Post – 2018-04-03

भाषा का शास्त्र बनाम भाषाविज्ञान

भाषा विज्ञान के नाम पर कॉलेजों में जो कुछ पढ़ाया जाता है वह इंद्रजाल है। इसकी आधारशिला ही टेढ़ी रखी गई। संस्कृत भाषा और साहित्य जिस व्याकरण पर आधारित है उसका भी आधार गलत है। यह इस विश्वास पर आधारित है संस्कृत भाषा ही नहीं, चारों वेद तक सृष्टि से पहले अस्तित्व में थे।

जिस युग का यह विश्वास है, उसे हम सांस्कृतिक संक्रमण काल कह सकते हैं, यद्यपि संक्रमण का यह दौर भी बहुत लंबा है। इसमें वेदों की नए सिरे से खोज करने के साथ ही, उसका अर्थ समझने की भी छटपटाहट दिखाई देती है। अनिश्चय के इस दौर में एक चीज ही संदेह से परे थी। यह थी वेदों की प्रामाणिकता, उसी विनष्ट काल की उपलब्धियों तक पहुंचले की तो यप सारी व्यग्रता थी। उनमें जो कुछ भी लिखा था. उसका जितना भी जिस रूप में समझ में आ रहा था वह अकाट्य था।

हम पुरुष सूक्त की चर्चा पीछे कर आए, जिसमें कृषि कर्म को सृष्टि से और उससे अर्जित समृद्धि और अन्य उपलब्धियों को यज्ञपुरुष के अंगों में बदल दिया गया यज्ञ के रूपक को पूरा करने के लिए साम और यजुष सहित वेद को सृष्टि से पूर्ववर्ती कल्पित कर लिया गया अतः संस्कृत भाषा को सृष्टि से पहले से अस्तित्व में होना ही था । दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी भी शुरुआत एक गलत समझ के साथ हुई, और इसलिए असाधारण पांडित्य के बावजूद हमारा भाषाचिंतन गलत दिशा में चला गया।

यह बहस की बात नहीं है कि आदिम अवस्था का मनुष्य है निरक्षर था, उसकी भाषा एक बोली के रूप में भी नितांत अविकसित थी, जब कि वेदों की भाषा परिपक्वता के ऐसे चरण पर पहुंची हुई है कि उसके ही मानकों पर संस्कृत भाषा का ढांचा तैयार किया गया और इस क्रम में मानक संस्कृत को वैदिक भाषा की तुलना में अधिक संकुचित कर दिया गया । इस क्रम में आडंबर तो बढ़ा, परंतु उसी अनुपात में इसकी प्राणशक्ति क्षीण हुई, और यह व्यापक संपर्क से कट गई ।नहीं, कट गई कहना अर्धसत्य होगा। भाषा को निजी संपदा बनाने के लिए, इसे व्यापक जन समाज से काटकर अलग कर दिया गया। यह भाषा के स्थान पर कूट भाषा में बदल गई।

यहां मैं इतिहास के एक ऐसे पहलू की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा जिसकी चर्चा तो मैंने कई बार की है परंतु इसके समग्र आयाम को स्वयं समझ नहीं पाया ।.यह है वह महाअकाल जिसकी चर्चा मैं करता हूं । उसके बाद ही खोई हुई सांस्कृतिक संपदा के पुनरुद्धार के क्रम में वह संक्रमण कॉल आया था जिसका ऊपर हमने उल्लेख किया है।

वह महाअकाल केवल पश्चिमी भारत तक सीमित नहीं था। यह मध्य एशिया और उससे आगे यूरोप तक एक चौड़ी पट्टी में फैला था। इससे आबादी का उत्तर दक्षिण की दिशा में जो पूरे विस्तार में पलायन हुआ, उसकी भारोपीय भाषा के प्रसार में बहुत निर्णायक भूमिका रही। मलेशिया में घोड़े का शिकार और पालन और प्रशिक्षण देते हुए अश्व-व्यापार करते हुए जो भारतीय व्यापारी (सिंधी और गुजराती ) बसे हुए थे उनका यूगोस्लाविया लिथुआनिया स्कैंडेनेविया की ओर विस्तार हुआ विस्तार हुआ और दक्षिण में एशिया माइनर के व्यापार केंद्रों पर इनका अधिकार हो गया, जिसका अन्य परिणाम था हित्ती, मितन्नी कस्सी जनों का प्रभुत्व।

भारत में मध्यदेश से दक्षिण की ओर गुजरात और उत्तर की ओर तथा पूर्व मगध की ओर पलायन और इन पिछड़े हुए क्षेत्रों का सांस्कृतिक उत्थान। परंतु इसका जो सबसे दुखद पक्ष था उस त्रासदी के दौरान हुए जनसंहार की दहशत के रूप में बना रहना । यह दहशत उनकी अंतश्चेतना में समा गई। बाहर से पूरी तरह कटने का प्रयास किया गया और केवल मध्य देश में सिकुड़कर रहने की चिंता भारतीय चेतना का अंग बन गई। विदेश यात्राएं वर्जित। समुद्री यात्राएं वर्जित। भारतीय भूभाग में, जिसमें उनके तीर्थ तक थे, प्रवेश करने पर धर्म का क्षय होने लगा और इसके लिए प्रायश्चित्त किया जाने लगा।

इसी व्यापक संकुचन का घरेलू पक्ष यह कि अपनी भाषा और संस्कृति की पवित्रता की रक्षा के लिए अपने ही समाज के वृहत्तर हिस्से से अपने को, अपनी भाषा को, कर्मकांड को बचा कर अपने आप में सिकुड़कर रहने की विवशता को श्रेष्ठता बोध से जोड़ दिया गया। इसकी दुर्भाग्यपूर्ण परिणति यह थी कि कार्य विभाजन पर निर्धारित वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई।

