Post – 2018-05-12

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वरिव

हमारे सामने एक बड़ी विचित्र परिस्थिति है। यह तय करना कठिन हो रहा है कि अपनी बात कहां से शुरू करूं। ऋग्वेद में धन संपदा के लिए यो शब्द प्रयोग में आए हैं उनमें से एक है ’वरिव’ वास्तव में हमारी समझ से इसका का अर्थ धन नहीं है, अपितु प्रचुरता है, व्यापकता है और, जैसा कि हम जानते हैं, अधिकता स्वतः समृद्धि का रुप ले लेती है। संभवतः इसीलिए ’वरिव’ का प्रयोग संपन्नता के लिए हुआ हो।

अब हम उन शब्दों को ध्यान दे सकते हैं जिन के संदर्भ में धन का आशय लिया गया है। ऋ. 3.34.7; 6.18.14; 44.18; 6.50.3; 7.47.4) में सायण ने वरिवः का अर्थ ‘धनं’ किया है, परंतु Griffith ने इनके संदर्भ को देखते हुए ‘वरिवः’ का अर्थ freedom; room and freedom; ample room and freedom किया है । ऐसा नहीं है कि वह यह मानते हों कि वरिव का अर्थ धन नहीं है। ऋ. 8.48.1 में ’वरिवोवित्तरस्य’ का अर्थ सायण ’अतिशयेन पूजां लभमानस्य’, करते हैं, पर ग्रिफिथ best to find out treasure करते हैं, जो ’वरिव-विद-उत्तरस्य’ के अधिक अनुरूप है और जिसमें इसका अर्थ धन या संपदा के निकट है। समस्या शब्द के मूल अर्थ और विशेष संदर्भ में उसके प्रयोग से निकलने वाले आशय की है। अतः वरिवोधाम – वरिवः इति धननाम, धनस्य दातारं, bestowing ample room, 1.119.1; वरिवस्यन्तु – प्रभूतमन्नं प्रदातुमिच्छन्तः, vouchsafe to us this favour, 1.122.3; वरिवःविदं – अन्नस्य लम्भकं, wealth that shall bring us room, 2.41.9; धनं, comfort, 4.55.1; वरिवस्यन् – धनमिच्छन्, 6.20.11, अस्मभ्यं धनमिच्छन्तु, honour us, 5.42.11; प्रयच्छन्तु, May kindly give us, 6.52.15; वरिवस्कृत् – धनस्य कर्ता, he who giveth ease, 8.16.6; वरिवोविदः – वरणीयस्य धनस्य लम्भयितारः, providing ample room, 8.27.14 ।

यहां हम यह निर्णय नहीं करने जा रहे हैं कि कहां, किसके द्वारा लिया गया, कौन सा अर्थ अधिक समीचीन है, अपितु यह समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि प्रचुरता का भाव संपदा में भी रूपांतरित हो जाता है। बहुत दिया देने वाले ने मुझको मैं ’बहुत’ स्वतः धन का अर्थ ग्रहण कर लेता है। वही यहां भी हुआ है। या कह सकते हैं जिस स्रोत से बहु और संपन्न का संबंध है, उसमें जल अर्थात धन का आशय निहित है। खासतौर से इसलिए इसमें है विशालता, महिमा, श्रद्धा और सेवा का भाव भी जुड़ा हुआ हैः वरिवस्यन्तः (हिरण्यकर्णं मणिग्रीवमर्णस्तन्नो विश्वे वरिवस्यन्तु देवाः, 1.122.14; 7.56.17) स्वमहिम्ना पूरयन्तः, bringing free room; .वरिवस्य ( उभे यथा नः अहनी सचाभुवा सदःसदः (सर्वेषु यागगृहेषु) वरिवस्यात् (परिचरतः) उद्भिदा, 10.76.8.46.10) परिचर, आगच्छ, be gracious; वरिवस्या (1.181.9) वरिवस्यया परिचर्यया, singing with devotion.

