कोश तक भरोसे के नहीं
कल हमने अपनी बात दो प्रश्नों से समाप्त की थी: पहला यह कि जिन धातुओं से हम किसी शब्द का व्युत्पादन करते हैं उनमें यदि वे आशय क्यों नहीं होते जिन्हें हम खींच तान कर निकाल लेते हैं, और जो अर्थ होते हैं वे बेमेल क्यों होते हैं? इसके विषय में हमने यह सुझाव रखा था कि भाषा व्याकरण से पैदा नहीं होती। व्याकरण किसी दूरस्थ, अपरिचित या मिलावटी भाषा को समझने का प्रयत्न है जिसके चलते कुछ ऐसी प्रवृत्तियों की पहचान कर सकें जिनके सहारे दूसरे ऐसे शब्दों के उस घटक का अर्थ समझा जा सके जिनमें वह पाया जा सकता है और इन्हें सुविधा के लिए नियम कह लिया जाता है। यह नियम एक सीमा के बाद काम नहीं करते, इसलिए नियमों के अपवाद भी होते हैं। इन नियमों की सहायता से हम उन्हीं बहुनिष्ठ इकाइयों या धातुओं से नई परिस्थितियों में नए शब्द भी गढ़ सकते हैं, जिनको अर्थ बताने पर ही यह मालूम हो सकता है कि इनका किस आशय में प्रयोग किया जाना है। यह अर्थ आसानी से भूल सकता है क्योंकि जिस धातु से ये निर्मित हैं उनके एकाधिक आशय कल्पित करने पड़े हैं, और इसके बाद भी ये उन सभी शब्दों के आशय को समेट नहीं पाते। उदाहरण के लिए ऋष् धातु में यदि गति और हिंसा है तो पवित्रता कहां से आ गई? वीतरागता कहों से आ गई । ऋष् से तीन अन्य शब्द बने हैं, ऋषभ = १. सांड़, २. श्रेष्ठतम और ऋषु = आभा, लपट और ऋष्व, ऊंचाई पर स्थित। इनके आशय ऋष् धातु में नहीं अट पाए हैं। कहें धातुएं अर्थनिर्धारण के लिए अपर्याप्त प्रतीत होती हैं।
दूसरा प्रश्न यह था कि रि, ऋ, ऋृ तीनों का अर्थ गमन है, ऋष्टि और रिष्टि दोनों का अर्थ तलवार या हथियार है। ऋ का सही उच्चारण क्या है, इसे लेकर मतभेद है। इसका सही उच्चारण कोई नहीं करता, ऋृ से कोई शब्द नहीं बनता। यह अक्षर भी है और शब्द भी जिसका अर्थ वही है जो ऋ का। अत: यह वैयाकरणों की उद्भावना की देन प्रतीत होता है। पर ऋ के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। हम पहले यह सुझा आए हैं कि संस्कृत के निर्माण में उन बोलियों की भी भूमिका है जिन्हें द्रविड और आग्नेय परिवारों में रखा जाता है, द्रविड़ भाषाओं में दो रकार पाए जाते हैं। एक का उच्चारण कंपित घर्षी रूप में किया जाता है जिसका व्यवहार तमिल में इतना अनिश्चित है कि इसका सावर्ण्य होने या एक साथ दुबारा प्रयुक्त होने पर यह ट्ट के रूप में उच्चरित होता है। ऋ इसी रकार का संस्कृत में प्रवेश है। यही बात लृ के विषय में कही जा सकती है ।
