Post – 2018-06-01

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया((10)

कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम समझ तो लेते हैं परंतु मानने में दिक्कत होती है। विश्वास नहीं कर पाते कि जो है, या हो रहा है, वह हो भी सकता है। हमने कहा कि हलन्त और सरल स्वरयुक्त ध्वनियों के उच्चारण में सारस्वत प्रदेश के मूल निवासियों को कठिनाई होती थी और ऐसी कठिनाई आकर बसे लोगों (देवों) को व्यंजन संयोग वाली ध्वनियों के उच्चारण में होती थी, तो उदाहरण सहित अपनी बात कहने के बाद भी कुछ को यह विश्वास नहीं हो सका कि सचमुच ऐसा होता था। इसलिए हम ऋग्वेद से उच्चारण की इस खींचतान के नमूने पेश करना चाहेंगे जिससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि संस्कृत में व्यंजन प्रधानता होते हुए भी स्वरयुक्त और अजंत शब्द कैसे ही बचे रह गए।

इसे हम भाषाई समीभवन के रूप में देखते हैं जिसमें देवों और उनके वंशधरों ने अपनी भाषा की रक्षा के प्रयत्न के बावजूद संयुक्ताक्षर का उचारण सीखा और संयुक्ताक्षर प्रेमियों ने अजंत शब्दों और स्वर युक्त ध्वनियों का उच्चारण करना सीखा। इसका ही परिणाम है एक ही अर्थ में दोनों प्रकार के शब्द ऋग्वेद में प्रयोग में आ रहे थे । दूसरा यह कि जिन शब्दों का उच्चारण ‘वृ’ लगाने के बाद पश्चिमी प्रदेश के लोगों को जिन शब्दों के उच्चारण सुविधा होती थी उनमें से बहुत से शब्दों में से ऋ-कार और ण- कार हट गया। पहले के नमूने हम ऋग्वेद से देंगे और बाद के ऋग्वेद और लौकिक संस्कृत की तुलना से समझा जा सकता है।

ऋग्वेद में ‘वर’-श्रेष्ठ और ‘वरते’ – वरण करते हैं (दैव्यं सहो वरते अप्रतीतम्, 4.42.6) व्यवहार में हैं इसलिए, वरं वृणते,10.164.2 को वरं वरते बोलना किसी तरह की समस्या पैदा नहीं करता, परंतु वरं के साथ वृणते का प्रयोग उस खींचतान को मूर्त करता है, जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं।

तीन हजार सालों के लंबे दौर में भले वे भूसंपदा के स्वामी बन चुके थे, उन्हें स्थानीय बोली अपना लेनी चाहिए थी, अधिक से अधिक उनकी भाषा के कुछ तकनीकी शब्द स्थानीय भाषा में बचे रह सकते थे, परन्तु वे अपनी भाषा की शुद्धता बचाए रखने के लिए कृतसंकल्प थे। न वै भाषा म्लेच्छितव्या। वे भाषा में सत्य से विचलन और उच्चारण की अशुद्धता को पाप का प्रवेश मानते थे,संभव है इसके पीछे देवभाषा की सुरक्षा की वही हठधर्मिता रही हो जिसे हम बाद में संस्कृत के साथ पाते हैं।

ऋग्वेद में ‘म्लेच्छ’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है इसके स्थान पर ‘वधृवाच’ और ‘मृध्रवाच’ का प्रयोग देखने में आता है, परंतु इसका प्रयोग स्थानीय अशिक्षित या अशुद्ध भाषा बोलने वालों के लिए नहीं अपितु उनके यात्रा और व्यापार के क्रम में संपर्क में आने वाले दूसरे जनों की भाषा के लिए किया गया है।

इसके व्यौरे में अभी जाने से विषयान्तर होगा, परन्तु दो तथ्यों का उल्लेख आवश्यक है। पहला यह कि हड़प्पा सभ्यता के व्यापारिक सन्दर्भ में ऊर से कुछ दूरी पर हड़प्पन व्यापारियों की एक बस्ती थी जिसे मिलुक्खा कहा जाता था, दूसरे मिलुक्खा से भारतीय माल लेकर जाने वाले जहाजों का हवाला मिलता है। इसे कई तरह से पहचानने का प्रयत्न किया गया है। जिसका अर्थ है साहित्यिक प्रयोग में भले इस शब्द का को न पाया जाता हो, ऋग्वेद के समय में भी यह शब्द व्यवहार में था और बाद में तो प्रचलित था ही।

इसकी व्याख्या करते हुए सुझाया गया है म्लै का अर्थ अस्पष्ट उच्चारण करना है, परंतु इसका आधार समझ में नहीं आता, अन्य किसी शब्द के साथ म्लै का प्रयोग देखने में नहीं आता इसलिए हमें लगता है यह भी देव भाषा का शब्द है जो घालमेल मिलावट में पाए जाने वाले मिल का सारस्वत उच्चारण है और सामान्यतः इसका प्रयोग भाषा की शुद्धता के लिए चिंतित लोगों द्वारा अशुद्ध उच्चारण करने वालों के लिए किया जाता था।

यह मात्र हमारा सुझाव है और इसके समर्थन में केवल दो बातें रखी जा सकती है। पहली यह की सुमेरियन अभिलेखों में मिलुक्खा पाठ किया गया है , दूसरा यह वैदिक अभिजात वर्ग अपनी भाषा के विषय में बहुत आग्रहशील था और इसके बल पर ही वे अपनी भाषा को यथासंभव सुरक्षित रखने में सफल हुए थे । जो परिवर्तन हुए थे स्थानीय जनों के प्रयत्नों के बावजूद लगातार व्यवहार में आने के कारण विवशता में स्वीकार कर लिए गए थे।

अब इस पृष्ठभूमि मैं ही हम दोनों तरह के प्रयोगों के एक साथ चलने के नमूनों पर दृष्टिपात कर सकते हैः

अपावर (अपावर् अद्रिवो बिलम् 1.11.5; अप द्रुहस्तम आवर,7.75.1, >अपावृक्त (अपावृक्तअरत्नयः, 8.80.8).
वरते (न या अदेवो वरते न देव, 6.22.11> वृणते (अग्निं वृणाना वृणते कविक्रतुम्, 5.11.4).
परिवारयति> परि वृणक्ति (परि वृणक्ति 3.29.6 – परिततः वारयति)
परिवारयसि> परिवृणक्षि (शूर मर्त्यं परिवृणक्षि मर्त्यम् , 1.129.3).
ववार (वृत्रं जघन्वाँ अप तद् ववार, 1.32.11) – वृणक् (अपावृणोदिष इन्द्रः परीवृता द्वार इषः परीवृताः, 1.130.3)
परावर>परा वृणक् (मा न इन्द्र परा वृणक्, 8.97.7).
परिवर्जयतु (गमद्धवं न परि वर्जति, 8.1.27) परिवृणक्तु, (परि सा वृणक्तु, 7.46.3, परित्यजतु, 7.6-.9 परिवर्जयतु)
परं वरामहे (को अस्य शुष्मं तविषी वरात, 5.32.9 > प्र वृणीमहे (प्र पूषणं वृणीमहे-8.4.15) – प्रकर्षेण संभजामहे