#विषयान्तर
जरूरत समझ दुरुस्त करने की है
अपने स्वभाव और शिष्टाचार की सीमाओं को लांघते हुए पहली बार मैंने अपनी पोस्ट पर स्वयं लिखा ‘इसे अवश्य पढ़ें, कई बार पढ़ें,’ और फिर आगे यह भी जोड़ने में संकोच नहीं किया कि ‘यह एक युगांतरकारी पोस्ट है।’ इतना जोर इसलिए देना पड़ा कि मुझे डर था कि सामान्यतः मनस्वी पाठक भी इसकी स्थापनाओं पर ध्यान न दे पाएंगे और समस्या की गंभीरता बहुत कम लोगों की समझ में आएगी। इस पर मिली टिप्पणियां उत्साहवर्धक कही जा सकती हैं, पर वे भी मेरी आशंका को सही भी ठहराती हैं। इसलिए दोबारा मैं यह समझाने का प्रयत्न कर रहा हूं कि इसकी स्थापनाएं क्या हैंः
1. इसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि #तुलनात्मक भाषाविज्ञान की अब तक की सभी मान्यताएं गलत हैं# , सिवाय इसके कि एक ही भाषा का प्रसार भारत से लेकर यूरोप तक हुआ था।
2. जिस भाषा का विकास कई हजार साल बाद वैदिक में हुआ था, उसको बार बार #देववाणी# कहा गया है न कि #प्राकृत# (यहां यह भी जोड़ते चलें कि जिस अर्धमागधी को नमिसाध ने आर्ष प्राकृत कह कर उसे संस्कृत और वैदिक की जननी बताया था, उसके पीछे भाषा ज्ञान से अधिक उनका यह विश्वास काम कर रहा था कि महावीर ने उसी भाषा में अपनी शिक्षाएं दी थी। यह वैसा ही विश्वास था जैसा पश्चिम में लंबे समय तक प्रचलित यह धारणा कि आदम की भाषा हिब्रू रही होगी और उसी से दुनिया की सभी भाषाएं पैदा हुई हैं।
3. पहले की पोस्टों में #वैदिक भाषा की परिपक्वता# को देखते हुए, यह संकेत दिया गया है कि इसके पीछे साहित्यिक भाषा के कई चरण रहे होंगे, तभी बाद की भाषा और साहित्य इस ऊंचाई पर पहुंचे होंगे। तुलना बहुत सटीक तो नहीं होगी, पर हम इसे आधुनिक अंग्रेजी, मध्यकालीन अंग्रेजी, और प्राचीन अंग्रेजी के साम्य से कुछ दूर तक समझ सकते हैं।
4. अब तक के जिन विद्वानों ने यह सुझाया था कि संस्कृत से प्राचीन प्राकृत है, उन्होंने भी, यह नहीं बताया कि उसका रूप क्या था और वह कहां बोली जाती थी (यदि बोली थी तो उसका कोई सीमित क्षेत्र रहा होगा)। यह भी नहीं बताया कि किन कारणों से उसे इतनी व्यापक स्वीकृति मिली।
5. प्राकृत कहने वाले वास्तव में उसी पाले में अपना खेल खेलते रहे हैं, जिसमें काम करने वालों द्वारा संस्कृत के विकास में, आज के शब्दों में कहें तो, आर्येतर भाषाओं की कोई भूमिका नहीं मानी जाती रही है। यहां पहली बार तीन चीजों को नकारा जा रहा है। पहली है आर्य और अनार्य भाषा-परिवारों की अवधारणा, दूसरी इनकी पारस्परिक असंपृक्तता, और तीसरी पाश्चात्य अध्येताओं द्वारा सुझाया गया आक्रांताओं और आक्रांतों की भाषाओं के बीच आदान प्रदान। इसमें, कुछ स्थापनाएं रामविलास जी की हैं, जिनको पहले स्वीकार किया गया है।
6. उनसे अलग हटकर, एक बात कही गई है कि स्वयं #आर्यभाषा दो विपरीत प्रकृति की भाषाओं के मिश्रण का परिणाम# है, जिसमें जैसा कि रामविलास जी ने भी कहा है, अन्य कई भाषाओं के तत्व शामिल है।
जब तक इस पूरे चित्र को सामने रखते हुए गुण-दोष पर विचार न किया जाए तब तक न तो अनुमोदन का विशेष महत्व है, न ही असहमति का। मुझे उसकी जरूरत नहीं है। मेरा आग्रह मात्र यह है कि अपनी भाषा और इतिहास के विषय में, अपनी समाज रचना के विषय में, हमारी समझ दुरुस्त हो।