Post – 2018-06-16

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया(13)
(यह लेख अवश्य पढ़े, कई बार, यह युगान्तरकारी है )

हम जानते हैं विशाल वृक्ष जमीन पर पड़े बीज से पैदा होते हैं और अदृश्य जड़ों से अपना पोषण ग्रहण करते और संतुलन बनाए रखते हैं, उनकी पत्तियों में पके भोजन का कुछ अंश लौट कर जड़ों में भी पहुंचता है। कि प्रकृति में कोई भी चीज न तो शुद्ध होती है और न ही परिपक्व। यह दोनों काम मनुष्य स्वयं करता है, जिसे हम संस्करण और प्रसंस्करण कहते हैं। संस्कृत, जैसा कि इसका नाम ही है, इसी तरह की एक साधारण सी, परंतु अपनी जमीन से जुड़ी हुई, भाषा के क्रमिक रूपान्तर का परिणाम है जो समाज से इतना कट जाती है कि विद्वान अपने विचार को कम से कम लोगों के लिए बोधगम्य बनाने पर गर्व करते रहे हैं।

भारत में दुनिया के महानतम भाषा चिंतक पैदा हुए परंतु किसी तरह का पूर्वाग्रह महान से महान प्रतिभा के सोच को उलट देता है, यह इस बात से समझा जा सकता है कि उनका विचार था कि बोलियां संस्कृत के तद्भवीकरण या अपभ्रंशीकरण से पैदा हुई हैं। अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ है नीचे गिरना। प्राकृत शब्द में यह निहित था कि यह प्रकृतिप्रदत्त भाषा है। कुछ विद्वान बहुत दृढ़ता से मानते थे कि संस्कृत प्राकृत से पैदा हुई है। परंतु हमें जो प्राकृत साहित्य उपलब्ध है, वह संस्कृत का लौकिक ध्वनि प्रवृत्तियों के अनुसार रूपांतरण है, जिसमें मामूली अपवादों को छोड़कर संस्कृत के व्याकरण का भी अनुगमन किया गया है। इसलिए, मुख्यधारा में यह विश्वास बना रहा कि संस्कृत ही प्रकृति है और इसी से दूसरी बोलियों का जन्म हुआ है।

यह सच है कि संस्कृत के उत्थान के बाद दर्शन, विज्ञान, कला, साहित्य सभी क्षेत्रों में साहित्य संस्कृत में ही रचा गया और संस्कृत की प्रतिस्पर्धा में खड़ी होने वाली बोलियों ने भी अपने दार्शनिक विवेचन के लिए संस्कृत से ही तकनीकी शब्दावली ग्रहण की, या अपनी अपनी ध्वनि प्रवृत्ति के अनुसार ग्रहण की, जिससे भी इस भ्रम को समर्थन मिलता रहा कि बोलियां संस्कृत के अपभ्रंशीकरण से ही पैदा हुई हैं।

इन विचारों को बार बार पढ़ते-सुनते, इन्हीं के अनुसार शोध कार्य करते हुए मनस्वी विद्वान और पाठक भी इसके इतने आदी हो चुके हैं कि बार-बार यह समझाने के बाद भी कि मानक भाषाएं प्रकृति प्रदत्त नहीं है, संस्कृत है, बुद्धि से मान भी लेते हैं, पर हृदय से स्वीकार नहीं कर पाते। हमने ’बर’/’बार’ की शृंखला के ’वर’ /’वार’ शृंखला में रूपांतरण के उदाहरण देते हुए इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया परंतु वह पर्याप्त नहीं है। हम कुछ और उदाहरणों से उस प्रक्रिया को स्पष्ट करने की कोशिश करेंगे जिससे देववाणी संस्कृत में बदली थी।

जैसे ’बर’ को ’वर ’ और फिर ’वृ ’ बनाया गया पर इस पूरे क्रम को उलट कर ’वर ’ को ’वृ ’ का संप्रसारित रूप माना जाता रहा, उसी तरह ’कर ’ और ’चर ’ को ’कृ ’ का संप्रसारित रूप सिद्ध किया जाता रहा। पर ‘ऋ’ की ध्वनि देववाणी में थी ही नहीं। ’कर ’ बोलियों से लेकर संस्कृत तक में मिलता है इसलिए संस्कार होने के क्रम में ही ऋ की ध्वनि आई थी, जिसका सहज, शुद्ध उच्चारण कहीं होता ही नहीं, जब कि किसी भी बोली की नैसर्गिक ध्वनि का उच्चारण दूसरे क्षेत्रों के लोगों के लिए यदि कष्टसाध्य हो तो भी उस भाषाक्षेत्र में उसका उच्चारण सुकर होता है, जैसा हम ङ और ञ के मामले में देख आए हैं।

मैंने कहा था संस्कृतीकरण की प्रक्रिया में तीन घटकों का योगदान था- स्थानीय भाषा की ध्वनि व्यवस्था, उसकी व्यंजन प्रधानता, और देव समाज की तरह कौशल और अनुभव के द्वारा विकास प्रक्रिया में योगदान करने के लिए आए हुए अन्य भाषाओं के प्रतिभाशाली जन। ये सभी अपनी ओर से बोलते तो देववाणी ही थे परंतु उनकी श्रुति और उच्चारण सीमाओं के कारण वह संस्कृत हो जाती थी, अर्थात् वे देववाणी का सही उच्चारण नहीं कर पाते थे। दोषपूर्ण उच्चारण के कारण बिगड़ा रूप बनता जिसे हम तत्सम कहने के आदी हैं। यहां हम एक बहुत रोचक निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं। जिसे हम संस्कृत कहते हैं वह स्वयं अपभ्रंश है, और जिसे अपभ्रंश कह रहे हैं वह तत्सम है अर्थात् देववाणी के अनुरूप है । कहें संस्कृत देववाणी का तद्भव रूप है।

