#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया( (5)
हमारे सामने पूरा चित्र बहुत साफ नहीं है। भारत की भाषाओं में संस्कृत और उत्तर भारत की भाषाओं की मोटी जानकारी तथा तमिल और तेलुगु की कामचलाऊ समझ के बाद मुंडा समुदाय में गिनी जाने वाली बोलियों में से कुछ एक की परिचयात्मक पुस्तकों और शब्दसंग्रहों की ही पूंजी है। जो काम मैं कर रहा हूं उसे करने के लिए प्राथमिक स्तर के बहुत से अध्ययन उपलब्ध होने चाहिए जिनसे मदद लेकर आसानी से भरोसे लायक आधार सामग्री जुटाई जा सके। परंतु न तो इसकी प्रतीक्षा करने का समय है, न अपनी ज्ञान संपदा बढ़ाने का अवकाश।
कंप्यूटर की सुविधा के कारण ऋग्वेद के विश्लेषण परक अध्ययन से मेरी जो दृष्टि बनी, उसका मुझे भरोसा है। यह विश्वास है कि मुझसे पहले के अध्येताओं के पास वह दृष्टि नहीं थी, न हो सकती थी, न ही इस समय के किसी अध्येता के पास वह दृष्टि है।
यह अकेला भरोसा है जिसके बल पर मैं अपनी ऊहा पोह जारी रख पाता हूं। परंतु साथ ही इस बात से डरा रहता हूं कि मेरे कथन को इस चरण पर उपलब्धि के रूप में न ग्रहण कर लिया जाए। खोज सत्य की सिद्धि नहीं है उस दिशा में आने वाली उलझनों को सुलझाते हुए सत्य की दिशा में बढ़ने का एक प्रयास है, जिसमें कुछ भटकावों और गलतियों की संभावना बनी रहती है। इसलिए मैं अपने आलोचकों से नहीं डरता, परंतु प्रशंसा करने वालों से डरता हूं । वे असमय प्रशंसा से भटका तो सकते हैं, पर सही दिशा में बढ़ने में मदद नहीं कर सकते हैं । ध्यान रहे मैं जिनका प्रशंसक हूं उनकी गलतियां अधिक निकालता हूं। किसी की प्रशंसा का यह सर्वोत्तम रूप है – उसके काम नहीं बाकी रह गई कमियों को दूर करते हुए उन्हें अधिक स्वीकार्य बनाना।
रामविलास जी ने प्राचीन आर्य भाषा की ध्वनि माला को समझने के लिए भारत में अनेक ध्वनिकेंद्रों की कल्पना की थी।उनका यह मानना था कि प्राचीन अवस्थाओं में इन सभी की ध्वनिमाला में बहुत कम ध्वनियां थी। संस्कृत की वर्णमाला को उन्होंने इन ध्वनि केंद्रों के पारस्परिक संपर्क में आने का परिणाम बताया था। पारस्परिक संपर्क का रूप क्या था, यह उनके सामने स्पष्ट नहीं था। इससे आगे की विकास प्रक्रिया को समझने का भी उन्होंने कोई प्रयत्न नहीं किया था। राजवाडे जी ने ऐसा प्रयत्न तो किया परंतु उनका विवेचन आर्यवादी था, इसलिए उसमें दूसरी भाषाओं के योगदान के लिए कोई स्थान नहीं था। अतः हमें एक ओर तो हमें आधार सामग्री की तलाश करनी है और दूसरी ओर विकास रेखा को स्पष्ट करना है जिसके लिए राजवाड़े जी ने 15000 साल के लंबे दौर का प्रस्ताव रखा था। इस लंबी कालावधि में बहुत मामूली कम-बेस की गुंजाइश है। यह हमारे काम की गुरुता और उसके समक्ष मेरी अकिंचनता का कुछ आभास करा सकता है।
भाषाओं के परिवार की अवधारणा और उससे जुड़ी किसी आद्यभाषा की कल्पना हमें अस्वीकार्य है। ऐसा नहीं कि यह मान्यता पूरी तरह व्यर्थ हो। परंतु भाषाओं के विकास में सामाजिक अंतरावलंबन की महत्वपूर्ण भूमिका है। भाषा परिवार की अवधारणा में उसके लिए स्थान नहीं रह जाता या रहता है तो अधस्तर और ऊपरी स्तर के रूप में। सांस्कृतिक और आर्थिक अंतर्क्रिया के दौरान उनमें निरंतर आदान प्रदान के लिए, उसमें स्थान नहीं होता। फिर भी भाषा समूहों के लिए ढीले ढाले रूप में परिवार का प्रयोग करना हमारी भी विवशता है।
भारत में बहुत प्राचीन काल से 4 भाषा परिवार रहते रहे हैं। रहते रहे हैं, कहना भी ठीक नहीं है । अधिक उपयुक्त यह कहना होगा कि यह भूभाग बहुत प्राचीन काल से उन समुदायों का विचरण क्षेत्र रहा है जिनकी भाषाओं को इन परिवारों में गिना जाता है। इनमें से कुछ फूटकर भारत से बाहर दूर-दूर तक चले जाते रहे हैं और वहीं बस जाते अथवा फिर वापस आते रहे हैं, जिनमें सबसे गोचर उदाहरण नगा भाषा समुदाय का है।
