Post – 2018-06-06

#वैदिककविता
ऋग्वेद में नई कविता(ख)

मैंने कल जो उद्धरण दिए थे, वे परिचयात्मक हैं, समापी नहीं। हम कविता पर बात करने से बचना चाहते हैं, क्योंकि इसका सम्यक विवेचन एक पुस्तक की अपेक्षा रखता है, और इससे भाषा के काम में बाधा पैदा होगी। परंतु यदि, प्रसंगवश ही सही इसकी चर्चा चल ही गई, तो यह बताना जरूरी है की बीसवीं शताब्दी के नई कविता आंदोलन से वैदिक कवियों की नई कविता आंदोलन का क्या अंतर था। दूसरा केवल यह कह देने से कि मैं नई कविता कर रहा हूं, यह पता नहीं चलता कि कवि सचमुच, सचेत रूप में, कविता में नए प्रयोग कर रहा था। इस दावे की परख तो तब होती जब हमें पुरानी कविता के कुछ नमूने प्राप्त होते, पर उनके अभाव में हमें छन्द, अलंकार, शब्द चयन, भाव और विचार संयोजन के क्षेत्र में किए गए ऐसे प्रयोगों से ही संतोष करना पड़ेगा।

बीसवीं शताब्दी का प्रयोगवाद हो या नई कविता आन्दोलन दोनों नवस्वतंत्र भारत की ‘catch up with the West’ की भाववादी लालसा की अभिव्यक्ति और पश्चिमी साहित्य से प्रेरित थे। नाम से लेकर काम तक वही। उसे समझने की कोशिश करने वाले को पश्चिमी आन्दोलनों से जुड़े कलाकारों, वास्तुकारों और रचनाकारों के कृतित्व से ही नहीं उनके आलोचकों की सैद्धान्तिकी और व्यावहारिक आलोचना तक से परिचित होना पड़ता था। हिन्दी की नई कविता की आलोचना पश्चिमी आलोचना का अनुवाद करते हुए की जाती थी, केवल उदाहरण के लिए हिंदी कवियों की पंक्तियां जड़ दी जाती थी। इस मूलोच्छिन्नता की एक परिणति यह थी कि इसमें ‘नयामाल’ ‘ताजामाल’ की ऊंची पुकार के साथ पहले के कवियों को ‘बासी’ और ‘गुजरे जमाने का कवि, उनकी रुचि और सौन्दर्यबोध’ को पिछड़ा सिद्ध करने अन्दाज में उनके महत्व को नकारने का बाजारू प्रयत्न किया गया था।

इसके विपरीत वैदिक कवि यह दावा तो करता है कि वह नई रचना कर रहा है (उक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः, 6.18.15; इदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः, 7.35.14) परन्तु उसके मन में अपने पूर्ववर्ती कवियों के प्रति गहरा सम्मान और यह स्वीकार भाव है कि वह उन्हीं की परंपरा को आगे बढ़ा रहा9 हैः
(अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः, 9.23.2) ’प्राचीन काल की अमर रचनाओं की तरह ही मैं नई रचना का निर्माण कर रहा हूं।’

देव शक्तियों तक का अनुस्मरण वे उसी भावना से करते हैं जैसे पूर्वज किया करते थे (अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्, यं ते पूर्वं पिता हुवे, 1.30.9) ‘अप्रतिभट इन्द्र तुम्हें, जिसे हमारे पुरखे, अपने पुराने निवास से पुकारते थे, हम भी उन्हीं की तरह गुहार रहे हैं।’

यह ऋचा कुछ दृष्टियों से काफी रोचक है। इसके रचयिता विश्वामित्र के दत्तक पुत्र देवरात बताए गए हैं। इसमें तीन शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। पुरातन निवास, (प्रत्न ओकस), पूर्वं (प्राचीन काल) और पिता (पूर्वज)। इससे इतना तो स्पष्ट है कि जहां से रचना की जा रही है वहां से पितरों का निवास दूर था, परंतु उसकी ठीक स्थिति क्या थी, यह स्पष्ट नहीं हो पाता। कवि कितनी प्राचीनता की बात कर रहा है यह भी स्पष्ट नहीं है। परंतु यह भाव स्पष्ट है कि वह अपने पितरों की परंपरा का निर्वाह कर रहा है।

