Post – 2018-06-05

#वैदिककविता

ऋग्वेद में नई कविता आंदोलन

एक बार मैंने ज्ञानोदय में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ‘ऋग्वेद में नई कविता आंदोलन।’ वास्तव में पूरा उपलब्ध ऋग्वेद उनके अपने समय की नई कविता है। यह शीर्षक मैने सनसनी पैदा करने के लिए नहीं दिया था, अपितु पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद दिया था। आज उसे फिर इसलिए चुना कि यह दावे के साथ कह सकूं किः
1. ऋग्वेद धर्मग्रन्थ नहीं साहित्यिक कृति है, जिसके वर्ण्यविषय देवता,अर्थात् प्राकृतिक शक्तियां हैं। कवि का दर्जा उस समाज में स्रष्टा से ठीक नीचे था, इसलिए देवशक्तियां (प्रकृति की चालक शक्तियां) और ऐसी विभूतियां ही जिनमें देवत्व का निवास था, काव्य का विषय हो सकती थीं। यह विश्वास तो बहुत बाद तक, सच कहें तो किसी हद तक आजतक बना रह गया है कि काव्यबद्ध कथन यदि सच्चे भाव से व्यक्त हो तो वह निष्फल नहीं हो सकता यह रहस्य हनुमानचालीसा का पाठ करने वाले तक जानते हैं जिसे वाल्मीकि ने सलीके से रखा था – पादबद्धोSक्षर समो तन्त्रीलय समन्वितः, शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोकः भवतु नान्यथा। इसी के कारण यह विश्वास बना रहा, और इस विश्वास को जिलाए रखने का प्रयास किया गया कि वेदोक्त गलत नहीं हो सकता। नैतिक आदर्श और कतिपय सृष्टि विषयक दार्शनिक प्रतीत होने वाली रचनाओं ने और वेद को अपना मालघर बनाने के ब्राह्मणों के आग्रह के कारण इसे धर्मग्रन्थ की रंगत मिली। पर यह भी सच है कि विश्व के सभी धर्मों का प्रेरणास्रोत भी वेद ही रहा है।

2. ऋग्वेद में उपलब्ध ऋचाएं एक अकल्पनीय प्राकृतिक आपदा में नष्ट हो चुके विशाल साहित्य का क्षुद्र अंश है जिनका रचनाकाल ढाई हजार साल की लंबी अवधि में फैला हुआ है। इसका प्राचीन अंश सारस्वत प्रदेश में और नया भाग सिन्धु घाटी क्षेत्र में रचा साहित्य है।

3. यह पूरा साहित्य नई कविता है, फिर पुरानी कविता का क्या हुआ? हम यह मानने को विवश हैं कि इससे पहले के दौर में लेखन का इस स्तर का विकास नहीं हो पाया था कि वाणी को संकेतबद्ध किया जा सके इसलिए यदि वह उपलव्ध था भी तो श्रुत रूप में ही, इसलिए आपदा के लंबे दौर में वह पूरी तरह नष्ट हो गया, जब कि लिखित का क्षुद्र अंश दुर्धर्ष प्रयत्न से जहां तहां से जुटाया जा सका।

4. नई कविता का यह दौर पुरानी कविता के दौर की तुलना में सभी दृष्टियों से अनुर्वर काल है। जिन मिथकों, रूपकों का प्रयोग नए कवि कर रहे थे यहां तक कि जिन घटनाओं को वे दुहरा रहे थे वे भी उसी इतिहास का हिस्सा थीं। तकनीकी दृष्टि से भी यह ठहराव का काल था, क्योंकि लगभग सभी आविष्कार इस समय तक पूरे हो चुके थे। यह परिष्कार, कलात्मक निखार, क्षेत्रीय विस्तार और समृद्धि का और उस समृद्धि में अपने अपने हिस्से की होड़ का काल था। जब हम वैदिककाल का आस्थागर्भित पाठ करते हैं तब इस यथार्थ से मुंह नहीं मोड़ सकते कि एक वैदिक कवि का नाम कुशीदी (व्याज वसूलने वाला) काण्व था, न ही दानस्तुतियों पर दाता का यशगान और गोष्ठियों और सभाओं में दूसरों को मात देने की होड़ की उपेक्षा कर सकते हैं। नये कवियों की छन्द, अलंकार के प्रयोग ही नहीं अपनी नवीनता की बखान को भी इसी सन्दर्भ में रख कर देखना जरूरी हो जाता है।

5. हम प्रस्तुत लेखमाला में भाषा पर विचार कर रहे हैं इसलिए यह भी याद रखना होगा कि भाषा का यह रूप सारस्वत क्षेत्र में दो तीन हजार साल के बाद का है जब देववाणी का चरित्र बहुत बदल चुका था, इसलिए इससे आरंभिक समस्याओं का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हमने ऋचाओं का बाहुल्य यह दिखाने के लिए किया कि यह समझा जा सके कि पहले मंडल से लेकर दसवें तक केवल नए कवि ही भरे पड़े हैं।

1. स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा 1.12.11
2. तं नव्यसी हृद आ जायमानमस्मत् सुकीर्तिर्मधुजिह्वमश्याः, 1.60.3
3. अस्येदु प्र ब्रूहि पू्र्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः, 1.61.13
4. नव्यमतक्षद्ब्रह्म हरि योजनाय, 1.62.13
5. स्तोमं जनयामि नव्यम्, 1.109.2
6. प्र तव्यसीं नव्यसीं धीतिमग्नये वाचो मतिं सहसः सूनवे भरे, 1.143.1
7. तं वां रथं वयमद्या हुवेम स्तोमैरश्विना सुविताय नव्यम्, 1.180.10
8. अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्वं बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्कैः, 1.190.1
9. तदस्मै नव्यमंगिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते, 2.17.1.
10. स्तुषे यद्वां पृथिवि नव्यसा वचः स्थातुश्च वयस्त्रिवयाः उपस्तिरे, 2.31.5
11. समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्व, 3.61.3
12. इयं ते पूषन्नाघृणे सुष्टुतिर्देव नव्यसी, 3.62.7
13. प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम्, 5.42.13
14. प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम् ।
य आहना दुहितुर्वक्षणासु रूपा मिनानो अकृणोदिदं नः, 5.42.13
15. सुवीरं त्वा स्वायुधं सुवज्रमा ब्रह्म नव्यमवसे ववृत्यात्, 6.17.13
17. तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
18. स्तुषे जनं सुव्रतं नव्यसीभिर्गीर्भिर्मित्रावरुणा सुम्नयन्ता, 6.49.1
19. प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिर्गीर्भिः कृणुध्वं सदने ऋतस्य, 7.53.2
20. उक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः, 6.18.15
21. धियो रथेष्ठामजरं नवीयो रयिर्विभूतिरीयते वचस्या, 6.21.1
22. तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
23. इदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः, 7.35.14
24. इमां वां मित्रावरुणा सुवृक्तिमिषं न कृण्वे असुरा नवीयः, 7.36.2
25. इयं त ऋत्वियावती धीतिरेति नवीयसी, 8.12.10
26. विद्मा ह्यस्य सुमतिं नवीयसीं गमेम गोमति व्रजे, 8.51.5
27. परि त्रिधातुरध्वरं जूर्णिमति नवीयसी, 8.72.9
28. नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः, प्रत्नवद् रोचया रुचः, 9.9.8
29. अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः, 9.23.2
30. इदमकर्म नमो अभ्रियाय यो पूर्वीरन्वानोनवीति, 10.68.12
31. इमां प्रत्नाय सुष्टुतिं नवीयसीं वोचेयमस्मा उशते शृणोतु नो,10.91.13