#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया(
हम भाषा पर विचार नहीं कर रहे हैं, बल्कि भाषा की उत्पत्ति और विकास पर विचार कर रहे हैं । भाषा की उत्पत्ति परिवेश की ध्वनियों का यथाशक्य अनुकरण करते हुए, उनके आधार पर वस्तुओं, क्रियाओं, विशेषताओं, अवस्थाओं, कल्पनाओं को नाम देते हुए हुई है। यह पचासों हजार साल की यात्रा करती हुई अपने वर्तमान रूप में पहुंची है।
हमारी भाषाओं का, जिनमें तथाकथित भारोपीय परिवार की भाषाएं आती हैं, विकास जल की गतियों, और बाधाओं से उत्पन्न असंख्य ध्वनियों में से कुछ का चयन करने से हुआ है।
इसी का निरूपण करते हुए हमारा ध्यान दूसरे पहलुओं की तरफ भी भटक जाता है। हम अनेक दृष्टियों से जांच पड़ताल करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि जिसे हम संस्कृत कहते हैं वह पूरब में बोली जाने वाली एक बोली में निरंतर होने वाले परिवर्तनों का परिणाम है।
मूल भाषा बोलने वालों के वर्चस्व का कारण थी कृषि विद्या में उनकी अग्रता। उनकी सफलता, प्रोत्साहन, और दबाव से प्रेरित अथवा बाध्य होकर जो दूसरे समुदाय खेती की ओर अग्रसर हए उन्होंने उनके अनुभव और जानकारी का लाभ उठाने के लिए उनकी भाषा सीखी। इस क्रम में सीखने वालों की भाषा का वर्चस्वी भाषा पर प्रभाव पड़ता रहा।
उनकी भाषा पर अन्य बोलियों के प्रभाव का एक कारण यह भी था कि खेती में भागीदारी तथा खुशहाली के परिणाम स्वरुप जनसंख्या बढ़ने के साथ उन्हें नई कृषि भूमि की तलाश में अन्य क्षेत्रों में जाना पड़ता । इससे एक ओर तो उनकी शक्ति बढ़ी, प्रसार-क्षेत्र बढ़ा, और दूसरी ओर नए स्थानीय जनों के संपर्क में आने के कारण उनकी भाषा के अनेक रूप स्थानीय बोलियों के प्रभाव से होते चले गए। अंत में उनका एक दल सरस्वती घाटी में पहुंचा और यहां से अर्जित समृद्धि के बल पर उन्होंने कई हजार वर्षों के बाद एक महान सभ्यता का विकास किया और फिर उच्चतर आकांक्षाओं तथा उन्नत जीवन स्तर की स्वाभाविक प्रवृत्ति के फलस्वरूप उद्योग और व्यापार में विस्तार और बोलचाल की भाषा का प्रसार भी हुआ। विभिन्न प्रकार की दक्षताओं वाले लोगों को सम्मान देते हुए उनका उपयोग करने प्रवृत्ति बढ़ी और इसके साथ कुछ नई बोलियों के लोगों का समावेश इस समाज में हुआ।
यह एक जटिल प्रक्रिया थी जिसकी पूरी जानकारी हमें नहीं है, परंतु जितनी जानकारी है उसे भी यदि विस्तार से रखना चाहें तो वह इतना उबाऊ हो जाएगा, कि पढ़ने वाले को भी व्यर्थ लगने लगेगा। इसके बाद भी यह बताना जरूरी है कि नए स्थान की खोज में पूरी की पूरी आबादी अपने स्थान से हट नहीं जाती थी, अपितु उसका एक छोटा सा, अधिक साहसी जत्था ही इस तरह का जोखम उठाता था।
यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि आहार संग्रह के चरण पर किसी समुदाय का अधिकार किसी विशाल क्षेत्र पर नहीं हो सकता था। छोटी छोटी दूरियों पर नए भाषा-भाषी समुदाय अपना देश या अटन क्षेत्र बनाकर निर्वाह करते थे। उन्होंने जब कृषिकर्म अपनाया तो धीरे धीरे अपनी पुरानी बोली काे भूल गए पर बहुत कुछ सीखी भाषा में मला जिसहे नई बोली का निर्माण किया और इस तरह वह चित्र विचित्र नक्शा तैयार हुआ जिसमें बहुत छोटी दूरी के बाद भाषा का चरित्र बदल जाता है। यह व्याख्या भी इकहरी है परंतु इसका सटीक विवरण हमारे लिए असंभव है और किसी दूसरों के लिए खोज का विषय ।
यह याद दिलाना जरूरी है किबीच-बीच में रुक जाने वालों की भाषा संस्कृत बनने की प्रक्रिया का हिस्सा है परंतु संस्कृत नहीं । संस्कृत बनने का सौभाग्य उन सभी क्षेत्रों के प्रभाव को लेकर सरस्वती घाटी में पहुंची भाषा के उत्तराधिकारियों का भी नहीं था, परंतु कालांतर में इस भाषा में वे सभी घटक शामिल हो गए जिनसे समस्याएं ही पैदा न हुई, उनको दूर करने के क्रम में एक ऐसी भाषा की रचना की गई जिसे व्याकरण के नियमों में बांध कर अमर तो बना दिया गया, परंतु उसकी वह ओजस्विता चुक गई जो वैदिक भाषा के समय तक सभी चरणों पर मौजूद थी और बोलियों में आज भी मौजूद है।
