Post – 2018-05-10

फिर उसी लीक पर

यश
शब्दकोश में यश का अर्थ केवल कीर्ति या ख्याति ही मिलेगा, जिसके लिए अंग्रेजी में फेम ग्लोरी आदि का प्रयोग होता है। ऋग्वेद में भी सामान्यतः यही अर्थ लिया गया है । केवल कुछ स्थानों पर सायणाचार्य ने इसका अर्थ अन्न लिया हैः यशस्वतीः – अन्नवती, 1.79.1. उन्होंने भी इसका अर्थ जल नहीं किया है। यह प्रयोग भी उषा के संदर्भ में आया है। हमें ऐसा लगता है कि ‘यश’ ‘इष’ का ही उच्चार-भेद है, जिसमें इ-कार उस प्रवृत्ति के कारण य-कार में बदल गया है जिसे पाणिनि ने इकोयणचि मैं सूत्रबद्ध किया है। हमारी विवशता यह है कि यश कांति शौर्य आदि के लिए जल के अतिरिक्त केवल एक ही सोत बच रहता है और वह है वाणी द्वारा प्रसार जो यहां लागू नहीं होता। ‘इष’ के विषय में हम पहले चर्चा कर आए हैं और देख आए हैं इच्छा, ईश्वरत्व, ऐश, जैसी संकल्पनाएं इसी से संबंध रखती हैं। यश में प्रकाश यह गौरव का जो भाव है वह जल की चमक से ही पैदा हो सकता है और जल के प्रसार से ही यश का ही नहीं किस्सी भी चीज का विस्तार जुड़ा हो सकता है।

वय
वय का अर्थ है १. पक्षी, जो उड़ता है, ‘ न हि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः’, .1.24.6 (आकाश में उड़ने वाले ये पक्षी तक तुम्हारे प्रताप तुम्हारी शक्ति या तुम्हारी मनस्विता का स्पर्श नहीं कर सकते।); २. आयु जो बीतती है, ‘त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस् त्वं वयस्कृत् तव जामयो वयम्’, 1.31.10 ( अग्नि तुम हमारे बुद्धिदाता हो, पालक हो, जीवन (आयु) दाता हो, तुम्हीं हमारे अपने सगे बंधु हो।) और ३. जैसा कि ‘आदंगिराः प्रथमं दधिरे वय,’ ऋ.1.83.4 में सायणाचार्य ने बताया है ‘अन्न’, उनके कर्मकांडीय विवेचन में ‘हविर्लक्षणमन्नं’,। अन्न के आशय में इसका प्रयोग अनेक बार हुआ है, जैसे, ‘क्षुध्यद्भ्यो वय आसुतिं दाः’- अन्नं 1.104.7; वयः – ‘शोभनलक्षणमन्नं’, 2.20.1; वयसा – अन्नेन, 2.33.6; हविर्लक्षणेन, 6.36.5; वयसः – अन्नस्य, 8.48.1; वयोधाः – अन्नस्यदातार, 6.75.9. हम जैसा कि विदित है अन्न के पीछे जल की संकल्पना तलाशने प्रयास कर रहे हैं ।

जल के लिए ‘वय’ का प्रयोग यदि कभी होता भी था तो आगे चलकर बंद हो गया, अत: हमें इसके पीछे के चरण पर जलार्थक मूल की तलाश करनी होगी। पक्षियों के लिए इसका प्रयोग दो रूपों में क्रमशः ‘वया’ और ‘वायस’ (कौआ) के लिए रूढ़ हो गया। जरूरी नहीं है बया के घोसले को देखकर मनुष्य ने बुनने की कला सीखी हो, परंतु यह असंभव भी नहीं है। जो भी हो, बुनाई के लिए संस्कृत में वयन का प्रयोग देखने में आता है जो वाया पक्षी से ही प्रेरित है और बुनकर के लिए ‘वाय’ या ‘वासोवाय’ शब्द प्रचलित रहा है (वासोवायोऽवीनां वासांसि मर्मृजत्,10.26.6) ।

