#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया( (2)
हमारे सामने जैसा कि हम पहले का है एक और तो समझने की समस्या है, कि ‘वर’, ‘वि-वर’, ‘वरण’, ‘विवरण’, तथा ‘वर्ण’ और ‘वर्णन’ की अर्थ-विकास रेखा क्या है। वही वर, जो आवरण के आशय के कारण प्राणियों के शरीर पर उगे हुए रूम के लिए प्रयोग में आता है, जिसका विकास घेरने वाले, रक्षा करने वीले कवच या वर्म के लिए हुआ, क्या मांद के पर्याय , विवर की संज्ञा का स्रोत हो सकता है?
यहां हम दो तथ्यों की ओर ध्यान दिलाना चाहेंगे। एक तो, चूहे की मांद में वह चौड़ी जगह जहां वह अनाज इकट्ठा करता है, उसे एक कोठा कहते हैं। दूसरे अंग्रेजी में माद के लिए burrow प्रचलित है। ध्यान रहे, यहां, वर् वह रूप दिखाई देता है जो भोजपुरी में मिलता है अर्थात ‘बर’। अतः वर के विवर की निर्मिति में कोई सन्देह नहीं रह जाता।
अक्षर के विषय में हमें पहले कह आए हैं इसका एक्अर्थ जल होता है, और दूसरा अर्थ वह जिसका नाश न हो। क्षर का भी प्रयोग प्रवाह के लिए हुआ है, अध क्षरन्ति सिन्धवो, 1.72.10; मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ।। 1.90.6 परंतु क्षर का मूल आशय बरसना (ततः क्षरत्यक्षरं तद् विश्वमुप जीवति,1.164.42), छितराना(ऊर्जं न विश्वध क्षरध्यै,1.63.8, बांटना (सद्यो दाशुषे क्षरसि,1.27.6) रहा लगता है और अक्षर वह है जिसे टूटना, बिखरना या छिन्न भिन्न न होना पड़े।
बोला हुआ वाक्य, पूरा होने के साथ ही समाप्त हो जाता है जब कि लिखित वाणी अनंत काल के लिए अमर हो जाती है। (सर्परीः अमतिं बाधमाना बृहद् मिमाय जमदग्निदत्ता । आ सूर्यस्य दुहिता ततान श्रवो देवेषु अमृतं अजुर्यम्।। 3.53.15)। इसलिए हमें ऐसा लगता है की अक्षर लेखन के बाद ध्वनि के लिखित चिन्हों के लिए वाणी के अल्पतम इकाई के लिए जिससे छोटी इकाई नहीं हो सकती प्रयोग में आया। इसी अक्षर से मात्राओं का हिसाब लगाया जा सकता था। वाचित वाणी में शब्द और वाक्य की अल्पतम इकाइयां होती हैं, लिखित वाणी के बिना अनोखी मात्राओं को गिनने का प्रश्न नहीं पैदा होता (गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् । वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाऽक्षरेण मिमते सप्त वाणीः, 1.164.24 अक्षरेण प्रति मिम एतामृतस्य नाभावधि सं पुनामि,10.13.3)।
हम सभी जानते हैं, अक्षरों का विभाजन स्वर और व्यंजन में किया गया है। स्वर वह जिसे अपने उच्चारण के लिए किसी दूसरे पर निर्भर न करना पड़े और इसलिए उसे हम जितनी देर तक चाहे तान सकते हैं, परंतु यह छूट केवल स्वरों के स्वरित उच्चारण में ही संभव है ह्रस्व और दीर्घ की दीर्घता तय है। हम स्वरों के ह्रस्व के लिए ही वर्णमाला में चिन्ह निर्धारित कर पाए हैं, परंतु उनके उच्चारण आधी मात्रा और चौथाई मात्रा तीन चौथाई मात्रा में होते हैं इसी तरह दीर्घ माने जाने वाले स्वरों – ए-कार और ओ-कार के भी ह्रस्व रूप होते हैं। द्रविड़ भाषाओं में इनके लिए अलग से लिपि-चिन्ह भी नियत है। शब्द में अक्षर की स्थिति या अर्थभेद के लिए हम उतार चढ़ाव और बल का भी प्रयोग करते हैं जो बोलचाल की भाषा में बहुत निर्णायक होता है परंतु इन सभी के अनुसार यदि लिपिसंकेत बनाए जाएं तो वर्णमाला इतनी बोझिल हो जाएगी कि उसे सीखना बहुत कम लोगों के बस की बात होगी। इसका निर्णय हम उस संदर्भ आदि का ध्यान रखते हुए पाठक पर ही छोड़ देते हैं।
इस तरह लिखित भाषा एक खास अर्थ में अधूरी भाषा होती है और लोगों को इस बात की शिकायत बनी रहती है कि उनके मंतव्य को ठीक ठीक समझा नहीं गया। वेदिक पाठ में तनिक भी चूक से भारी अनर्थ हो सकता था. इसलिए इनके लिए विकारी चिन्हों का प्रयोग किया जाता था।
वर्णमाला में आज हम स्वर और व्यंजन दोनों को ग्रहण करते हैं। इसके लिए अक्षरमाला, जिसे बोलचाल में ‘अखरौटी’ कहते हैं, अधिक उपयुक्त था। अक्षरों के स्वर और व्यंजन में विभाजन के बाद ‘वर्ण’ का प्रयोग यदि विकारी चिन्ह लगे हुए हैं लिपिचिन्ह के लिए गढ़ा गया हो, आरंभ में इसका प्रयोग व्यंजन के लिए होता रहा तो इसका हमें कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता। स्वर और व्यंजन दोनों को समेट लेने के बाद, वर्गीकरण की इसकी भूमिका समाप्त हो जाती है उसके उसी मूल से वर्ग शब्द का प्रयोग किया ही गया है।
वर का रेखा के लिए प्रयोग होता था। रेखन या लेखन आरंभिक अवस्था मे चित्रलेखन था । ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं ‘वर्ण’ का प्रयोग चित्रांकित आशय में प्रयुक्त हुआ हो सकता है और वर्णन किसी विचार या भाव का चित्रण हुआ। फिर भी यह याद रखना होगा कि समझना और समझाना उलझी हुई चीज को तार-तार अलग करना, या बंद चीज को खोलने, चीरने, दिखाने आदि का काम है। इसीलिए इन आशयों से जुड़े विश्लेषण, विच्छेदन, विवेचन, व्याकरण आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं। वर्णन को चित्रांकन या खाका उतारना और वर्ण को लिखित लिपिचिन्ह मानना ऐसी स्थिति में अधिक निरापद लगता है। पर ग्रीक वरवर जिसका, अर्थ बर्बर, बारबरस, बार्बेरियन – जिसकी भाषा समझ आए, सं. बर्बर, हिं. बर्राना, बरबराना, बड़बड़ाना और उपरोक्त वर्ब, वर्ड वैदिक (अधि ब्रवत् तन्वे को जनाय, 1.84.17)को हम दरकिनार नहीं कर सकते। यहां हम केवल संभावनाओं की बात कर सकते हैं, ध्वनि विशेष से अर्थविशेष के जुड़ने की दिशाओं की बात कर सकते हैं।