अब हम ऋष् धातु से उत्पन्न उलझनों के निराकरण के लिए अनुनादी स्रोत की ओर लौटने पर बहते पानी के उस नाद पर जाएं जिसे रस्, रुस्/रुष्, रिस् के रूपों में वाचिक पहचान मिली है। रिस से रिसना= रसाव बना है। जल वाची शब्दों का प्रयोग गति, प्रकाश, तेज, पवित्रता, उर्वरता या रेत:सेक आदि के लिए होता है और साथ ही हिंसा के लिए भी। जल में संहार की प्रलयंकारी शक्ति है जिसके कारण जल को वज्र कहा गया है – आपो वै वज्र। परन्तु हिंसा में जो सायासता है वह जलवाची रिष् की ध्वनि नहीं हो सकती। प्रवाही जल की ध्वनि पैने हथियार की जननी नहीं हो सकती। अत: यह खरोंचने की ध्वनि है जिसके लिए संस्कृत में रिख्/लिख् का प्रयोग किया जाता है और एक धातु रिष् कल्पित की गई है (रिष् >रेषति, रिष्ट 1. to injure, hurt, harm; 2. To kill or destroy, V.S. Apte)
इसका अर्थ है, कोशकार ने ऋष् में जिन दो अर्थों की कल्पना की वह दो अलग समनादी (homophonic) शब्द हैं, एक रिष् (रिस्) और दूसरी ऱिष् (ऱिस्) । यहां मुझे स्वयं कुछ दुविधा है कि इस मामले में ष का पुराना रूप स था या ख। दुविधा का कारण यह कि संस्कृत ध्वनिमाला मे तालव्य और मूर्धन्य ध्वनियों का प्रवेश बाद में हुआ। मूल भाषा की ऊष्म ध्वनियां स और ह थीं। मूर्धन्यप्रेमी समुदाय के प्रवेश के बाद सकार का षकार अन्य मूर्धन्य ध्वनियों के समीप होने पर होने लगा। यह समस्या कुछ टेढ़ी है और इसे लक्ष्य करते हुए रामविलास शर्मा ने चेतावनी दी है कि वर्गीय धवनियों की सभी धवनियां किसी भाषा में न तो अनुपस्थित थीं न वर्ग की समस्त ध्वनियाो एक साथ किसा भाषा में ली गईं। र को मूर्धन्य माना जाता है पर यह ध्वनि मूल बोली में थी। इसके सानिध्य में सकार का षकार कुरु अंचल में पहुंचने पर हुआ। मूल बोली के उद्गम क्षेत्र में आज तक ऋ को रि और ष को ख में बदलने की प्रवृत्ति है ओर संस्कृत के पंडित भी ऋषि को रिखि बोलते हैं।
जो हो, जैसा हम कह आए हैं, धातुओं से आरंभ करके न तो हम संस्कृत को पूरी तरह समझ सकते हैं, न बोलियों को, न ही संस्कृत भाषा के उद्भव और विकास को।
अनुनादी पद्धति से ही धातुओं की सीमाओं को भी समझ सकते हैं क्योंकि वे काल्पनिक हैे, जब कि अनुनादी शब्द यथार्थ का हिस्सा। हम यहां केवल जल से उत्पन्न ध्वनि को लेंगे जिसे रस्, रिस् रुस में अनुकृत किया गया। जल की गति, चमक अतः ज्ञान, पवित्रता, रेतसेचकता, आग के लिए जल के पर्यायों के उपयोग आदि को ध्यान में रखे तो पाएंगे कि इससे न केवल संस्कृत अपितु बोलियों से लेकर भारोपीय की दूसरी शाखाओं के अनगिनत शब्दों का अर्थविकास उजागर हो जाएगाः
रस- रास, रसिकता, रसना, रसरी, रस्सी, रश्मि, रेशम, राशि, रस्ता/रास्ता/राह, रहगुजर, रेस, रश, रैश, रास- घोड़ा, आदि।
रिस/ऋष – ऋषभ, ऋषि, ऋषू, ऋष्य, रिष- हिंसा, भो. रीस-क्रोध, रिसना- पानी का आदि।
रुस/रुष/ऋष – रोष/रुष्ट , रुशद्, रोशनी, रोशनाई, रुज, रोज -दिन, रोज-गुलाब।
यहां नाद, अनुनादन, शब्द, अर्थ, औचित्य सब कुछ पारदर्शी हो जाता है। यदि इस तथ्य पर ध्यान दें कि इन शब्दों का व्याख्या के लिए हमें कितनी धातुओं का सहारा लेना पड़ता है तो सर पीटने लगेंगे।