Post – 2018-06-22

#आइए_शब्दों_से_खेलें ( 4)

आंख पर बात करते हुए अपने बीजमंत्र को एक बार फिर याद दिलाना चाहेंगे कि जब हम पर्यायों पर, उनकी विभिन्न बोलियों से संबंध पर, बात कर रहे हैं तो हमारा ध्यान उनकी ध्वनि व्यवस्था पर है। शब्दो की व्युत्पत्ति पर नहीं। केवल यदा कदा ही उलझन को सुलझाने के लिए उसका स्पष्ट उल्लेख करते हैं, परन्तु आप स्वयं ध्यान दें तो उस नियम को सर्वत्र घटित होते पाएंगे।

विशेष भाषा भाषियों के संचलन, संपर्क, एकीकरण को व्युत्पत्ति से नहीं समझा जा सकता, क्योंकि भूभौतिक परिस्थितियां समान होने के कारण, सभी पर उत्पत्ति के वे ही नियम घटित होते रहे हैं, और यह प्रधान कारण है जिससे हमारे शब्दभंडार का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसके विषय में हम यह तय नहीं कर पाते कि मूलतः यह किस बोली का शब्द है। जैसे क्न, ग्न, ज्न में से सबसे पुराना कौन सा है।

ध्वनि नियमों पर एकान्त भरोसा करने वाला यह मान कर चलता है कि उसकी कल्पित भाषा में ये सभी ध्वनियां या तो थीं या कालक्रम से उच्चारण स्थान में परिवर्तन के कारण उत्पन्न हो सकती थीं और हुईं। इसलिए वह इस भिन्नता को एक ही भाषा के आंतरिक ध्वनि नियमों में परिवर्तन का परिणाम मानता है और इस रुप में इनकी व्याख्या भी कर लेता है। इस मामले में हमारा अपना परंपरागत तरीका पश्चिम के विद्वानों द्वारा भी अपनाया गया, इसलिए हम दोनों में इसी सीमा को लक्ष्य करते हैं।

इस तर्क से ज्+न भी ज् +ञ मैं बदल कर ज्ञ हो जाता है। सीमा इसलिए कहना पड़ रहा है कि अपनी पड़ताल में हम पाते हैं कि आदिम समाजों में बहुत कम ध्वनियों और एक सीमित संख्या के शब्दों से काम चल जाता था । आज भी किसी भाषा या बोली में सभी ध्वनियां नहीं पाई जाती। यहां तक की अ, ई जैसी मूलभूत प्रतीत होने वाली ध्वनियों तक का अनेक भाषाओं में अभाव है।

दूसरे, इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि भारत में ये सभी ध्वनियां क्यों पाई जाती हैं और यूरोप में एक में क्न (know/ knowledge)मिलता है तो दूसरे में ग्न (gnos) और एक से दूसरे में पहुंची शब्दावली में γιγνώσκειν (gignṓskein में पहली ध्वनि सुरक्षित रहती है, जो ज्ञान ही नहीं जिज्ञासा की भी याद दिलाती है। Old English cnāwan (earlier gecnāwan ) ‘recognize, identify’, of Germanic origin; from an Indo-European root shared by Latin ( g)noscere, Greek gignōskein, also by can1 and ken.विक्शनरी

वास्तविकता यह है कि जिसे हम ध्वनि नियम से समझने का प्रयत्न करते हैं उसे विभिन्न भाषाओं की ध्वनिगत सीमाओं से समझने का प्रयत्न करें तो चित्र अधिक स्पष्ट होगा। ध्वनिपरिवर्तन पर वहां भी ध्यान देना होगा, परंतु तब हम भाषा पर शुद्धतावादी या नस्लवादी सोच से बाहर निकल सकेंगे और पहले के अध्येताओं द्वारा किए गए विश्लेषण और जुटाई गई सामग्री का अधिक सार्थक और वैज्ञानिक उपयोग कर सकेंगे।

काल्डवेल ने अपनी विख्यात पुस्तक में आर्य भाषाओं से अलग द्रविड़ परिवार की स्थापना के लिए कुछ शब्दों की तालिका यह दिखाने के लिए बनाई थी कि अमुक के लिए अमुक शब्द का प्रयोग संस्कृत में होता है और तमिल मेंअमुक का। यह बहुत सतही और भ्रामक वर्गीकरण है जिसमें यह मानकर चला गया है कि दोनों परिवारों में किसी एक वस्तु के लिए यदि एक शब्द का प्रयोग होता था दूसरे का नहीं या जिसमें जिस रूप में उसका प्रयोग होता था दूसरे में उससे भिन्न रूप में उसका प्रयोग नहीं हो सकता था।

उस वर्गीकरण में उन्होंने यह दिखाया था की आंख के लिए संस्कृत में अक्षि का प्रयोग होता था और तमिल में कण् का। संस्कृत में आंख के लिए अक्षि, चक्षु, लोचन, दृग, नयन, नेत्र आदि अनेक शब्दों का प्रयोग होता था काडवेल को अक्षि की याद इसलिए बनी रही, क्योंकि अंग्रेजी के आई से उसका साम्य दिखाई दे रहा था। परंतु उनको इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए था कि भले कन् का अर्थ आंख हो, तमिल में देखने के लिए पार् और नोक्कु का इस्तेमाल किया जाता है।

संस्कृत में देखने के लिए सबसे अधिक प्रयोग दृग,का होता है परंतु द्रष्टा के लिए कण्व और दृष्टिबाधित के लिए काणा का प्रयोग प्रचलित रहा है और आँख का पुतली के लिए कनीनिका का। भारतीय भाषाएं एक दूसरे में इतनी घुली-मिली हैं कि यह तय करना कठिन है कि किसी भाषा के समग्र शब्द भंडार का कितना प्रतिशत उसका अपना है।

दृग, नेत्र जैसे शब्द देववाणी में नहीं हो सकते थे। अक्षि देववाणी का शब्द नहीं है। देववाणी में इसके लिए आंख शब्द का प्रयोग होता है। ऐसा लगता है कि पहले इसके लिए अक्क/अक्ख का प्रयोग होता था और यही सारस्वत भाषा में अक्ष बना। संभवतः अक्क / अक्ख का एक वैकल्पिक रूप इक्क/इक्ख भी था।

वास्तव में हम एक बहुत जोखिम भरे प्रस्ताव की ओर बढ़ रहे हैं। जिसे हमने परवर्ती सीमाओं के कारण क्ख के रूप में रखा है, संभव है वह ख्ख रहा हो। हम इसको इसकी तार्किक परिणति पर पहुंचाते हुए यह प्रस्ताव रखना चाहते हैं कि जैसे तमिल में वर्ग की प्रथम और पंचम ध्वनियां ही हैं उसी तरह देव वाणी में प्रथमतः केवल महाप्राण ध्वनियां ही रही हो सकती हैं। जो भी हो यह प्रस्ताव इतना उलझाने वाला है और इसका पक्का दावा करने के लिए जितने विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण की आवश्यकता है वह न तो एक व्यक्ति से संभव है, न ही जितना एक व्यक्ति से संभव है वह भी मेरे लिए सक्य है। हमारे इस सुझाव का आधार केवल यह था कि जिसे ऋग्वेद में इष- जल, रस, सोमरस, > इक्षु के रूप में लिखा पाते हैं उसका भोजपुरी में इख, ईख हो जाता है। काशी के पुराने संस्कृत विद्वान भी ष का उच्चारण ख के रूप में करते हैं। यह उसी पुरानी ध्वनि सीमा के कारण लगता है।

भोजपुरी में आंख का प्रयोग लगभग उन सभी प्राथमिक आशयों में होता है, जिनमें संस्कृत में अक्ष का प्रयोग होता है। संस्कृत में अक्ष और अक्षि मैं अर्थभेद किया जाता है, परंतु वैदिक में दोनों में कोई अंतर नहीं है (शतं चक्षाणो अक्षभिः)। यही स्थिति चक्ष और चक्षु की है (इन्द्र त्वा सूरचक्षसः /दिवीव चक्षुराततम् ) जिससे बांग्ला का चोख निकला है। भोजपुरी में चोख पैने या तेज के अर्थ में सीमित रह गया है। हम केवल यह समझा सकते हैं कि संस्कृत में देववाणी आंख के आशय में अक्क/अक्ख, इक्क/इक्ख, चक्क/चक्ख गया और सारस्वत क्षेत्र में पहुंचने के बाद रूपांतरित हुआ है। चक, चकित, चकचकाना, चाकचिक्य में प्रकाश का आभास बना रह गया है। रोचक यह है कि ऋग्वेद में निचिरा नि चिक्यतुः, विदथा निचिक्यत् , चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् जैसे प्रयोग बचे रह गए हैं।