Post – 2018-06-05

संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया (11)

ऋग्वेद की रचना से मतलब उपलब्ध ऋग्वेद की ऋचाओ की रचना से है इन सभी में ऐसा भाव है ये कवि अपने को नया कवि बता रहे थे। अपने से पहले के कवियों की रचनाओं का उन्हें पता था, उनका भी नाम भी लेते हैं, परंतु वे किसी कारण सुरक्षित नहीं रखी जा सकी थीं। एक बार मैंने ज्ञानोदय में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ऋग्वेद में नई कविता आंदोलन। वास्तव में पूरा उपलब्ध ऋग्वेद उनके अपने समय की नई कविता है, इसकी याद वे स्वयं किसी ना किसी बहाने दिलाते रहते हैंः
स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा 1.12.11
तं नव्यसी हृद आ जायमानमस्मत् सुकीर्तिर्मधुजिह्वमश्याः, 1.60.3
अस्येदु प्र ब्रूहि पू्र्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः, 1.61.13
नव्यमतक्षद्ब्रह्म हरि योजनाय, 1.62.13
स्तोमं जनयामि नव्यम्, 1.109.2
प्र तव्यसीं नव्यसीं धीतिमग्नये वाचो मतिं सहसः सूनवे भरे, 1.143.1
तं वां रथं वयमद्या हुवेम स्तोमैरश्विना सुविताय नव्यम्, 1.180.10
अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्वं बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्कैः, 1.190.1
तदस्मै नव्यमंगिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते, 2.17.1.
स्तुषे यद्वां पृथिवि नव्यसा वचः स्थातुश्च वयस्त्रिवयाः उपस्तिरे, 2.31.5
समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्व, 3.61.3
इयं ते पूषन्नाघृणे सुष्टुतिर्देव नव्यसी, 3.62.7
प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम्, 5.42.13
प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम् ।
य आहना दुहितुर्वक्षणासु रूपा मिनानो अकृणोदिदं नः, 5.42.13
सुवीरं त्वा स्वायुधं सुवज्रमा ब्रह्म नव्यमवसे ववृत्यात्, 6.17.13
तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
स्तुषे जनं सुव्रतं नव्यसीभिर्गीर्भिर्मित्रावरुणा सुम्नयन्ता, 6.49.1
प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिर्गीर्भिः कृणुध्वं सदने ऋतस्य, 7.53.2

उक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः, 6.18.15
धियो रथेष्ठामजरं नवीयो रयिर्विभूतिरीयते वचस्या, 6.21.1
तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
इदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः, 7.35.14
इमां वां मित्रावरुणा सुवृक्तिमिषं न कृण्वे असुरा नवीयः, 7.36.2
इयं त ऋत्वियावती धीतिरेति नवीयसी, 8.12.10
विद्मा ह्यस्य सुमतिं नवीयसीं गमेम गोमति व्रजे, 8.51.5
परि त्रिधातुरध्वरं जूर्णिमति नवीयसी, 8.72.9
नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः, प्रत्नवद् रोचया रुचः, 9.9.8
अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः, 9.23.2
इदमकर्म नमो अभ्रियाय यो पूर्वीरन्वानोनवीति, 10.68.12
इमां प्रत्नाय सुष्टुतिं नवीयसीं वोचेयमस्मा उशते शृणोतु नो,10.91.13

अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्, यं ते पूर्वं पिता हुवे, 1.30.9
प्रत्नवज्जनया गिरः शृणुधी जरितुर्हवम्, 8.13.7
अनु प्रत्नस्यौकसः प्रियमेधास एषाम्, 8.69.18
प्रत्नवद् रोचयन्वरुचः, 9.49.5
धन्वन्निव प्रपा असि त्वमग्न इयक्षवे पूरवे प्रत्न राजन्,10.4.1
प्राचीनेन मनसा बर्हणावता यदद्या चित्कृणवः कस्त्वा परि, 1.54.5
ये अर्वाञ्चस्ताँ उ पराच आहुर्ये पराञ्चस्तॉ उ अर्वाच आहुः । 1.164.19
अर्वाचीनं सु ते मन उत चक्षुः शतक्रतो । 3.37.2
अर्वाची सुभगे भव सीते वन्दामहे त्वा ।
यथा नः सुभगाससि यथा नः सुफलाससि ।। 4.57.6
अर्वाची ते पथ्या राय एतु स्याम ते सुमताविन्द्र शर्मन् ।। 7.18.3

असाधु प्रयोग – धैथे धारयथः, हुवतः अभिष्टुवतो, हुवन्यति आह्वयति, हुवानः स्तूयमानः, ूमद पदअवामकय हूमहे आह्वयामः, ामय 0इमस्य (8.13.21) अस्य, वि जीपेय एवथा न भन्दनास्तुत्या
स्पूर्धन्स्पर्धमानाः, चिष्चा, कयस्यकस्य, आगासि आगच्छसि,
कृतिदेव यहां

के बारे में हम आश्वस्त हैं इनमें से एक देव समाज के लोग थे और दूसरे सारस्वत क्षेत्र में बसे हुए योग जो अभिजात वर्ग की भाषा सीख रहे थे परंतु उसके उच्चारण में गलतियां कर रहे थे। यह तीसरा समुदाय उन कुशल कर्मियों का था जो खनन, धातु विद्या और, उपयोगी वस्तुओं के निर्माण की दक्षता रखते थे जीने के ऊपर उनकी नागरिक सुविधाएं और उद्योग तथा व्यापार निर्भर करता था