परंतु दूसरे समुदाय इसके अपवाद नहीं रहे हैं इनमें तथाकथित आर्यजन, मुंडारी और द्रविड़ सभी आते हैं। कोलंबो, कोल्लम बीच और कोलमी भाषा जो आज द्रविड़ परिवार में गिनी जाती है, यदि कोलों की याद दिलाते हैं तो मुंडीगाक मुंडा भाषियों की, मागी मगों की जिनके पांवों के निशान मगहर, महगरा आदि में बचे रह गए हैं। भारतीय इतिहास के इस अध्याय को हम यहां चाहें भी तो सलीके से प्रस्तुत नहीं कर सकते फिर भी यह याद रखना होगा कि सबसे साहसिक विस्तार तथाकथित आर्यों ने किया था, जिनकी महायात्राओं ने बर्बर जनों को भी सभ्य बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारत की वर्तमान भाषाओं के विकास में तीन परिवारों में गिनी जाने वाली बोलियों की बहुत निर्णायक भूमिका रही है। इस भूमिका को अधस्तर और ऊपरी स्तर के रूप में रखकर नहीं समझा जा सकता । पूरे इतिहास में ये एक दूसरे को प्रभावित करती और स्वयं दूसरों से प्रभावित होती रही हैं और आज भी यह सिलसिला बंद नहीं हुआ है। इन परिवारों के भीतर गिनी जाने वाली भाषाओं के भीतर भी गहरी भिन्नता रखने वाली भाषाएं रही हैं, जिनको एक ही परिवार में नहीं रखा जा सकता। इसका एक उदाहरण सारस्वत क्षेत्र की भाषा और पूर्वी हिंदी प्रदेश की भाषा स्वयं है। ऐसी ही स्थिति दूसरे परिवारों के साथ भी हो है, परंतु उनमें से किसी का इतना प्राचीन साहित्य उपलब्ध नहीं है जो इस गुत्थी को सुलझाने में हमारी सहायता कर सके।
सारस्वतक्षेत्र की भाषा को खींचतान कर भी उसी परिवार की भाषा नहीं कहा जा सकता जिस परिवार में भोजपुरी हो रखना होगा। एक स्वर प्रधान दूसरी व्यंजन प्रधान। एक की वर्णमाला में सघोष महाप्राण ध्वनियों की प्रधान भूमिका दिखाई देती है तो दूसरी की वर्णमाला सघोष महाप्राण ध्वनियों के लिए स्थान नहीं है। यह बहुत निर्णायक भिन्नता है। परंतु पूर्वी क्षेत्रों के कृषिकर्मियों प्रवेश के बाद सारस्वत्य प्रदेश की भाषा में महाप्राण ध्वनियों को भी स्थान मिला और इस क्षेत्र में परिष्कृत होकर मानक रूप ग्रहण करने वाली संस्कृत के माध्यम से इन ध्वनियों का प्रवेश दूसरी सभी भाषाओं में होता रहा। स्वयं पूर्वी हिंदी का चरित्र इतना बदल गया कि रामविलास जी के शब्दों में यह पूरा क्षेत्र हिन्दी प्रदेश के अंतर्गत आता।
भारतीय भाषाओं में एक भाषा भोजपुरी के ठीक दूसरे सिरे पर दिखाई देती है, जिसमें अघोष अल्पप्राण और अनुनासिक ध्वनियों को छोड़कर दूसरी वर्गीय ध्वनियां नहीं थी। तमिल को छोड़कर, इस परिवार में गिनी जाने वाली दूसरी भाषाओं में संस्कृत ध्वनियों का प्रवेश हो चुका है और स्वयं तमिल में मध्य स्थानीय अघोष अल्पप्राण का घोषीकरण हो जाता है। आगे का आभास तिरु को रोमन तिपि में थिरु लिखने में झलक सकता है।
इसे देखते हुए भोजपुरी में भी यदि पहले केवल घोष महाप्राण ध्वनियां रही हों तो यह आश्चर्य की बात न होगी। सघोष महाप्राण ध्वनियों के प्रति भोजपुरी में आज भी गहरा लगाव है, पश्चिमी का गहगहा भोजपुरी में घाघ हो जाता है, और नामधातु बनाने की अपनी प्रवृत्ति के कारण वह इससे घघाना गढ़ लेती है, दूसरी ओर महाप्राण ध्वनियों के उच्चारण में पश्चिमी हिंदी प्रदेश में खासी असुविधा का सामना करना पड़ता है पंजाबी तक पहुंचते-पहुंचते घोष महाप्राण ध्वनियां काकल्य होकर अघोष अल्पप्राण श्रुति भ्रम उत्पन्न करती हैं।
इसकी चर्चा हम कल करेंगे।