जीवंतता भंगुर है, निरंतर परिवर्तनशील,है, पर उसके बाद भी उसमें कुछ होता है जो शैशव से मृत्युपर्यंत बना रहता है। ओजस्विता ठहराव नहीं झेल सकती। केवल ममियां ही अनंत काल तक एक दशा में रखी जा सकती है।
ऐसी भाषा जिसके नियम उसे निश्चल कर दें, वह स्वयं जकड़ी रहकर किसी को मुक्ति नहीं दे सकती, और जो उसे गले लगा ले उसको भी मानसिक रूप से जकड़बंदी का शिकार बना सकती है। संस्कृत के साथ यही हुआ। उच्चारण की शुद्धता पर फिदा होने वाले उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने भारत में भी उर्दू की हत्या करने में कोई कसर नहीं रखी और यहां से गए मुहाजिरों ने भी । केवल इस शुद्धता के कारण पाकिस्तान की दूसरी भाषाओं को अपना शत्रु बना दिया और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे बड़े कद के उर्दू शायर को भी अपने अंतिम दिनों में पंजाबी का शायर बना दिया।
व्याकरण भाषा की जरूरत नहीं है ्भाषा सीखने वाले इतर भाषा-भाषियों की जरूरत है। वे पूरी भाषा सीखने के बाद अपनी बात नहीं कहते, भाषा पर अधिकार होने तक और कई बार इसके बाद भी गूंगे बने रहते हैं।
पीछे का जो चित्र हमने प्रस्तुत किया है उसमें किसी भी चरण पर लंबे अरसे तक कोई भी व्यक्ति ना तो स्थानीय बोली शुद्ध रूप में बोल सकता था, न उसकी भाषा स्थानीय जन शुद्ध बोल सकते थे। अधूरेपन के बीच से गुजरते हुए हम पूर्णता की ओर बढ़ते हैं, परंतु पूर्णता से अधिक दुखद कोई दूसरी स्थिति नहीं हो सकती। हिंदी जीवंत भाषा है, सरकारी हिंदी मरी हुई पैदा हुई क्योंकि उस पर बंदिशें बहुत थी। भारतेंदु के समय से आज तक के हिंदी के गद्य और पद्य के प्रयोगों को देखें और तुलना करने बैठें तो सहज ही समझ सकते हैं कि इसकी जीवन्तता का रहस्य क्या है। बदलाव सभी स्तरों पर हुआ है जिसमें व्याकरण के नियम भी आते हैं।
इसलिए मैंने अपनी चर्चा में व्याकरण की उपयोगिता को चुनौती नहीं दी, शुद्धता को कार्यसाधक शुद्धता के रूप में प्रस्तुत किया। इसे एक उदाहरण से प्रस्तुत करें, हिंदी में नपुंसकलिंग जैसी कोई व्यवस्था नहीं है संस्कृत में है । परंतु संस्कृत का व्याकरण अपने नियमों का एक सीमा तक ही निर्वाह कर पाता है। इसलिए अनेक संज्ञाएं उभय लिंगी हैं। हमारे एक मित्र ने जो बहुत सतर्क संपादक रह चुके हैं एक दिन किसी प्रसंग में खिन्नता प्रकट करते हुए कहा कि कुछ लोग सोच को स्त्रीलिंग लिखते हैं। सच्चे संपादकों की तरह वह कोश देखने के आदी होंगे। कोश में पुल्लिंग मिलेगा।
यहां दो बातों पर ध्यान दें । पहला, औपचारिक शिक्षा व्यवस्था से पहले या इसकी परिधि से बाहर कोई किसी भाषा को न तो व्याकरण पढ़ कर बोलना शुरू करता है नहीं कोश देख कर सही गलत का निर्णय करता है। वह नई भाषा भी व्यवहार के क्रम में गलतियां करते हुए फिर कम गलतियां करते हुए लगभग सही भाषा बोलना शुरू करता है। अंतिम प्रमाण व्यवहार है और उसी के कारण भाषा में बहुत अदृश्य रूप में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं जैसे किसी भी जीवंत प्राणी में। जिसका व्यवहार कम होता है उसे गलत मान लिया जाता है जो प्रचलित होता है उसे सही माना जाता है इसलिए यदि आरंभ में उससे गलती होती भी है तो वह धीरे-धीरे अधिकांश लोगों द्वारा मान्य प्रयोग को अपना लेता है। कोई भी चीज गलतियों से भी बदलती है और बदलने के तरीकों से भी बदलती है, उसका बदलव ही प्रमाण है।
इसलिए मैं ग्रंथ लिखित को प्रमाण तभी मानता हूं जब वह तर्क और औचित्य की कसौटी पर खरा उतरे,अन्यथा वेद लिखित को भी अमान्य मानता हूं। छोटी मोटी भूलों को तब तक भूल नहीं मानता जब तक वह संचार में किसी तरह का अवरोध न पैदा करें। सोच पुलिंग है और समझ स्त्रीलिंग है, सूझ स्त्रीलिंग है जबकि तीनों अकारांत है अमूर्त अवधारणाओं को व्यक्त करते हैं। इनका किसी रूप में प्रयोग संचार में बाधक नहीं होता इसलिए इनके विषय में अतिरिक्त आग्रह, व्याकरण के स्वास्थ्य के लिए ठीक हो, भाषा के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं।