#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया(
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इस लंबी परिक्रमा के बाद अब हम पुनः ‘वर’ शब्द की ओर लौट सकते हैं। यदि हम समझे कि व्यंजन संयोग से पूर्वी के लोगों को समस्या होती थी, परंतु संयुक्त ध्वनियों के उच्चारण से सारस्वत प्रदेश के लोगों को किसी तरह की असुविधा नहीं हो सकती थी तो गलत होगा। स्वर के कारण व्यंजन प्रधान बोली के प्रवाह में रुकावट पड़ती थी । यदि पूर्व की भाषा का प्रधान गुण माधुर्य था, तो सारस्वत भाषा का प्रधान गुण डैश या ओज था और इस पर उन्हें गर्व था।
पूरब के लोग आर्य थे, संभ्रांत जन, अर्थतंत्र पर उनका अधिकार था, परंतु संख्या में कम थे, इसके बाद भी उनकी भाषा का वर्चस्व था और उसे स्थानीय जन भी यथासंभव शुद्ध रूप में अपनाने को उत्सुक थे, परंतु प्रयत्न के बाद भी इसमें सफल नहीं हो रहे थे।
समस्या केवल बोलने की नहीं थी बल्कि सुनने में ही गड्डमड्ड हो जाता था। इसे मैं एक उदाहरण से समझाना चाहूंगा। एक सरदार जी ने अपने ढाबे के सामने एक विज्ञापन लगा रखा था। विज्ञापन की इबारत तो याद नहीं परंतु उसमें कृप्या का प्रयोग हुआ था। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश कि शुद्ध प्रयोग कृपया है। उन्होंने उत्तर दिया, हां हां जानता हूं कृप्या ही लिखा है। मैंने हंसते हुए कई बार दोहराया और हर बार वही उत्तर मिला। अर्थात वह कृपया को कृप्या सुन रहे थे और वही उन्होंने लिखा था।
इसका दूसरा रोचक पहलू यह है कि मैं शुद्ध को सुद्ध बोल रहा था और आज भी यही बोलता हूं क्योंकि भोजपुरी में केवल दंत्य स होता है। 87 साल की उम्र में 26 साल भोजपुरी क्षेत्र में कटे होंगे , 56 साल से दिल्ली में हूं परंतु ‘श’ बोलने के लिए अतिरिक्त सजगता बरतनी होती है, सामान्यतः नहीं बोलता। प्रयत्न के बाद भी उच्चारण शुद्ध ही होता है यह दावा नहीं कर सकता। हम यह याद दिलाना चाहते हैं जिसे हम उच्चारण की समस्या कहते हैं वह श्रुति की समस्या भी है और इसका सामना एक ही भाषा बोलने वाले मूल भाषाभाषी और प्रौढ़ावस्था में आधुनिक यंत्रों की सहायता के बिना सीखने वाले व्यक्ति को प्रायः करना पड़ता है।
भोजपुरी में ‘वीर’ शब्द था, ‘बीरन’/’बिरना’- सगा भाई (अजीब बात है यह शब्द केवल महिलाओं के शब्दकोष में ही बचा रह गया है ) का पंजाबी में बना रहना चकित करने वाला है। इसका अर्थविकास ध्यान देने योग्य है
इर/ विर/ चिर/ सिर सभी का अर्थ जल है। जल अर्थात् ‘रेतस्’ से तुलना का आधार यह है कि वृष्टि से ही वनस्पतियां आदि उत्पन्न होती हैं अतः ‘वीर’ प्रजननक्षम जल ‘वीर्य बन जाता है। जल पोषण और शक्ति का भी स्रोत है, इसलिए इसका प्रयोग इस आशय में (वीरवतीमिषम्, 1.12.1) भी हुआ है, और फिर शौर्य के लिए इसका प्रयोग आसान हो जाता है (असि हि वीर सेन्यो, 1.81.2); वीर्य स्वयं भी शौर्य के लिए प्रयोग में आता है (सुप्रवाचनं तव वीर वीर्यं, 2.13.11)।
भाई के आशय में वीर का प्रयोग, सहजन्मा या सगे भाई के अशय में है न कि शूर के आशय में। इस दृष्टि से यह बिरवा > वीरुध से निकटता रखता है। यह रोचक है की बिरवा का संस्कृतीकरण करके वीरुध बना लिया गया, और अब इसमें एक नए अर्थ की उद्भावना कर ली गई कि यह आकाश की ओर उठता है, इसलिए इसका वीरुध नाम पड़ा, इसके बाद तो यह सोचना आसान हो ही जाता है, बिरवा वीरुध का अपभ्रंश है।