अब हम उदाहरणों से इस प्रस्ताव की पुष्टि करना चाहेंगे। हम अपनी बात जुबान से ही करें। देववाणी में जीभ के लिए संभवत: ’जीभि’ का का वैकल्पिक उच्चारण ’जिब्भ’ करते थे, इसमें अंत्य ’अ’ का उच्चारण डेढ़ मात्रा का होता है । कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए, वह ऐसे प्रयोग करते थे जिसके कारण भोजपुरी में कला का हीनार्थक रूप कल्ला, लाभ का ’लब्भा’, लता का लत्ता, आदि हो जाता है ।

ऊंचे स्वर में बोलने के लिए आज केवल गीदड़ की आवाज के लिए ’हुँआइल’, तूफान की आवाज के लिए ’हुहुआइल’, चुनौती भरी अस्पष्ट ध्वनि के लिए हुंकार, किसी चीज को पाने के लिए बहुतों की आतुरता के लिए ’हउहार’, ’हां’ के लिए ’हूं’, और अनुमोदन के लिए हुंकारी भरना/पारना का प्रयोग चलता है। तूफानी गति से किसी के आगे बढ़ने के लिए ’हहास’, प्रखर प्रवाह के लिए ’हर हराकर’ बहना, और किसी पेड़ के कट कर धराशायी होने को ’हहरा कर गिरना’, अकस्मात उठी मानसिक या शारीरिक पीड़ा के लिए ’हूक उठना’ प्रयोग चलता है। किसी दूरस्थ व्यक्ति को संबोधित करने के लिए जो वाक्य बोला जाता है उसका अंत सामान्यतः स्वरित ’होss’ से होता है। तीव्रता, आकस्मिकता, पुकार आदि से ’ह’ की ध्वनि का देववाणी में सहज संबंध था। परंतु भोजपुरी में ’व’ के लिए स्थान नहीं था। उसमें इस ध्वनि को सारस्वत क्षेत्र में अपनाया गया। हम पहले यह बात कह आए हैं कि नई ध्वनियों से उसकी प्रकृति प्रभावित नहीं होती थी, इसलिए ’हो’ / ’हउ’ के ’हव’ में बदल जाने को संभवतः लक्ष्य ही नहीं किया गयाः
अस्माकं शृणुधी हवम्,
इत्था विप्रं हवमानं गृणन्तम् ,
हवन्ते वाजसातये,
कामो राये हवते मा,
कदा गोमघा हवनानि गच्छाः,
रुद्रस्य सूनुं हवसा विवासे,
त्वे अग्न आहवनानि भूरि,
न द्रुह्वाणो जनानाम्,

ये लगभग उसके अपने प्रयोग थे। उसकी समस्या स्वर् के लोप और व्यंजन संयोग से पैदा होती थी, जबकि कि स्थानीय समाज की समस्या स्वरों के कारण उसकी गति में बाधा पड़ने के कारण हितप्रयसो वृषभं ह्वयन्ते
वरुणाय जुह्वत्
आजुह्वानो न ईड्यो
गृभाय जिह्वया मधु
जना इमे विह्वयन्तः तना गिरा
नि ह्वयामहे
आह्वयमानान्
रोदसी अह्वयेताम्
इसी तरह देववाणी का जीभि सारस्वत प्रदेश में घोषमहाप्राण तथा ईकारांत होने के कारण स्वीकार्य नहीं था। अकारांत लिखने के लिए स्वीकार किया जा सकता था, जो उच्चारण में हलंत ’जीभ्’ हो जाता है। यही स्थिति दूसरे शब्दों की है।

परंतु यह तो हिंदी की बात हुई। पुराने सारस्वत निवासी ’जीभि’ के उच्चारण में जबान को दांत से काटने के लिए तैयार हो जाते थे, पर सही उच्चारण हो नहीं पाता था। इसका जिह्वा, जुह्वा दो रूपों में उच्चारण करते थे। यह हमारे लिए इस दृष्टि से काफी रोचक है कि इससे यह सिद्ध होता है कि इकार के उच्चारण में स्थानीय लोगों को कठिनाई आती थी और इसका इकार और उकार दोनों में उच्चारण करते थे। इन्हीं दोहरे उच्चारण के मूल के लिए ऋ ध्वनि की कल्पना की गई थीः
कृष्णा कृणोति जिह्वया
पुरो विप्रा दधिरे मन्द्रजिह्वम्
मन्द्रो होता स जुह्वा यजिष्ठ
अभि प्रमुरा जुह्वा स्वध्वर
जिह्वाया वि वृहामि ते
इसी को हम संस्कृतीकरण की प्रक्रिया कहते हैं, जो सचेत रूप में किया गया परिवर्तन नहीं था, अपितु तत्सम उच्चारण न सुन पाने और कर पाने की विवशता से पैदा हुई थी। इसलिए हम अब तक के प्रचलित मुहावरे को संस्कृत ही प्रकृति है उलट करें यह कहना चाहते हैं की बोलियां ही प्रकृति
है और संस्कृत उनका अपभ्रंश।,