#आइए_शब्दों_से_खेलें(१४)
दांत
दांत के लिए यदि भोजपुरी से लेकर यूरोप तक समान शब्द मिलते हैं, तो तय है कि यह शब्द देववाणी का है । ऋग्वेद में दांत के तीन चार ही हवाले हैं, परन्तु हैं बहुत मार्मिक। अग्नि प्रज्वलित किए जाने के व्याज से भोर होते ही लातौन से दांत रगड़ने का एक चित्र हैः
उषर्बुधमथर्यो न दन्तं शुक्रं स्वासं परशुं न तिग्मम् (प्रत्यूष वेला मे जगे /प्रज्वलित किए गए/अग्निदेव अपने शुभ्र दातों को साफ करने के लिए रगड़ कर उसी तरह तेज कर रहे हैं जैसे फरसे को पँहट कर तेज किया जाता है)।
दांत के सभी हवाले मानवेतर सन्दर्भों में ही आते हैंः
हिरण्यदन्तं शुचिवर्णं आरात् क्षेत्रात् अपश्यं आयुधा मिमानन् (मैने उस सुनहले दांतों और चमचमाते रंग वाले (अग्नि ) को निकट से अपने आयुध भाँजते हुए देखा।)
सुपर्ण वस्ते मृगो अस्या दन्तो गोभि सन्नद्धा पतति प्रसूता (यहां पंख लगे, सींग के अग्रभागग (दांत) वाले, तांत की प्रत्यंचा पर तने हुए और छूटने के साथ उड़ते हुए लक्ष्य पर गिरनेवाले बाले बाण का वर्णन है)।
परन्तु सारस्वत की ध्वनि सीमा और रुचि के अनुरूप दन्त को दंष्ट्र बनाया गया और इसका लिखित साहित्य में अधिक प्रयोग होने लगा। ऋग्वेद तक दंत का दंष्ट्रीकरण आरंभ हो चुका था। ऐसा प्रयोग यद्यपि एक बार ही आया है।
अयोदंष्ट्रो अर्चिषा यातुधानान् उप स्पृश जातवेदः समिद्धः ।. ( फौलादी दाँतों वाले अग्निदेव, प्रज्ज्वलित होकर अपनी लपटों से राक्षसों को भस्म कर दो।
रद
सं. में दांत के लिए एक अन्य शब्द प्रयोग में आता है। यह है रद। रदन का वैदिक प्रयोग एक झटके में काटने, रहगते या दरेरते हुए गिराने, नष्ट करने के आशय में किया गया है
१. पथो रदन्तीरनु जोषमस्मै दिवेदिवे धुनयो यन्त्यर्थम् (नदियां दिन प्रति दिन इन्द्र प्रेरित बाढ़ के आवेश में कठाव से अपना मार्ग बनाती अपने गन्तव्य की ओर प्रवाहित होती हैं।)
२. इन्द्रो अस्माँ अरदद् वज्रबाहुरपाहन् वृत्रं परिधिं नदीनाम् ,(इन्द्र ने नदियों के मार्ग को बाधित करने वाले वृत्र को ध्वस्त करके काट कर मार्ग का निर्माण किया)।
३. पथो रदन्ती सुविताय देवी पुरुष्टुता विश्ववारा वि भाति ।
कहें काटने के क्रिया रूप में तो रद के कई सन्दर्भ हैं, परन्तु संज्ञा के रूप में, यहां तक कि दांत से काटने के आशय में कही कोई उल्लेख नहीं है।
बढई के,लकड़ी को छील कर अलग कर देने वाले रन्दे का नामकरण इसी आधार पर पड़ा है। संभवतः रन्ध्र और अं. रेंड (rend>render> surrender) का मूल भी संभवतः इसे ही होना चाहिए। भोजपुरी में रद, रद्दी को तो इससे समझा जा सकता है परन्तु रद्दा – मिट्टी की दीवार की एक तह को नहीं। संभव है इस मामले में अर्थविपर्यय हुआ हो।