अपेक्षाकृत अधिक रोचक है बीज, जो अर्थ की दृष्टि से वीर्य से निकटता(कृते योनौ वपतेह बीजम्) और ध्वनि की दृष्टि से ‘विर’- जल से आभासिक निकटता रखता है। संस्कृत में बीज का निर्वचन नहीं हो सकता। आश्चर्य की बात यह भी है कि इसमें सारस्वत प्रभाव के चलते ‘ब’-कार का ‘व’-कार नहीं किया गया। इसकी उत्पत्ति जिस ‘बिस’ शब्द से हुई लगती है उसका जल के अर्थ में प्रयोग, कुछ नामों (बिसवनिया, बिस्टौली, बिसवां) में बना रह गया है और विषाक्त होने की प्रक्रिया ‘बास’- गंध, ‘बासी’, ‘बस्साना’ – दुर्गंध देना, ‘बिस्साइन’- विषाक्त में देखा जा सकता है।
ऋग्वेद में विष का प्रयोग सामान्यतः विष (वृश्चिकस्यारसं विषमरसं वृश्चिक ते विषम्, 1.191.16; यदोषधीभ्यः परि जायते विषम्, 7.50.3; केशी विषस्य पात्रेण यद् रुद्रेणापिबत्सह, 10.136.7) हुआ है, पर ‘उत नो ब्रह्मन्नविष’, 3.13.6 ‘अविषः’ का अर्थ पालय किया है और एक बार व्याप्ति के आशय में (ब्रह्मचारी चरति वेविषद्विषः स देवानां भवत्येकमंगम्, 10.109.5) देखने में आता है। बीज ‘बिस’ से व्युत्पन्न हुआ हो जिसमें बी बिस- जल का प्रथम अक्षर ‘बी’ और ‘ज’ जनन का सूचक हो सकता है।
हम इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं कि ‘वीर’ का उच्चारण सारस्वत क्षेत्र निवासियों के लिए कठिन था, जिससे उन्होंने ‘व्री’ बना दिया, उनका उच्चारण पूर्वी अभिजात वर्ग के लिए दुष्कर था, इसलिए उसने इसे ‘वृ’ बना दिया और इससे पुरानी अवधारणाओं के लिए समानांतर शब्द तो बने ही, नई व्यंजनओं के लिए नई शब्दावली तैयार हुई जिसकी चर्चा हम कल करेंगे।
इसका परिणाम था ‘बिस’ का ‘विष’ बन कर जहर के आशय में रूढ़ हो जाना, व्याप्ति के आशय में ‘विश’ और ‘विषु’ हो जाना और जल के आशय में बदल कर ‘वृष्’ बन जाना।
हमारे लिए संतोष की बात यह कि जल का आशय ‘विषमेभ्यो अस्रवो वाजि
नीवति’, 6.61.3 में (विषं – उदकं) में बचा रह गया है अन्यथा सामान्यतः इसका प्रयोग समग्रता और व्याप्ति के लिए हुआ है। यह जल की की विशेषता के कारण है कि वैविध्य के आशय मैं भी इसका प्रयोग किया गया है (परि त्मना विषुरूपा जिगाति, 7.84.1) – स्वयं विविध रूपों में विचरण करता है।
व्याप्ति की दृष्टि से है इसका सबसे रोचक शब्दभंडार विषुव, विष्णु और विश्व और इनके प्रत्यय, उत्तरपद, लगाते हुए तैयार किया गया हैः विश्वं (1.57.6) -व्याप्तं, विश्वकाय – ऋषि नाम, विश्वकृष्टीः (1.169.2) राज्यत्वेन सर्वजनवन्तः, विश्वगूर्तः (1.61.9) सर्वस्मिन्कार्ये समर्थः, (8.1.22) सर्वेषु कार्येषु उद्यतः, विश्वगूर्ती (1.180.2) सर्वस्तुत्यौ सर्वदा उद्गूर्णो वा, विश्वचक्षसे (1.50.2) विष्वचन्द्राः (1.165.8) सर्वाह्लादकाः, विश्वचर्षणिम् (6.44.4) सर्वस्यद्रष्टारं, विश्वचर्षणे (1.9.3) सर्वमनुष्ययुक्त, विश्वजन्यं (7.76.1) विष्वेषां जनानां हितकरः, विश्वजन्याः (6.36.1) सर्वजनहिता, विश्वजन्यां (1.169.8) विश्वेप्राणिनः उत्पादनीया, विश्वजित (2.21.1) सर्वस्य जेता, विश्वतूर्तिः (2.3.8) सर्वविषयगता वाक्, विश्वतः (1.1.4; 1.7.10) सर्वाषु दिक्षु; सर्वेभ्यः, विश्वप्स्न्याय (2.13.2) विश्वासामपां आश्रयभूताय समुद्राय।
इस शब्द गणना को कई पन्नों तक फैलाया जा सकता है, परन्तु उसका कोई लाभ नहीं। हां हमारे लिए यह विचारणीय अवश्य हो सकता है कि क्या ‘बिस’ – जल का परिवर्तन ‘भिस्’ में हुआ था या नहीं और भिषज और भेषज कि व्यत्पत्ति भी उसी से हुई या नहीं और बहुवचन सूचक ‘भिस्’ विभक्ति इसी का ऋणी है या नहीं।