Post – 2018-06-18

#आइए_शब्दों_से_खेलें (1)

जरूरी नहीं है आप भाषाविज्ञानी हों। भाषा का प्रयोग हम सभी करते हैं। सभी लोगों की भाषा में रुचि एक जैसी नहीं होती। एक वकील की भाषा में रुचि कवि की रुचि से भिन्न होती है। कवि और विचारक की रुचि में, यहां तक कि विचारक और पत्रकार की रुचि में अन्तर होता है। एक शल्यचिकित्सक, मनोचिकित्सक, भौतिकविज्ञानी, कंप्यूटर विज्ञानी का भाषाविज्ञान एक जैसा नहीं होता। भाषाविज्ञानी अपना ज्ञान बघारने के चक्कर में जितनी मूर्खताएं कर बैठते हैं और हमारा जितना नुकसान कर डालते हैं उसका शतांश भी कोई अनाड़ी नहीं कर सकता। आखिर हम पूरी दुनिया के महान कहे जाने वाले भाषाविज्ञानियों के प्रचंड ज्ञान से उत्पन्न नासमझी का ही फल तो इतने लंबे समय से भुगतते रहे हैं जो हमारे अपने समाज, इतिहास, और मनोबल को तहस नहस करता रहा।

यह काम इतना रूखा भी नहीं कि इसे करते हुए आप ऊब जाएं। सच तो यह है कि कई बार बच्चे तक भाषा में इतना रस लेने लगते हैं कि खेल खेल में आपसी संचार की एक कूट भाषा तैयार कर लेते हैं। हम आपको भाषा के ऐसे खेल में शामिल करने जा रहे हैं जिसमें भाग लेने वालों की कोई सीमा नहीं, परन्तु यदि कोई शामिल न हो तो मैं अकेला भी खेलता रह सकता हूं। हमारे सामने दो सवाल हैं। एक यह कि नई कृषि भूमि की तलाश में देवों के किसी जत्थे के अपनी पैतृक भूमि से आगे बढ़ने के समय तक देववाणी का विकास किस स्तर तक हुआ था, और संस्कृत को उससे क्या मिला था? दूसरा यह कि सारस्वत क्षेत्र की भाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं से संस्कृत को क्या मिला? सन्देह इस बात पर हो सकता है कि दस हजार साल के लंबे अंतराल और इस बीच हुए कई तरह के घालमेल के बाद इसे क्या जाना जा सकता है?

हम अपने कुछ अंगों के नामकरण से आरंभ करें। जरूरी नहीं कि हम जिस नतीजे पर पहुंचें और जिसे सही मानें वह सही ही हो। हमारे लिए वह तब तक सही है जब तक हम स्वयं किसी छूटे हुए पहलू के ध्यान में आने पर उसे गलत न पाएं या कोई दूसरा उसे गलत सिद्ध न कर दे।

सिर के लिए संस्कृत में शीश, शिर, मौलि, मूर्धा, मस्तक का प्रयोग होता है। ऋग्वेद में शीश का प्रयोग नहीं मिलता। शेष में से किस शब्द का प्रयोग देवदाणी में होता रहा होगा?

भोजपुरी में ‘श’ का उच्चारण आज भी नहीं होता। इसके स्थान पर ‘स’ का प्रयोग होता है। अब दो संभावनाएं हैं। या तो वैदिक ने सिर के दन्त्य ऊष्म (स) का तालव्यीकरण करके ‘श’ बना लिया, जिस दशा देववाणी का रूप तत्सम हुआ और वैदिक/संस्कृत प्रतिरूप तद्भव, अथवा इसके उलट हुआ, जिसमें सिर शिर का तद्भव हआ। अब देखना होगा कि क्या ऐसा परिवर्तन होने का कोई अन्य उदाहरण है।

ऊष्म ध्वनियों के मामले में हम पाते हैं कि अर्धमागधी और बांग्ला आदि में सभी ऊष्म ध्वनियों का उच्चारण तालव्य (श) होता है, पूर्वी हिन्दी और अवधी में दन्त्य (स) होता है, इस तर्क से हम मान लेते हैं कि सारस्वत में मूर्धन्य (ष) होता रहा होगा। अतः यदि यह मूलतः सारस्वत रहा होता तो इसका रूप षिर होना चाहिए था।

वैदिक में हम दन्त्य ‘स’ को कुछ मामलों में ‘ष’ में बदलते पाते भी हैः स्मा>ष्मा , सुसोमा >सुषोमा, सोम>षोम, स्तोम>ष्टोम, स्तुवे>ष्टुवे, नकिस्तदा>नकिष्टदा, विस्तप>विष्टप, स्तवाम>ष्टवाम, दुस्तर>दुष्टर जिससे हमारे उक्त अनुमान को बल मिलता है। एक भी मामले में हम स>श में बदलते नहीं पाते हैं। इसलिए इस बात की कुछ संभावना पैदा होती है कि देववाणी में सिर शब्द न रहा हो, भोजपुरी ने इसे संस्कृत से लिया हो, या उसका रूप कुछ भिन्न रहा हो जिसका वैदिक में तालव्यीकरण होता रहा हो।

भोजपुरी में ‘कपार’ का प्रयोग सिर की तुलना में अधिक किया जाता है। कपाल ऋग्वेद में नहीं मिलता। संस्कृत में मिलता तो है पर प्रयोग खप्पर या मिट्टी की कड़ाही, या खोपड़ी (सिर की अर्धगोलाकार अस्थि) के लिए होता है। कपाल का कुछ बदला रूप कपोल गाल के लिए प्रयोग में आता है। भांडपूर्व कपालास्थि का किसी तरह का तरल पदार्थ रखने के लिए प्रयोग होता था। इसलिए यह नाम मृदभांड का आविष्कार होने से पहले प्रयोग में आता रहा होगा और मृद्भांड विशेष का नामकरण बनावट और उपयोग की समानता के कारण पड़ा हो सकता है।

परन्तु ‘सिर’ और ‘शिर’ का स्रोत क्या हो सकता है? हमें इसका एक समाधान यह दिखाई देता है कि यह कृषिकर्म को अपनाने वाले और लगभग आरंभिक चरण पर ही देवसमाज का अंग बनने समुदाय का शब्द रहा हो सकता है जिसमें कोई ऊष्म ध्वनि रही ही न हो और वह तमिल की तरह ‘च’ का उच्चारण ‘स’ के रूप में भी करता रहा हो। आपने तमिळ भाषियों द्वारा स्वामी की जगह चामी लिखते और बोलते देखा होगा। कहें, सिर का पूर्वरूप चिर था।

इकार और उकार के संभ्रम की स्थिति यहां भी देखने में आती है। इस चिर से ही हमारी चिरुकी का संबंध है जिसका वैकल्पिक उच्चारण चुरकी या चुरुकी भी है। बांग्ला में कंघा के लिए चिरुनी और शिर के बालों के लिए चूल का संबंध इस चिर से ही है। विद्यापति के चिकुर गरइ जलधारा के चिकुर को भी चिर से ही व्युत्पन्न मानना होगा, परन्तु सबसे रोचक है चिरं या सदा जो पूर्णायु का अर्थोत्कर्ष है। यही चिर भोजपुरी में सिर बन कर आया है और इसी से तालव्य उच्चारण वाले शिर का संबंध है।