रद का प्रयोग संभवत: आगे के चीरने या कतरने वाले दांतों (tearing teeth) के लिए किया जाता था और फिर दांतों के लिए सामान्य हो गया। दन्त में कुचलने, दबाने का आशय है।
जम्भ
सबसे पीछे के चौड़े दांतों के लिए भोजपुरी में चउभरि (चाभने या चबाने के दांत) कहा जाता है। चौभरि के लिए ऋग्वेद में जम्भ का प्रयोग मिलता है। परन्तु कभी कभी जम्भ के लिए ‘तिग्म’ विशेषण का प्रयोग देखने में आता है ( स तिग्मजंभ रक्षसो दह प्रति ।। 1.79.6) ऋग्वेद में जम्भ का हवाला दंत और दंष्ट्र की तुलना में कुछ अधिक बार हुआ है, परन्तु क्रिया रूप में विनाश या सर्वनाश के लिए ही।
सर्वं परिक्रोशं जहि जम्भया कृकदाश्वम् जम्भया ता अनप्नसः /
जम्भयन्तोऽहिं वृकं रक्षांसि/ सर्वं परिक्रोश जहि जम्भया कृकदाश्वम्।
अग्नि को मजबूत जबड़ों वाला (वीळुजम्भम्) कह कर याद किया गया है।
(प्र तां अग्नि: बभसत् तिग्मजंभ: तपिष्ठेन शोचिषा य: सुराधा/ तिग्म जम्भस्य मील्हुष:)।
एक प्रसंग में सोम या गन्ने को चूसने या कहें जंभ से निकाले गए रस का उल्लेख (इमं जम्भसुतं पिब 8.91.2) आया है। यह उन कारणों में से एक है जिससे हम सोम को गन्ना मानने को बाध्य होते है, क्योंकि इक्षुलता को छोड़ कर दूसरी किसी लता को चूसने की चर्चा तक कभी सुनने को न मिली।
जैसे रद से रन्दे का संबंध जुड़ता है उसी तरह जंभ से जंबूर – धंसी हुई कील को बाहर निकालने की संड़सी, जिसका प्रयोग बढ़ई और मोची करते हैं, से जुड़ता दिखाई देता है। इसका तकनीकी पहलू अवश्य समस्या बना रहता है।
आनन
मुख की चर्चा हम पीछे कर आए है, परन्तु इसके दूसरे पर्यायों की ओर और उनसे जुड़ी संकल्पना की ओर हमारा ध्यान न जा सका। उदाहरण के लिए आनन जो गढ़ा हुआ शब्द प्रतीत होता है और जिसका आशय है ‘वह अंग जिससे हम बाहर की चीजों को अपने भीतर करते या ग्रसते हैं।’
जैसे शिर का लाक्षणिक अर्थ ‘सबसे ऊपर’ है, उसी तरह मुख से आगे, प्रमुख सबसे आगे का भाव प्रकट होता है जिसमें सबसे ऊपर का भाव स्वत: आ जाता है। परन्तु आनन में केवल मुखमंडल या चेहरा ही सिमट पाता है।
ओक
मुख के लिए प्रयुक्त एक अन्य शब्द ओक है। यह नैसर्गिक है और देववाणी में प्रयोग मे आता था पर बाद में प्रयोगबाह्य हो गया। संभव है यह बदल कर ‘ओप’ -मुख की आभा के लिए प्रयोग में आने लगा, फिर भी ओक, ओक्काई – उद्गीरण, के लिए आज भी प्रयोग में आता है।
ओक की संकल्पना एक कक्ष के रूप में की गई इस आशय में इसका प्रयोग भी हुआ है:
स इत् क्षेति सुधित ओकसि स्वे ।
ततक्षे सूर्याय चिद् ओकसि स्वे वृषा समत्सु दासस्य नाम चित् ।
मुंह के आशय में इसका प्रयोग एक बार ही दिखाई देता है:
कदा सुतं तृषाण ओक आ गम इन्द्र स्वब्दीव वंसगः ।। 8.33.2
गालिब की ‘पिला ले ओक से’ में इसका अर्थान्तरण चुल्लू में हो गया लगता है।