/ मादा पर आधारित होता है, और इससे बाहर, इससे आगे, जिसमें हमारे शरीर के योनअंग भी आते हैं, महत और अमहत पर टिका है जैसा हमने गट्ठर और गठरी में पाया। महत और अमहत का अन्तर दिखाने वाला कोई प्रत्यय या अन्त्यसर्ग होना चाहिए। देवभाषा में यह नियमित था, भोजपुरी मे यह नियमित है। संस्कृत में कई भाषाई समुदायों की पैठ के कारण इसका ध्यान नहीं रखा गया, इसलिए यह समस्या पैदा हो गई। उसी के प्रभाव में विकसित खड़ीबोली या पश्चिमी हिन्दी में यह दोष कुछ अधिक उग्र हो गया।

देववाणी से महत अमहत का भेद भोजपुरी ने पाया जिसमें इसके प्रत्यय स्पष्ट हैं, इसलिए शरीर के अंगों तक में इसके नियमित निर्वाह के कारण कोई उलझन नहीं पैदा होती। हिं. में मूंछ है पर भोजपुरी में मोछि। हिं. आंख है, भो. आंखि। हिन्दी में दही, मोती, हाथी संस्कृत के प्रभाव के कारण पुलिंग हैं पर भो. में स्त्रीलिंग अर्थात इकारान्त होने के कारण अमहत। अत: भो. में लड़के की नूनी, लड़की का भग किसी तरह की समस्या नहीं पैदा करता। पूर्व की हिन्दी से इतर आर्य भाषाओं को हिन्दी से जो परेशानी होती है वह भोजपुरी से नहीं। इसके बाद भी ओड़िया और असमीया (असमिया) भाषियों को जो बांग्ला की तुलना में हिन्दी से कम जुड़े रहे हैं उतनी परेशानी नहीं होती जितनी बांग्लाभाषियों को। इसका कारण यह है बांग्ला भाषियों को अंग्रेजों और अंग्रेजी के संपर्क का सबसे पहले और अधिक दीर्घ संपर्क के फल स्वरूप आधुनिकता के स्पर्श का साहित्य, कला, विज्ञान और दर्शन को मिलने वाला लाभ और उससे उत्पन्न अहंम्मन्यता जिसके मनोरचना का अंग बन जाने के कारण भारत की दूसरी भाषाओं के प्रति अवज्ञा भाव।

किसी चीज को सीखने के लिए अकड़ की नहीं विनम्रता की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में अपनी गलतियों को सुधारने की जगह उनका महिमामंडन करते हुए सचेत रूप में उन्हें बनाए रखा जाता है। इसके कारण अंग्रेजी को अंग्रेजों की सी शुद्धता या रवानगी से सीखने वाले भारतीय छात्रों द्वारा अंग्रेजों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी की लाचारी में होने वाली गलतियों को गर्व से अपनाने का प्रयत्न किया जाता है। अत: जितना दोष हिन्दी का था उससे अधिक दोष बांगाली श्रेष्ठताबोध का है, जो संस्कृत में जहां से हिन्दी की लिंग व्यवस्था की खामियां आई है जिन कमियों को क्षम्य मान लेते हैं, उन्हें हिन्दी के सन्दर्भ में बढ़ा चढ़ा कर देखते और इसलिए अपने लिए इन्हें दूर कर पाने को अशक्य मान लेते हैं।

अन्य भारतीय भाषाओं की पृष्ठभूमि से आने वालों को ध्वनिमाला की भिन्नता से कुछ असुविधाएं भले हों, उनकी अपनी भाषाओं में भी महत और अमहत का भेद होने के कारण हिन्दी सीखने और बोलने में लिंग की समस्या पेश नहीं आती।

अब हम अपने विषय पर अर्थात् मूंछ के औचित्य पर लौटें। मूंछ का आशय हुआ मुंह पर उगे रोम, जैसे दाढ़ी का दाढ पर उगे रोम। इस तर्क से तो साहब इसे पुल्लिंग ही होना चाहिए था क्योंकि बाल के सभी पर्याय- रोम/लोम, केश, वार/बाल, चूल पुलिंग हैं, मुंह, दाढ़ भी पुलिंग और इसके बाद भी मूँछ हिन्दी में अकारान्त होते हुए स्त्रीलिंग! जो भी हो, अं. मस्टैचेज का अर्थ भी ऊपरी होंठ पर उगे बाल और बीयर्ड का ठुड्डी पर उगे बाल ही है।

समस्या सामूहिकता के कारण पैदा हुई लगती है, परिवार जुटाना और बढ़ाना स्त्री का काम है। पुरुष अकेला ही भला। जहां एक से बहु हुआ माया के चक्कर में पड़ गया। कक्ष पुलिंग है और उसमें दस बीस की बैठक जमी तो कक्षा बन जाता है। अकेला हो तो सैनिक पुल्लिंग, दल हो गया तो सेना, स्त्रीलिंग । बाल/वार अपने तईं पुल्लिंग जब उसका समूह बना तो चोटी, शिखा, चुरुकी, लट, जटा, मूँछ, दाढ़ी, जूड़ा, चूड़ा सब को स्त्रीलिंग बना दिया।

दाढ़ी और मूँछ जैसे आसानी से बोले और समझे जा सकने वाले शब्द संस्कृत के लिए अछूत हैं, इनको उसमें जगह नहीं मिल सकती थी, न मिली। इन शब्दों का इतिहास कितना पुराना है, यह हम नहीं जानते। देव समाज इनके लिए किन शब्दों का प्रयोग करता था यह हम नहीं जानते। ऋग्वेद में दाढ़ी-मूँछ दोनों के लिए श्मश्रू का केवल एक बार इन्द्र के सन्दर्भ में उल्लेख आया है ः
सो चिन्नु वृष्टिर्यूथ्या स्वा सचाँ इन्द्रः श्मश्रूणि हरिताभि प्रुष्णुते ।
अव वेति सुक्षयं सुते मधूदित धूनोति वातो यथा वनम् ।।10.23.4

और संभवत: यही एक मात्र शब्द संस्कृत में प्रचलित रहा। परन्तु इसका जातक क्या है?

मस
इसके लिए हमें कुछ पीछे लौटना होगा। तरुणाई में जब मूँछ के बाल निकलने लगते हैं तो उसकी पतली रोमावली के लिए भोजपुरी में रेख उभरना, अर्थात् रोम की रेखा उभरना कहते हैं।

इसके लिए एक अन्य मुहावरे का प्रयोग होता है, ‘मसें भींगना’| इसमें ‘मस’ का अर्थ चांद है, वही जो मास में मिलता है, जो फारसी मे ‘मह’/’माह’ बन जाता है। यही मस ‘मसि’ में दिखाई देता है। मैंने अपने एक लेख में दिखाया है कि काले के लिए, रात के लिए, अंधेरे के लिए जिन शब्दों का प्रयोग होता है उनका अर्थ प्रकाश, चमकने वाला है। रंग काला और नाम रोशनाई।

श्मश्रु
ऐसी स्थिति में हमें लगता है कि मस / समसु का प्रयोग मूछ और दाढ़ी के लिए देववाणी में होता था जो सारस्वत प्रभाव में श्मश्रु बन गया। शमश्रु इस तर्क से आपने देववाणी के तत्सम का तद्भव हुआ।