Post – 2018-04-04

भाषा और व्याकरण

व्याकरण से भाषा नहीं बनती, भाषा होती है और उसे बोलते हैं। अक्सर हम यह भी नहीं जानते कि हमारी भाषा का नाम क्या है। भाषा का व्याकरण होता है इसे अनपढ़ आदमी नहीं जानता। कुछ नियम होते हैं जिनको सीखने के बाद सही भाषा बोली जाती है उसके लिए इससे बड़ा मनोरंजन कोई हो ही नहीं सकता। कारण हम जिस सहजता से अपनी बोली के शब्द सीखते है, उसी तरह बिना किसी आयास के उन नियमों को आत्मसात करते चलते है। पहली बार किसी चीज से पाला पड़ने पर यह अवश्य पूछा जाता है, ‘इसे क्या कहते हैं’, पर यह कभी नहीं पूछा जाता कि इस बात को कैसे कहते है।

परन्तु किसी नई भाषा को सीखते समय हर चीज के साथ ‘इसे क्या कहते हैं, और बात के साथ, इसे कैसे कहते हैं, का सवाल खड़ा होता है। कहें, शब्दभंडार और व्याकरण दोनों की समस्या पराई भाषा के साथ या किसी भिन्न भाषा के प्रभाव के अनुपात में पैदा होती है। व्याकरण की प्रधानता भाषा के पराएपन की पहचान है।

भाषा की जाति नहीं होती, धर्म नहीं होता, उसका अपना क्षेत्र या प्रदेश होता है। यदि किसी कारण किसी क्षेत्र की भाषा में धर्म या जाति का दखल होता है तो उस दखल के अनुपात में ही, भाषा के भीतर एक ‘कूट’ भाषा का जन्म होता है जो उस समूह के भीतर समझी जाती है। इसी तर्क से संस्कृत को ब्राह्मणों की कूट भाषा और फारसी को विदेशी मूल के मुसलमानों की कूट भाषा बनी रही। सामान्य कामकाज स्थानीय जनों की भाषा के बिना चल नहीं सकता, इसलिए इनको भी जन भाषा सीखने की जरूरत पड़ती थी जब कि जन साधारण का काम अपनी बोली से चल जाता है और उसे इन भाषाओं को सीखने की बाध्यता नहीं होती। भाषा वह है जिसके बिना आप गूंगे हो जाते हैं और किसी क्षेत्र की भाषा वह है जिसे जाने बिना आप उस क्षेत्र में गूंगे बने रहते हैं। इस गूंगेपन से बचने की कोशिश में आक्रान्ताओं को भी विजितों की भाषा सीखनी पड़ती है और इसी न्याय से दिल्ली के आसपास की बोली को आधार बनाकर खड़ीबोली का विकास हुआ था जिसे हिन्दी, हिन्दवी, या रेख्ता कहा गया। अपनी बोली से कटने और दूसरे बोली क्षेत्रो के लिए भी व्यवहार्य होने के कारण और उसी अनुपात में इसके व्याकरण की आवश्यकता बढ़ती गई जब कि कौरवी के वयाकरण की उस क्षेत्र के लिए कोई आवश्यकता नहीं।

यहां हम भाषा के दो भेद करें । एक स्वाभाविक भाषा जिसका सर्वोत्तम रूप बोलियों में मिलता है जिनमें स्थानीयता का इतना गहरा पुट होता है कि एक बोली क्षेत्र के भीतर इनके अनेकानेक रूप पाए जाते हैं, जिनसे इनकी प्राचीनता पर सन्देह होता है जब कि कोई भी बोली किसी शेक्ष भाषा से बहुत पुरानी होती है। पूरे बोली क्षेत्र के लिए यदि शिक्षा की जरूरतों से इनमें से किसी का चुनाव करना हो तो उसका भी व्याकरण तैयार करना होगा। इसलिए बृहत्तर संचार के लिए इन बोली क्षेत्रों के बीच अलपतम आयास से समझी जा सकने वाली भाषाओं का प्राधान्य हो जाता है । हिन्दी प्रदेश इनमें सबसे विचित्र है जिसका निर्माण कौरवी पर आधारित खड़ीबोली के उत्थान से बहुत पहले ब्रज, डिंगल, अवधी और मैथिली के माध्यम से हो गया था । इसलिए
इसके उन्नयन में सबसे प्रधान भूमिका भोजपुरी की थी।

यहां मैं एक तथ्य पर बल देना चाहूंगा। किताबी या शैक्ष भाषाओं का प्राण बोलियों में बसता है। उनसे दूरी बनाने के क्रम में वे बेजान और इकहरी होती जाती हैं। व्याकरण की आवश्यकता इनको समझने के लिए होती है। कोई व्याकरण इनकी सभी असंगतियों को
संभाल नहीं पाता। बोलियां ऊपरी तौर पर अपार भिन्नताओं के बाद भी एक दूसरी से अधिक निकट होती हैं और इनकी पारस्परिक निकटता तथाकथित भाषा परिवारों की सीमाओं को पार कर जाती है, क्योंकि इन सभी की जड़ें आदिम स्रोतों तक जाती हैं। अत: अनुनादी स्रोत इनमें अधिक स्पषट होते है। शैक्ष भाषाओं में मानव हस्तक्षेप बढ़ जाता है, और इसके कारण उनकी व्याख्या का कोई नियम अधूरा और भ्रामक होता है।

संस्कृत को समझने के लिए जिन धातुओं को बहुनिष्ठता के आधार पर निकाला गया वे जैसा कि हम पहले शिकायत कर आए हैं न तो यह सझने में हमारी मदद करती हैं कि उनको वह अर्थ कैसे मिला, न मूल ध्वनि के समग्र फैलाव को समेट पाती है। कई बार एक ही शब्द को समझने के लिए अवसर के अनुसार एकाधिक धातुओं का सहारा लाना पड़ता है फर भी अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए ऋषि शब्द को लें। इसे ऋष् और रि धातुओं से समझाने का प्र्रयत्न किया जाता है। ऋष् का अर्थ है चलना। ऋष् गतौ। रि का भी वही अर्थ। पर ऋष् का एक और अर्थ है, मारना, आहत करना। मेरे सामने आप्टे का कोश है, इसमे ऋषि का अर्थ दिया है – ‘अन्तःप्रेरणा सपन्न’ , an inspired person, ‘तपःपूत साधु, वीतराग’ a sanctified sage, an ascetic. ये आशय उस धातु में नहीो हैं। मारने और आहत करने का आशय उसी धातु में कैसे आ गया यह समझ में न आएगा। कारण इसका यह है कि कुछ और शब्द हैं जो ऋष् से आरंभ होते हैं – ऋष्टि – दोधारी तलवार, ऋष्य – एक मृग, और ऋषभ। इनके कारण यह खींज तान करके ये अर्बेथ मूल धातु पर आरोपित करने पड़े फिर भी पवित्रता, वीतरागता उसमें न अठ सकी।

रि में केवल गति है और रिष् में केवल हिंसा। रोचक यह है कि संस्कृत ही ऋष्टि के साथ रिष्टि भी उसी तलवार के आशय में प्रयुक्त है। अब एक नया प्रश्न उठ खड़ा होता है कि क्या ऋ ध्वनि भी वैयाकरणों की रचना है. अब हम कल इसी समस्या को अनुनादी कोण से देखने का प्रयत्न करेंगे।