प्रथम मंडल को अपेक्षाकृत नया मंडल माना जाता है इसलिए एक संभावना यह पैदा होती है कि कवि का अपना निवास क्षेत्र सिंधु घाटी में है और ऐसी स्थिति में संभव है यह पूर्ववर्ती निवास सरस्वती घाटी में या उससे भी पीछे के किसी क्षेत्र में रहा हो। यही स्थिति एक दूसरी पंक्ति की भी है जो नवे मंडल में आई है और जिस में भी प्राचीन निवास की याद की गई है, (स प्रत्नवन्नवीयसा ऽग्ने द्युम्नेन संयता । बृहत्ततन्थ भानुना । 6.16.21) ।

परन्तु यदि यह सोचना चाहें कि नए कवियों के प्रयोग क्षेत्र परिवर्न के कारण थे तो यह सही न होगा। पहली बात यह कि जनसमाज वही हो, परम्परा से जुड़ाव इतना गहरा हो तो स्थान परिवर्तन से फर्क नहीं पड़ता। दूसरे यह कि यह दावा उन ऋचाओं में भी है जिनकी रचना निस्सन्देह सरस्वती की उपत्यका में हुआ है. इसलिए इसकी प्रेरणा का स्रोत कोई भिन्न है और उसकी पहचान पश्चिमी जगत के नई कविता आन्दोलन और वैदिक आन्दोलन की समानता और नई कविता के समय से चले आ रहे पश्चिम के छायाजीवी भारतीय साहित्य के खोखलेपन और अपने ही समाज से इसके उखड़ेपन को समझने में सहायक हो सकता है।

ऋग्वेद का काल विज्ञान, उद्योग, व्यापार, और इनसे जुड़े (नागर योजना, वास्तु निर्माण, नौवहन आदि) क्षेत्रों में असाधारण सक्रियता का काल है और अपने शिल्पियों की तरह ही रचनाकार भी अपने क्षेत्र में उसी दक्षता से काम करना चाहता है और अपनी रचना में इसका दावा भी करता है – (अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय । गिरश्च गिर्वाहसे सुवृक्तीन्द्राय विश्वमिन्वं मेधिराय ।। 1.61.4) जैसे बढ़ई माल ढोने के लिए (तत् सिनाय) लिए रथ को बनाता है, उसी तरह कवित्व के वाहक मेधावी इन्द्र (मेधिराय) को वहन करने के लिए ऐसी सुन्दर रचना कर रहा जो उनके यश को पूरे विश्व में फैला दे। (इमं स्वस्मै हृद आ सुतष्टं मन्त्रं वोचेम कुविदस्य वेदत् । 2.35.2) मैं पूरे मनोयोग से सुन्दरता से गढ़े ( हृद आ सुतष्टं) मंत्र का पाठ कर रहा हूं, क्या इसे कोई समझ पाएगा (कुवित् अस्य वेदत् )। (आ ते अग्न ऋचा हविर्हृदा तष्टं भरामसि । 6.16.47)’अग्निदेव, मैं पूरी हार्दिकता से रचेी हुई ऋचा तुम्हें अर्पित कर रहा हूं।’

विस्तार में न जाकर हम केवल यह क’हना चाहते हैं कि पश्चिम की कविता अपने परिवेश प्रतिस्पर्धा भरी सरगर्मी की उपज थी, वैदिक कविता के नए प्रयोग अपने समय की तकनीकी और औद्योगिक गतिविधियों की, अपने भौतिक यथार्थ की उपज थी। मध्य उन्नीसवीं सदी से अबतक के हिन्दी साहित्य के प्रयोग कहीं और के भौतिक यथार्थ में रचे जाने वाले साहित्य के दर्पण प्रतिबिंब की उपज हैं – भीतर से निःसत्व ऊपर से कलात्मक आयास और रचनाकारों की अपनी क्षमता के कारण कौंधती हुई, अपने ही यथार्थ और समाज से कटी हुई।

(आगे कविता की चर्चा कभी और के लिए स्थगित रखनी होगी)व