ऋग्वेद में दो तरह के नामकरण मिलते हैं 1 व्यक्तियों के नाम से और दूसरा कौशल के नाम से जो सामूहिक नाम है, ऋभुगण, अश्विनी कुमार, रुद्र गण, वसु गण, इसी कोटि में आते हैं। इनके लिए जातिवाचक शब्दों का प्रयोग होता है परंतु कुशल कर्मियों मैं एक बर्ग ऐसा है जिसके व्यक्ति जिसके सदस्यों के लिए व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग किया गया। हम कह सकते हैं ये या तो बहुत पहले से देव समाज के सहयोगी बन चुके थे, अथवा इनकी भूमिका अर्थव्यवस्था में दूसरे सहयोगियों की तुलना में अधिक प्रधान थी। महत्वपूर्ण बात यह है यह इंद्र की प्रधानता को नहीं स्वीकार करते यज्ञ यज्ञ का विरोध करते हैं परंतु अग्नि की उपासना करते हैं इनमें भृगु गण और आंगिरस आते हैं। शिक्षा दर्शन विज्ञान विविध क्षेत्रों में इनके योगदान को या सम्मान के साथ याद किया जाता है। अरायुक्त पहिए का आविष्कार, रथ का आविष्कार यह मोटे तौर पर बढ़ईगीरी से जुड़े
सभी उपक्रमों में इनकी भूमिका दिखाई देती है

ऋग्वेद की भाषा केवल स्थानीय भाषा के प्रभाव से बदली हुई भाषा नहीं है। इस चरण पर है नगर सभ्यता का विकास वह चुका था और हुआ है तनाव की स्थिति में थी। उद्योग धंधों का विकास आगे बढ़ चुका था और विश्व बाजार में इसके सो देतो पहुंचते थे उन देशो से सोने चांदी की अतिरिक्त केवल सूखे मेवे जिनम में खजूर प्रमुख घोड़ों का आयात अवश्य होता था। परंतु वहां का निर्मित सामान यदि आता था तो उसका हम है ना तो साहित्य से पता चलता है नहीं हड़प्पा के पुरातत्व से। इस तथ्य को हम इसलिए रेखांकित कर रहे हैं यह याद दिला सके यह समाज विभिन्न कौशलों में दक्ष जनों की विशेषज्ञता का लाभ उठा रहा था और वे यहां तो इसके नागर बस्तियों मैं रहते थे यहां यदि उनकी बसावट अलग थी
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. वृत, वृक, , वृक्ष, वृत्त, ववृत्, आवृत्, निवृत, संवृत, विवृत (सुविवृतं), वृध, वृण, वृक्त, वृजिन, वृज्यते, वृश्चत्, परीवृतम् ,त्रिवृतं, वृश्च, वि वृहामि, वृक्तबर्हिषः, वृष्णि, वृक्षि, अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं, सहोवृधं,अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्रुरूतयः ।प्रवृक्त,
अपावृतम्, अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः, वृथा, नि वावृतुः,
परावृजं प्रान्धं श्रोणं चक्षस एतवे कृथः

आस्नो वृकस्य वर्तिकामभीके युवं नरा नासत्यामुमुक्तम् ।
वृतेव यन्तं बहुभिर्वसव्यैः, 6.1.3
वर्तिर्याथस्तनयाय त्मने च ।। 6.49.5

न या अदेवो वरते न देव आभिर्याहि तूयमा मद्य्रद्रिक् ।। 6.22.11
वृणते नान्यं त्वत् ।। 10.91.8

मा न इन्द्र परा वृणक् ।। 8.97.7
वृकश्चिदस्य वारणं, 8.66.8
वृष्णर्वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्,1.32.7

वर्ष्मन्तस्थौ वरिमन्ना पृथिव्याः ।
एतत् त्यत् त इन्द्र वृष्ण उक्थं वार्षागिरा अभि गृणन्ति राधः,1.100.17
वृषा ते वृष्ण इन्दुर्वाजी सहस्रसातमः ।। 1.175.1

या जामयो वृष्ण इच्छन्ति शक्तिं नमस्यन्तीर्जानते गर्भमस्मिन् ।
अच्छा पुत्रं धेनवो वावशाना महश्चरन्ति बिभ्रतं वपूंषि ।। 3.57.3
प्र धेनवः सिस्रते वृष्ण ऊध्नः
वृष्णस्ते वृष्ण्यं शवो वृषा वना वृषा मदः ।
सत्यं वृषन् वृषेदसि ।। 9.64.2
अंजन्त्येनं मध्वो रसेनेन्द्राय वृष्ण इन्दुं मदाय ।। 9.109.20
शिरो बिभेद वृष्णिना ।। 8.6.6

विश्वायु शवसे अपावृतम् ।। 1.57.1
अपावृणोदिष इन्द्रः परीवृता द्वार
तष्टेव वृक्षं वनिनो निवृश्चसि परश्वेव नि वृश्चसि ।। 1.130.4
इषः परीवृताः