#राजकिशोर का जाना
राजकिशोर पंचतत्व में लीन हो गए। उनकी मृत्यु और अंत्येष्टि का समाचार विलंब से मिला। अपनी युवा और होनहार पुत्र की मृत्यु के वज्रपात को दार्शनिक तटस्थता से सहन करने का प्रयत्न कर रहे थे,जिसे देख कर मुझे डर लगा और उन से अनुरोध किया था कि सार्वजनिक रूप से नहीं तो एकांत में ही सही जी भर कर रो अवश्य लें। दबे हुए आवेग, अपनी निकास के खतरनाक रास्ते तैयार कर लेते हैं जिससे होने वाली क्षति का हम पूर्वानुमान नहीं कर सकते।
कई साल पहले, ज्ञानपीठ के एक साहित्यिक आयोजन में उनसे मुलाकात हुई थी तो मुझे वह भीतर से टूटे हुए और निराश लगे थे। स्वास्थ्य की चिंता न करते हुए वह पाइप का इतना लंबा कश लेकर धुंए को निगलने का प्रयत्न कर रहे थे जो मुझे परेशान करने के लिए काफी था, परंतु मैं इसके लिए उन्हे टोक नही सकता था न इसका कुछ लाभ था , क्योंकि जो बातें मैं उन्हें समझा सकता था, वे उन्हें वे स्वयं जानते थे। अनुमान है सहज, स्वाभाविक और अविचलित दिखने के प्रयास में उनका धूम्रपान और सांध्य पान बढ़ गया होगा। खराबी पहले की थी, चोर दरवाजे से दबी वेदना के साथ एक दूसरे वज्रपात के रूप में आघात, हुआ संभल न पाए।
वह निर्भीक और अपनी सीमा में वस्तुपरक सोच रखने वाले लेखक थे। उनसे पहली मुलाकात कोलकाता के काफी घर में हुई थी । शंभूनाथ अध्यापक हो चुके थे और उन्होंने उनका परिचय एक तेजस्वी युवा के रूप में कराया था। उनका नाम स्मृति में बचा रह गया था। बाद में सुरेंद्र प्रताप सिंह के सहकर्मी के रूप में उन्होंने पत्रकारिता आरंभ की। मैं तब से उनको यदा कदा पढ़ता आया था और उनकी लोहियावादी सोच, समझ, आतुरता और प्रखरता का प्रशंसक था।
उनके विचारों में गहराई नहीं थी, पर निर्भीकता थी, समाज को बदलने की बेचैनी थी, किसी प्रकार की संकीर्णता से परहेज था और इसके चलते उन्होंने स्वयं एक संकीर्णता का निर्माण कर लिया था, जिससे वह मुक्त नहीं हो सकते थे।
इतिहास की समझ की कमी लोहिया में भी थी। अतीत का एक कामचलाऊ ज्ञान लोहिया में भी था जिसे वह पर्याप्त मानते थे। यह कमी लोहियावादियों में भी दिखाई देती है। वेअपने ध्येय के अनुसार, इतिहास की उसी कामचलाऊ जानकारी के आधार पर, एक ठोस और अपरिवर्तनीय इतिहास तैयार कर लेते हैं, जिसमें किसी परिवर्तन की संभावना नहीं होती, इसलिए उससे टकराकर प्रमाण भी व्यर्थ हो जाते हैं। अतीत की विरासत हो या वर्तमान की जटिलता, सभी की कसौटी लक्ष्यों की पूर्ति में उनकी उपयोगी भूमिका रह जाती है, इसलिए ऐसे लोग किसी समस्या का समाधान नहीं करते, अपितु नई समस्याएं पैदा करते हैं और पुरानी समस्याओं को अधिक उलझा देते हैं। जिस लक्ष्य को लेकर चलते हैं उनकी सिद्ध नहीं हो पाती, बल्कि व्यवधान पैदा होता है।
यदि कोई पूछे, इसके बाद भी आप उनको महत्व क्यों देते हैं, उनके अभाव से इतना आहत क्यों अनुभव करते हैं, तो मैं कहूंगा, उनकी निष्कपटता, निर्भीकता और ईमानदारी के कारण, क्योंकि सही होना किसी के सही होने की कसौटी नहीं है। वह सही या गलत एक विचार या विश्वास से जुड़े लोगों को ही प्रतीत होता है। सही फैसले तो इतिहास किया करता है जिसमें सैद्धांतिक रूप में सही व्यवहार में गलत हो जाता है और सैद्धांतिक रूप में जघन्य तक अपने कारनामों के कारण शिरोधार्य हो जाता है। सही लोगों ने दुनिया को गलत लोगों सो भी अधिक बर्वाद किया है।
इसलिए विचारों की भिन्नता को जीवित रखना और अपने से भिन्न विचारों का सम्मान करना, ज्ञान के सभी स्तरों के, पर अपने अपने तरीके से सोचने वालों का सम्मान करना, विचारों को जीवित रखने की पहली शर्त है। इसलिए सही नहीं, बिना किसी प्रलोभन और दबाव के अपने विचारों को निर्भीकता से प्रकट करने वाला, वह मेरी आलोचना करता है तो भी, मेरा विरोध करता है तो भी, मेरे लिए सम्मान का पात्र बना रहता है। ऐसे लोगों की कमी होती जा रही और केवल इस दृष्टि से राजकिशोर का चला जाना एक खालीपन पैदा करता है और मुझे विचलित करता है।
मैं हिंदू हूं। मैं हिंदू हितों की चिंता करता हूं। परंतु हिंदू हित यदि किसी के अनिष्ट का कारण बनते हैं तो वह हिंदू का भी अहित करते हैं। मानवता के समक्ष हिंदुओं की छवि को मलिन करते हैं, हमारे इतिहास को भी कलंकित करते हैं और वर्तमान को भी। इसलिए मैं हिंदुत्व के प्रति सम्मान के कारण दूसरे समुदायों के हित का ध्यान और उनके विश्वास का आदर करता हूं।
मेरे मित्रों में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपना परिचय देते हुए ‘हिन्दू कुल में जनमिया, हिन्दू मगर न आहि’ जोड़ना जरूरी मानते हैं। उनके मन में महामानव का एक सपना है जिसे छूने की कोशिश में वे हिन्दू समाज को और केवल हिन्दू समाज को महामानवों का एक विराट क्लब बनाना चाहते हैं। समाज कोई भी हो, उसे निर्धारित योग्यता प्राप्त सदस्यों का क्लब बनानेवालों के सोच को मैं बचकाना मानता हूं, पर उनके सपनों का आदर करता हूं। इसके कारण उनके ऐसे विचार और काम और विश्वास यदि हिंदू के लिए अहितकर सिद्ध होते हैं तो मैं उनकी आलोचना करता हूं, विरोध करता हूं, उनसे सावधान रहने की आवश्यकता भी अनुभव करता हूं।
हिंदू होना मेरा चुनाव नहीं है, न भारत में पैदा होना मेरा चुनाव था, इसके बावजूद जिस परंपरा और परिवेश में पैदा हुआ हूं उसका सम्मान करना, उसके हित की चिंता करना मेरा दायित्व बन जाता है। सामाजिकता का दायित्व बुरे लोगों के साथ भी अच्छे बर्ताव और अच्छे संबंध की मांग करता है। जिनको मैं गलत कहता हूं उनकी नजर में मैं गलत हो सकता हूं, यह छूट देने का दायित्व मेरा बनता है।
हमारे मित्रों में बहुत से ऐसे हैं जो कुछ हिंदू परिवार में पैदा हुए परंतु अपने परिवार, जाति, समाज और इतिहास से बाहर चले गए और हिंदू समाज के प्रति उग्र और आक्रामक विचार रखते हैं एक ओर तो वे विश्वमानवता की नागरिकता के लिए अपनी सामुदायिक पहचान को छोड़ने के सपने देखते हैं और अपनी कसौटी पर अपने समाज को पूरा न उतरते देख अपने ही समाज को तोड़ते भी हैं। तोड़ने का काम तोड़ी जाने वाली चीज से बाहर रहकर ही किया जा सकता है, शायद इसी विवशता में उन्हें बाहर जाना पड़ता है और दूर होे होते कभी लौट नहीं पाते या कुछ और बन जाते हैं। परन्तु जब तक वे अपने सद्विवेक से, भय और प्रलोभन से मुक्त होकर ऐसा करते हैं, वे मेरे सम्मान के पात्र बने रहते हैं। विचार से लेकर आत्मसम्मान तक की सौदेबाजी के इस युग में ऐसे लोगों की भी कमी होती जा रही है। राजकिशोर इसी कोटि में आते हैं।