‘वय’ ‘वी’ का संप्रसारित रूप है। शब्दकोश में दिया गया ‘वी’ का अर्थ है चलाना, हिलाना, पहुंचना, व्याप्त होना, लाना, ले जाना, फेंकना, खाना, उपभोग करना, प्राप्त करना, धारण करना और चमकना सुंदर बनाना। यदि इन सभी आशयों को कोई पदार्थ समाहित कर सकता है तो वह है जल और वही अर्थ कोश मैं गायब है। यद्यपि जल तरंग के लिए वीचि उपलब्ध है।
‘वी’ का अर्थ पक्षी भी है ,(वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्, 1.25.7) आकाश (विहंगम – आकाशचारी; ‘पश्योदग्र प्लुतत्वात् वियति बहुतरं स्तोकमुर्व्यां प्रयाति’,कालिदास )

जलार्थक वी सेः वीतं – भक्षयतं 1.93.7; 7.68.1; होमाय आनीतं,, 1.162.15; कान्तं, 4.7.6; वीतपृष्ठः – सुष्ठु पोषणेन प्राप्तपष्चाद्भागः कान्तपृष्ठो वा, 1.162.7; 1.181.2; वीतपृष्ठा – चौड़ी पीठ से युक्त, 3.35.5; 8.6.42); वीतये भक्षणार्थं; देवेभ्यो भक्षणाय, वित 1.5.5; 6.16.10 ; वीतवारास -क्रान्तबलाः, 8.46.23; वीतिहोत्रः ) प्रीतिविषयं होत्रं, 3.24.2; वीती – वीत्या कान्तेन यज्ञेन आदि का संबंध आसानी से समझा जा सकता है।

परंतु हम यहां एक अधिक उलझाने वाले विकास की तरफ ध्यान देना चाहेंगे जिसमें ‘वी’ स्वयं भी ‘ई’ का संप्रसारित रूप लगता है । ‘ई’ की चर्चा हम पहले कर आए हैं इसलिए उसके विस्तार में यहां नहीं जाएंगे । जो बात हमें चकित करती है वह है ‘वय’ का ‘वयम्’ रूप जो ‘ई’ का विस्तार, अर्थात बहुवचन के लिए उपयुक्त स्रोत प्रतीत होता है। ‘ई’ अंग्रेजी के ‘आइ’ – मैं में लक्ष्य किया जा सकता है और ‘वी’ उसके बहुवचन में उपस्थित है। संस्कृत में अहम् का द्विवचन ‘आवाम्’ है। सामान्यतः बहुवचन में व्यक्तिवाचक वचनों को छोड़कर रूपावली नियमित चलती है केवल व्यक्तिवाचक सर्वनामों में अराजकता पाई जाती है। इसका कारण मेरी समझ में नहीं आता रहा है। इस समस्या को मैंने आज से 10 से 12 साल पहले उठाया था और यह सुझाया था कि अहम का प्राचीन रूप ‘इअम्’ हो सकता है, अत्र का प्राचीन रूप इतर रहा हो सकता है। द्रविड़ भाषा- समुदाय में गिनी जाने वाली एक बोली कुरुख मैं यह और वह के लिए इतरं -अतरं आज भी चलता है । यह बहुत प्राचीन अवस्था का अवशेष लगता है जो संस्कृत में ही नहीं दूसरी द्रविड़ भाषाओं में भी सुरक्षित नहीं रह सका। इससे पहले इस समस्या को लेकर मैं उलझन में रहा हूं। परंतु आज मुझे इस विचार क्रम में ऐसा लगा कि दूसरे सभी सर्वनामों के नामकरण में जल के पर्यायों का हाथ रहा है इसलिए प्रथम पुरुष सर्वनाम का स्रोत जल का यह एकाक्षरी नाम ‘ई’ रहा है।

समस्या फिर भी बनी रह जाएगी, क्योंकि आगे ही दूसरी बोलियों वाले समुदायों के सर्वनाम का गहरा प्रभाव दिखाई देता है जो मकार और नकार का प्रयोग करता/करते था/थे और जिनके मिलने से वह सामाजिक पहचान बनी थी जिसे हम वैदिक समाज कहते हैं. परन्तु इस समय हमारे सामने उसके सूत्र स्पष्ट नहीं हैं.