#आइए_शब्दों_से_खेलें ( 2)
हमारे सामने हमेशा एक दोराहा उपस्थित हो जाता है। ‘शिर’ पर, एक खास अर्थ में, हमारी चर्चा कल पूरी हो गई। अर्थात् मूल शब्द क्या है और वह किस भाषा से दूसरी भाषाओं में गया है। जरूरी नहीं कि हमें उस बोली का नाम भी मालूम हो। उस बोली का मूल रूप तत्सम हुआ और बदले रूप में जिन भाषाओं में वह शब्द पहुंचा है, उनमें पाए जाने वाले रूपों को आप चाहे तो संस्कृत या तद्भव कह सकते हैं। अर्थात् एक दृष्टि से तद्भव और संस्कृत दोनों का अर्थ एक ही हो जाता है। संस्कृत अर्थ हुआ, किसी पूर्वरूप से ‘सुधारा हुआ’, तद्भव का अर्थ हुआ, किसी पूर्वरुप से ‘पैदा हुआ’। एक में प्रयास है, दूसरे में अनायासता । इसीलिए संस्कृत रूप भले खटकें, तद्भव रूप स्वाभाविक लगते हैं। संस्कृत खारा कूप जल भाषा बहता नीर का रहस्य यही है।
जो भी हो, इस दृष्टि से ‘शिर’ पर हमारी चर्चा पूरी हो गई , परंतु यदि कोई यह जानना चाहे ’चिर’ को यह अर्थ मिला कैसे, तो हमें लौट कर जल की उस ध्वनि तक जाना होगं, जिसे विस्तारभय से इस समय हम छोड़ना चाहते थे, पर एक चाल गलत चल जाने के कारण छोड़ नहीं सकते।
हमने यह सुझाया था कि ‘चिरं’ का अनन्त काल के आशय में प्रयोग पूर्णायु का अर्थोत्कर्ष है।’ चिर का सीधा संबंध उस श्रृंखला से है जिसमें अंग्रेजी का सिरप और हिंदी का सीर और सिरका आते हैं। जलर्थक के आग के लिए भी संज्ञाएं निकली है इसलिए उससे चिलम और जलर्थक से चिलवां, चिल्लूपार जैसे तटवर्ती स्थाननाम। ’च’ के सघोष महाप्राणित रूप से झील, झेलम का नाता है। जलसे उत्पन्न मूल ध्वनि चिर, छिर, झिर, सिर और ’र’ के स्थान है ’ल’ से अन्त होने वाले अनुनाद हैं । परंतु संबंध उल्टा है। पीछे कई किश्तों में हम यह दिखा आए हैं लघुता, महिमा, सातत्य, और काल की सभी स्थितियों का नामकरण जल के प्रवाह से उत्पन्न ध्वनियों के (कल् कल् – जल के प्रवाह की ध्वनि > जल> काल, सन् सन् > सन> सन/ सना/ सनत/सनातन/सनन्दन – काल की अवधारणा से जुड़े शब्द) आधार पर, काल को एक प्रवाह मानते हुए, हुआ है। इसलिए सिर/ चिर के साथ सर्वोपरि का जो भाव लगा हुआ है वह जल से आया हुआ है, और चिरं में भी अनंत का भाव शिर आशय वाले या चिर से नहीं आया है, अपितु सीधे जल की निरंतरता से आया है।
संस्कृत के विद्वान केवल उपलब्ध रूप और प्रचलित अर्थ पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते रहे हैं। ध्वनि और अर्थ के बीच संबंध और इसके कारण पर विचार करने का दुस्साहस हमने किया है, इसलिए परंपरागत संस्कृत के विद्वानों को इससे परिचित होने और इस तर्कश्रृंखला को समझने में कुछ कठिन होती है।
अब हम सिर के दूसरे पर्यायों की ओर लौट सकते हैं । #देववाणी के कपार/कपाल, का नामकरण खोपड़ी के जलपात्र के रूप प्रयोग में आने के बाद किया गया यह कुछ संदिग्ध लगेगा। जलपात्र के रूप में खोपड़ी की कल्पना करना भी लोगों के लिए कल्पनातीत हो सकता है। परंतु यह सच्चाई है हड्डी का प्रयोग न केवल औजार, आभूषण आदि के लिए किया जाता रहा है अपितु जंग, फफूंद आदि से अप्रभावित और निर्विष होने के कारण समुद्री कौड़ियां और सीप, हाथी की हड्डी, दांत, हाथ से बने उपकरणों को अधिक पवित्र भी माना जाता रहा है और मानव कपाल इसका अपवाद नहीं रहा है। संभावना यह भी है कि वस्तु-विनिमय के चरण पर इसका विनिमय भी होता रहा हो और इसलिए कुछ जातियां किसी भी तरह घात लगा कर मनुष्यों का सिर काटने और जुटाने पर अभी सौ दो सौ साल पहले तक गर्व करते रहे हैं।