अब हम जल की उस मूल संकल्पना को ले सकते हैं, जिसके साथ आज दूसरे अनेक भाव जुड़े मिलते हैं परंतु जल का आशय शब्दकोशों में भी ढूंढने पर नहीं मिलेगा। यह है ’वर’, जिसे ’वारि’ और वार्ण – बंगला बान, ज्वार में लक्ष्य कर सकते हैं, और सायण की मानें तो, वराहं – मेघं, the wild boar, 1.61.7; – वराहारं यद्वा, the wild boar, 1.114.5 ; वराहुं, वराहारं, the boar, 1.121.11 पर संभव है इसमें कुछ खींचतान की गई हो, इसलिए यह पूरे भरोसे का न हो।

प्रसंगवश कह दें कि मनुष्य असाधारण गुणों के लिए पशुओं पक्षियों – वृषभ, गयन्द, महिष, शूकर, सिंह, गजराज, शुक, मृग, मीन – से अपनी तुलना करके गर्व अनुभव करता रहा है, यद्यपि दुर्गुणों के लिए भी उन्हीं को याद किया जाता रहा है। बनैला सूअर पर उसके चर्बी के कवच के कारण तलवार के वार को भी बेकार कर देता है, पीछे मुड़ता नहीं, इसलिए शौर्य का प्रतिमान रहा है। इसलिए सायण को (1.88.5) में ‘वराहून् ’ की व्याख्या करते हुए धर्मसंट अनुभव करते हुए ‘वरस्य उत्कृष्टस्य शत्रोर्हन्ता’ वाराहवत कहना चाहिए था जैसा कि ग्रिफिथ ने wild boars किया भी है।

जो भी हो, कोशों वर से कई दृष्टियों से निकटता रखने वाले ’पर’ का भी अर्थ ’जल’ नहीं मिलेंगा। दोनों के साथ ऊंचाई, व्यापकता, श्रेष्ठता, आदि का भाव है, परंतु दोनों में केवल परम् ही उपसर्ग – परम् (परमात्मा, परंपरा), प्र, प्रा, परि, परः/पर (परोपकार/ परधर्म) बनता है और वरं किसी उपसर्ग की मदद से ही – अवर, प्रवर, संवर (संवर्धन, आवरण) यह भूमिका निभा पाता या इसका आभास कराता है।

वर में जल की उछाल, लहरों का आवर्तन, प्रसार, प्रवाह या अग्रगति, परावर्तन या परवर्तिता, शांत जल में होली पत्थर पढ़ने पर वृत्ताकार लहरों के फैलने, घेरा या सीमा बनाने, आदि गुणों के कारण इन सभी के आशय पाए जाते हैं। वरते – वारयति, impedeth, 4.42.6; वरथः – निवारयथः, chased, 5.31.9; वरन्त – विवृण्वन्ति, unclose, 2.24.5; वारयन्ति, restrain; check, 3.32.9; 16; वारयन्तु, keep you back, 5.55.7; वरं – श्रेष्ठं धनपुत्रादिकं, better, 1.4.4; वरसत् – वरणीये मंडले स्थितः आदित्यः, 4.40.5; वरा – कन्यका, suitors, 1.83.2; विवाहयोग्या युवानः, young suitors, 5.60.4; वराय – निवारणाय, to please (6.44.21) श्रेष्ठाय, for thine election; वरांसि – वरणीयानि वृष्ट्यादि, the expanses, 1.190.2; – द्वाराणि, spaces, 4.21.8; रूपस्यावरकाणि, तेजांसि वा, regions, 6.62.1. – तमोनिवारकाणि, many wide spaces, 6.62.2; वरिमता – वरिम्णा – उरुत्वेन आत्मीयेन गौरवेन, compass, 1.108.2; वरिमन् – विस्तीर्णे प्रदेशे, on the broad surface, 3.59.3; – विस्तृते, in freedom, 6.63.11; वरिमाणं – उरुत्वं विस्तृतत्वं, wide expanses, 6.47.4 परिमाणं, the breadth, 8.42.1; वरिष्ठः – उरुतमः, Supreme, 6.37.4; वरिष्ठं – उरुतरं, broadest, 5.48.3; वरीमभिः – स्वकीयैः संवरणैः यद्वा उरुत्वैः, on all sides, 1.55.2; वरणीयेभिः,with wide-extending tracts, 1.131.1; वरिष्ठैः रक्षणविशेषैः, for their brood all round wide, 1.159.2; वरीयः – उरुस्तमम्, wide, 2.12.2; वरीयसी – उरुतरा, more widely laid, 1.136.2; वरीवृजत् – शत्रून् भृशं हिंसन्, o’ercoming, 7.24.2.
परन्तु इसका सबसे रोचक विकास वर्तन चलना. व्र्त्मयवहार करना, बांटना, वर्त्म – रास्ता, वर्तनी – रास्ता, वरण, वारण, आदि