Post – 2018-06-21

#आइ_शब्दों_से_खेलें ( 3)

मूड़ी/मुंड

सिर के लिए भोजपुरी में एक अन्य शब्द है मूड़ी जो संस्कृत में भी मुंड बन कर पहुंचा हुआ है। यह शब्द वैदिक में नहीं मिलेगा । एक धुंधली याद है कि सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने ओरिजिन एंड डेवलपमेंट ऑफ बंगाली लैंग्वेज में लिखा है कि यह मुंडा भाषा से आया हुआ शब्द है। जिस तरह कृषिकर्मीअपने पर गर्व करते हुए, आपने को आर्य कहते हुए, अपनी श्रेष्ठता का दावा करते रहे, उसी तरह मुंडा जन भी, अपने को बहादुर या मर्द मानते रहे हैं। भोजपुरी में और हिंदी में भी मुंडा से मिलते जुलते हैं अनेक शब्द हैं कुंड, गुंड, घुंड, घुंडी, झुंड, तुंड, रुंड, लुंड, लुंडरी, लुंडेरल, सुंड, हुंड हुंडी, अंड (, कंड, खंड, गंड (गंडा=4 का ,कुलक, दीक्षाबंध) चंड, झंड, तंड, दंड, पंड, बंड, भंड, मंड, रंड,संड (सांड, सड़सी), हंड(हंड़िया) आदि जो इस भाषा से आए हो सकते हैं या किसी अन्य बोली पर इसके प्रभाव में गढ़े हुए हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में इस पहलू पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है की विभिन्न परिवारों की बोलियां एक दूसरे को किस तरह और किस गहराई तक प्रभावित करती और बदलती रही है। मैंने कहा ऋग्वेद में मुंड शब्द नहीं मिलता। सच्चाई यह है, कि इस श्रृंखला का कोई भी शब्द नहीं मिलता। अकेला मंडल शब्द है, जो पाठ का हिस्सा नहीं है, संपादन के समय, संपादकों द्वारा किए गए वर्गीकरण के समय प्रयोग में लाया गया है, इसलिए यह भी संस्कृत का तो है, परंतु वैदिक का नहीं। इसे बाद में स्वीकृति मिली है।

मुंडा का प्रयोग पंजाबी में लड़के के लिए किया जाता है। यह संस्कृत के मुंडित अर्थात वह जिसके केश काटे जाते हैं, से निकला माना जा सकता था परन्तु यह केश निरपेक्ष भाव से सभी लड़कों के लिए प्रयोग किया जाता है। दूसरे केश कटाने वालों के लिए मोना शब्द का प्रयोग होता है, जो मुंडित सिर वाले मुनियों से निकले, मौनेय का तद्भव है, इसलिए मानना होगा कि मुंडा पुरुष सूचक और मुंडा भाषा से निकला हुआ शब्द है, यही बात कुड़ी पर भी लागू होती है। जहां मुड़ना, मुड़ाना, संस्कृत में प्रवेश के बाद ब, ली में आए, उसके तद्भव हैं, वहां मूड़ी मूल भाषा से सीधे आया हुआ शब्द प्रतीत होता है।

भाल
हम सिर के अग्रभाग पर आएं जिसके लिए अंग्रेजी में संभवतः अलग से कोई शब्द नहीं था, इसलिए दो शब्दों को जोड़कर फोरहेड, शब्द बनाया गया। इसके लिए प्रयोग में आने वाला एक शब्द है भाल जिसका अर्थ है चमकने वाला। इसका दूसरा पर्याय ललाट भी गढ़ा हुआ ऐसा लगता है। पहला शब्द भोजपुरी में हो सकता था पर है नहीं, ललाट के स्थान पर लिलार मिलता है।

ललाट और लिलार दोनों का अर्थ भी चमकने वाला है। वैसे तो चाम या चर्म का अर्थ भी चमकने वाला ही है और रूप जिससे रूपा बना है उसका भी अर्थ चमकने वाला है इन सभी के मूल में जल की संकल्पना है और जल का चमत्कार आरोपण है। चर्म से चर्मण्वती और चाम से चंबल बना है। दोनों एक ही नदी के नाम हैं। चाम का अर्थ चमकने वाला है यह तो चम और चमक और चमकना से ही प्रकट है अंग्रेजी में चर्म चार्म हो जाता है।

चिर की तरह चाम का सारस्वत रूप चर्म हुआ और बदल कर शर्म हुआ। ऋग्वेद में शर्म का प्रयोग, धन (‘अस्मभ्यं शर्म यच्छतम् ।’ हमें धन-धान्य प्रदान करें)। आवास (पुरःसदः शर्मसदो न वीरा अनवद्या पतिजुष्टेव नारी ।। 1.73.3. भाव यहां यह है कि जैसे व्यापार रोजगार के लिए अपनी बस्ती और घर छोड़ कर देशान्तर गमन न करने वालों पर किसी तरह की आंच नहीं आती उसी तरह पति के साथ रहने वाली स्त्री को लेकर कोई किसी तरह का प्रवाद नहीं फैला सकता), सुरक्षा, मंगल (त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती, कल्याणकारी देव, हमारा तीनों तरह से कल्याण करें), आश्रय स्यामेन्द्रस्य शर्मणि ( इन्द्र के संरक्षण में रहें) या (सुशर्मणो बृहतः शर्मणि स्याम्, तुम्हारे विशद संरक्षण में हम सुरक्षित रहें) आदि अनेक अर्थों में हुआ है । इसका एक अर्थ कांति भी है, यह तो शर्म आने पर स्वतः प्रकट हो जाता है। हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है कि चर्म की तरह आवरण और कांति दोनों आशयों में शर्म का भी प्रयोग होता है।

लिलार
ल, ला, ली, लु, ले लो सभी का संबंध पानी से है। लहर, लाला, लय आदि इसी तर्क से इससे जुड़े हैं। जल है तो चमक, दिखावा-तमाशा भी चलेगा। लीला और लिलार सगोत हैं। लीला को और लय, लाला, लीन,, लोभ आदि तो संस्कृत में भी पहुच गए। लिलार का उच्चारण आदि इकार होने के कारण कुछ समस्या पदा करता था।

लीला – प्रदर्शन, तमाशा, अभिनय संस्कृत में भी देखने में आता है। भोजपुरी में हैसियत से बढ़कर दिखावा करने वालों के लिए एक मुहावरा चलता है ‘लिल्ली घोड़ी लाल लगाम’, जिसमें लिल्ली का अर्थ कठघोड़ा नाच के तमाशे से है। हमने इसकी चर्चा यह स्मरण दिलाने के लिए की कि लिलार का भी अर्थ भी चमकने वाला ही है। संस्कृत ललाम और ललाट दोनों का अर्थ सुंदर, चमकने वाला है। हमारा अनुमान है कि ललाट शब्द लिलार का संस्कृतीकरण या परिवर्तित रूप है।

जो शब्द देवभाषा से संस्कृत में गए हैं, परंतु ऋग्वेद में नहीं पाए जाते वे इस बात के प्रमाण हैं कि ऋग्वेद में अपने समय की बोलचाल की भाषा के बहुत थोड़े से शब्द ही आ सके हैं। यह बात सभी काव्य कृतियों पर लागू होती है। इसलिए सांस्कृतिक संदर्भों की चर्चा करते समय हम जो उपलब्ध है उसका उपयोग निश्चयात्मक प्रमाण के लिए कर सकते हैं, परंतु यह दावा नहीं कर सकते कि अमुक शब्द ऋग्वेद में नहीं आया है, इसलिए उस काल में वह कार्य, वस्तु या कौशल था ही नहीं।