Post – 2018-05-21

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया(

हम वर शब्द पर विचार करते हए वर्ण और वर्णव्यवस्था पर विचार करने लगे और इसी के अन्य विकारी रूपों से निकले आशयों की ओर बढ़ना चाहते थे कि पीछे की ओर देखने लगे कि उन परिवर्तनों लक्ष्य कर सकें जो पूरब (गंगा घाटी) से चल कर सरस्वती घाटी में पहुंचने वाली बोली में हुए थे। यहां कुछ रूक कर यह बताना जरूरी लगता है कि सरस्वती घाटी में पूरब से पहुंचने के हमारे पास क्या प्रमाण हैं। इन्हें हम पहले अन्य प्रसंगों में गिना आए हैं, जरूरत उनकी याद दिलाने की है। वे निम्न प्रकार हैंः
1. ऋग्वेद में इस बात का उल्लेख है कि कुरुक्षेत्र में आकर बसने वाले लोग कहीं बाहर से आए थेः
नि त्वा दधे वर आ पृथिव्यां इळायास्पदे सुदिनत्वे अह्नाम् ।
दृषद्वत्यां मानुष आपयायां सरस्वत्यां रेवदग्ने दिदीहि ।। 3.23.4

2. शतपथ ब्राह्मण इस बात का उल्लेख है दूसरी सभी दिशाओं में यज्ञ की स्थापना में विफल होने के बाद देवों ने पूर्वोत्तर की दिशा में यज्ञ की स्थापना की और उनकी सफलता के कारण ही इस दिशा को ईशानी या अपराजिता दिशा कहते हैं।

3. ऋग्वेद में दसवें मंडल केवल एक सूक्त 179 ऐसा बचा रह गया है जिसमें तीन पौराणिक व्यक्तियों का उल्लेख है जिनका संबंध काशी से लगता हैः शिबिरौशीनर, काशिराज प्रतर्दन, रौहिदश्व।

4. ग्रियर्सन, सुनीति कुमार चटर्जी, विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े और रामविलास शर्मा अपने-अपने साक्ष्यों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं पूर्वी हिंदी में आदि भारोपीय के लक्षण किसी अन्य भाषा या बोली की अपेक्षा अधिक सुरक्षित हैं।

5. सोम की उपलब्धता के विषय में यह स्मृति सुरक्षित रह गई है कि पहले सोम खरीद पूर्व की दिशा से होता था।

6. विगत कुछ दशकों में पूर्वोत्तर में जो उत्खनन हुए हैं, उनसे आज से 12000 साल पहले स्थाई निवास और धान की खेती के प्रमाण मिले हैं।

7. साहित्य में कई रूपों में कई स्थलों पर इसके हवाले मिलते हैं, जिन्हें प्रविधि से लेकर भाषाओं और रीति विधान तक सभी से की पुष्टि होती है, परंतु वह इतना विपुल है कि उसका उल्लेख यहां नहीं किया जा सकता।

अब हम उन परिवर्तनों पर नजर डाल सकते हैं जो ऋग्वेद में आए प्रयोगों, तथा भोजपुरी और कौरवी के बीच आज मिलने वाली भिन्नताओं के आधार पर हमारे सामने आते हैं। कौरवी से पूरब की बोलियों में य, व, श, ष, ण, ध्वनियां नहीं मिलती इसलिए हम यह मान सकते हैं ये परिवर्तन आगत भाषा में कुरुक्षेत्र में पहले बोली जाने वाली बोलियों के प्रभाव से आए हैं।

कुरुक्षेत्र से पूरब की ओर बढ़ते हुए स्वरण बढ़ता जाता है, हिन्दी तक में जिसका आधार कौरवी हे, लगभग सभी अकारान्त शब्द हलन्त जैसे हो जाते हैं, हम लिखते ‘हम’ और ‘हमने’ हैं, बोलते ‘हम्’ और ‘हम्ने हैं, दूसरे स्वरों की दीर्घता और, उसी अनुपात में, माधुर्य कम हो जाता है। हरियाणवी बोलने वालों को बात करते हुए सुनकर भोजपुरी भाषी को लगता है वे आपस में लड़ रहे हैं। इसके विपरीत भोजपुरी बोलने वाले हिंदी बोलते हैं तो भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरयाणा के लोगों को लगता है वे गाते हुए बोल रहे हैं। पश्चिमी हिंदी का चौथाई मात्रा वाला ‘अ‘-कार पूरब की ओर बढ़ते हुए मात्रा में आने वाली क्रमिक वृद्धि के कारण बंगाल तक पहुंचते-पहुंचते ओकार में बदल जाता है। वहां ‘अ‘-कार का उच्चारण असंभव हो जाता है। सभी स्वरों का उच्चारण विलंबित होता है जिसके कारण बांग्ला को बहुत मधुर भाषा कहा जाता है।

इस प्रवृत्ति के कारण पूरब से आए किसानों की भाषा, जिसमें स्वरों का स्पष्ट और पूर्ण उच्चारण होता था, और व्यंजन का सवर्णसंयोग होता था, एक ऐसे क्षेत्र की बोली से प्रभावित हो रही थी इसमें स्वरलोप की प्रवृत्ति थी, असवर्ण व्यंजन संयोग होता था, और एकल व्यंजनों को संयुक्त बनाने की प्रवृत्ति थी। मैं नहीं जानता मैं अपनी बात सटीक रूप में कह पा रहा हूं या नहीं परंतु ‘सत‘ का ‘सन्त‘ ‘सत्य‘, ‘सर‘ का ‘स्र‘ ‘स्न‘, ‘वर‘, ‘वर्‘ और ‘व्र‘, होना यहां पहुंचने के बाद ही संभव था।

इसी का प्रभाव था कि ‘बर/बार‘ > ‘वर/वार‘ > ‘वरण/वर्ण/ वारण‘, आदि में बदला। यहां पहुंच कर हम समझना चाहते हैं कि क्या ‘वर्ण‘ का ‘वर्णन‘ से, और ‘वर‘ का ‘वि-वर‘ और ‘वि-वर-ण‘ से सीधा संबंध है या नहीं। यदि है तो वह अर्थ विकास के किस चरण है से जुड़ा हुआ है।
हम पहले यह सुझाव दे आए हैं कि जल में ध्वनि होती है और जिससे ध्वनि पैदा होती है उसका प्रयोग भाषा के लिए किया जा सकता है, ‘भस-जल > भास -प्रकाश >(आ-भास) >भाषा । हम यह भी जानते हैं कि ‘अक्षर‘ का अर्थ जल होता है, ‘तेन क्षरति अक्षरः‘ । समझना यह भी था कि ‘अक्षर‘ के लिए प्रयुक्त ‘वर्ण‘ का भी स्रोत ‘वर‘ और ‘वारि है या रेखा और विभाजन वाला ‘वर‘ और ‘वर्ण‘। संभव है यह काम कल पूरा हो जाय।