कपाल हमारे मस्तिष्क की रक्षा करता है इसलिए इससे आच्छादन और रक्षा से जुड़ी शब्दावली का भी विकास हुआ है तमिल कप्परै अर्थ है सन्यासी का भिक्षापात्र, और कप्पडम् का अर्थ है वस्त्र। पहली नजर में लगेगा कपड़ा और संस्कृत के कर्पट का तद्भव और इसी तरह खप्पड़ खर्पट का तद्भव, परंतु शब्द श्रृंखला पर ध्यान दें को पता चलेगा की स्थिति उलटी है। सं. में ही कपट और कापटिक प्रयौग जलते हैं न कि कर्पट और कार्पटिक।
कपोल का नामकरण इसके फूलकर गोलाकार, या कपालवत गोल होने की विशेषता पर आधारित है और यही बात कुप्पा, कुप्पी तथा फूलकर कुप्पा होने मुहावरे पर लागू होती है। आच्छादन वाले आशय से खपड़ा> खपरैल, खप्पर, कोपरा – नारियल, आदि का जन्म हुआ है और इसकी छाया छप्पर के ऊपर भी पड़ी लगती है।
ङमने कपाल या खोपड/ खप्पर के जलपात्र के रूप में प्रयोग की बात की थी उसका आधार यह है कि क/ कन् /कं/कू आदि का अर्थ जल, (कक> कच> कच्चा, कच्छ>कछार, कन्>कंज, कं > कंप, कमल, कु>कुच, कू>कूप ) है। कपार/ कपाल,अं. कप, कुप्पा, कुप्पी इसी श्रृंखला में आते हैं।
‘मौलि’ अपने स्वर के कारण भोजपुरी की प्रकृति के अनुरूप नहीं प्रतीत होता। भोजपुरी में मउर उस मुकुट के लिए प्रयोग में आता है जो दूल्हे के सिर पर राजकीय अनुकृति के चलते पहनाया जाता है। यह मौलि के सबसे निकट और सामान्य व्यवहार में प्रयोग में आने वाला शब्द है जिससे हम परिचित हैं । मामूली अर्थभ्रम के बावजूद यह शब्द देववाणी का अपना प्रतीत होता और संस्कृत में पहुंचा हुआ लगता है ऋग्वेद इसका प्रयोग नहीं हुआ। संस्कृत में भी यह चंद्रमौलि के लिए ही विशेषकर प्रयोग में आता है।
मस्तक एक भ्रामक शब्द है। मस्तिष्क इसी का दोबारा संस्कृतीकरण है। देववाणी में इनमें से कोई प्रयोग में नहीं आ सकता था। भोजपुरी में मस्तिष्क के लिए माथा का प्रयोग होता है। माथा मेधा का जनक है और मस्तक तथा मस्तिष्क का भी जनक प्रतीत होता है। मस्तक मस्तिष्क दोनों अनिरुक्त प्रतीत होते हैं, अर्थात यह नहीं पता चलता इनको यह संज्ञा किस आधार पर मिली है।
माथा मथानी/मन्था, मथना/ मंथन की श्रृंखला में आता है और यह प्रयोग बहुत पुराना है। कुशीनगर में बुद्ध की शयन मुद्रा में जो प्रतिमा है, उसके लिए बुद्ध की जगह माथा कुंवर – मेधावी राजकुमार, की संज्ञा प्रचलित थी। मस्तक और मस्तिष्क ये दोनों शब्द भी ऋग्वेद में नहीं पाए जाते परंतु अंतर्मंथन और आकाश अंतरिक्ष समुद्र अरणी सभी के मंथन का और दुश्चिंता के अर्थ में भी मंथन का प्रयोग पाया जाता है
मन्थस्त इन्द्र शं हृदे,
न मा मिमेथ न जिहीळ,
न पूषणं मेथामसि सूक्तैरभि गृणीमसि ।
यर्दीमनु प्रदिवो मध्व आधवे गुहा सन्तं मातरिश्वा मथायति ।। 1.141.3
ऐनं नयन्मातरिश्वा परावतो देवेभ्यो मथितं परि ।। 3.9.5
अग्निं न मा मथितं सं दिदीपः प्र चक्षय कृणुहि वस्यसो नः ।
मथितो यामायनः, 10.19
भराग्निं मन्थाम पूर्वथा ।। 3.29.1
श्येनो मथायदिषितस्तिरो रजः ।
श्येनो मथायदिषितस्तिरो रजः
वायुरस्मा उपामन्थत्पिनष्टि स्मा कुनंनमा ।
केशी विषस्य पात्रेण यद् रुद्रेणापिबत्सह ।। 10.136.7
इसलिए ऐसा प्रतीत होता है मस्तिष्क और मस्तक दोनों देववाणी के माथा का संस्कृतीकृत या तद्भव रूप हैं।