इस दौर की जिन उपलब्धियों पर हम गर्व करते हैं वह वास्तव में भारतीय समाज के अश्मी,भवन की प्रक्रिया का आरंभ है। इसकी गतिशीलता के अवरुद्ध होने की पहचान है। और इस दृष्टि से हम अपनी पूरी व्यवस्था के पुनर्मूल्यांकन की मांग करते हैं।

भाषा के सवाल को केंद्र में रखते हुए अपना विचार आरंभ किया था , इसलिए इस बात की याद दिलाना जरूरी है कि उक्त कारणों से वैदिक जड़ों की खोज करने वालों की समझ वैदिक चिंतकों से ठीक उलटी है।

जैसा कि हम पहले भी कह आए हैं, ऋग्वेदिक भाषा चिंतकों के अनुसार भाषा का जन्म प्राकृतिक परिवेश से हुआ, उसके सार्थक सुबोध और उच्चारण में सुगम ध्वनियों का चयन करते हुए मनुष्य भाषा का विकास हुआ। परंतु हमारे वैयाकरणों ने अपने बुद्धि बल से सार्थक इकाई का चयन करते हुए धातु का निर्धारण किया और उन में जुड़ने वाले प्रत्यय उपसर्ग और अंतःसर्ग के आधार पर पूरी भाषा का ढांचा तैयार किया और उसे नए शब्दों की सृष्टि की इंजीनियरी विकसित की।

यहां मैं दो तथ्यों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। यह सामान्य मान्यता है किसंस्कृत भारत के किसी भाग की बोलचाल की भाषा नहीं थी। पाणिनीय संस्कृत के विषय में यह सच है परंतु इसलिए कि उसे दुरूह और पवित्र बनाकर, सचेत रूप में, आम लोगों की पहुंच से काट लिया गया । वैदिक काल में यह संभ्रांत जनों को छोड़कर शेष समाज के लिए घरेलू बोलचाल की भाषा तो नहीं थी, परंतु् सार्वजनिक व्यवहार की ऐसी भाषा थी जिसे सभी समझ लेते थे और कुछ गलतियों के साथ स्वयं भी बोल लेते थे, जिसके प्रमाण ऋग्वेद में पाए जाते हैं। कहें ऋग्वेद के समय तक साहित्यिक और सांस्कृतिक संचार की भाषा लगभग वही थी जो आज अपने क्षेत्र में हिंदी है और वैदिक समाज में भी सामान्य घरेलू कामकाज में बोलियों का प्रयोग होता था जिनसे संस्कृत प्रभावित होती थी और जिनका प्रभाव साहित्यिक और सांस्कृतिक संचार की भाषा पर पड़ता था। पाणिनीय संस्कृत के बाद यह क्रम पूरी तरह बंद नहीं हुआ परंतु मंद अवश्य हो गया।

दूसरी बात जिसकी और मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं, वह यह है कि आधुनिक काल में तुलनात्मक भाषाविज्ञान का अध्ययन आरंभ हुआ तो वह पाणिनीय व्याकरण को आदर्श मान कर, उसी का हुबहु नकल करते हुए विकसित हुआ, इसलिए वह भी उल्टे सिरे से आरंभ हुआ अर्थात मानक भाषा की ओर से बोलियों तरफ यात्रा की गई और बोलियों को मानक भाषा के ह्रास से उत्पन्न मान लिया गया और भाषा की समझ को उलट दिया गया।

इसके लिए हम अकेले पाश्चात्य विद्वानों को दोष नहीं दे सकते। यह समझ स्वयं हमारे भाषा चिंतकों की थी जिनका उन्होंने आंख मूंदकर अनुसरण किया। यद्यपि मौलिक बनने के प्रयास में उन्होंने कुछ चीजों को उलट कर प्रस्तुत किया। उदाहरण के लिए, पाणिनीय विमर्श में उच्चारण की प्रक्रिया भीतर से बाहर की ओर है उन्होंने बाहर से भीतर की ओर कर दिया।
हास्यास्पद भले लगे परंतु चोरी के माल को छिपाने के लिए पर्दे की जरूरत तो होती ही है। उन्होंने उल्टी के बाद पलटी मारी, उसका नतीजा है उनका तुलनात्मक भाषाविज्ञान जो उतना ही पाखंडपूर्ण है जितना जितना मूर्खता पूर्ण और हास्यास्पद।

इस नतीजे पर पहुंचने के लिए मैंने लंबे समय तक काम किया है और उन दुर्बलताओं को पहचाना है जिनकी ओर आज तक विद्वान ने ध्यान नहीं दिया था।

उदाहरण के लिए धातुओं के विषय में जो उपलब्ध सामग्री थी उसका अध्ययन करने के बाद मैंने तीन तरह के विश्लेषण किए पहला अधिकतम धातुओं का सम्बन्ध गति, ध्वनि, और हिंसा से क्यों है. इसके परिणाम मैंने आर्य द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता में , अपनी तब की जान सीमा में प्रस्तुत किए थे। इसके बाद मैंने स्वयं तीन तरह के पाठ तैयार किए एक गण पाठ के आधार पर दूसरा अनुक्रम के अनुसार और तीसरा एक ही अर्थ में विभिन्न गणोंमें आने वाली धातुओं के रूप में ।

मैं यहां पर केवल एक पक्ष की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि यदि एक ही अर्थ में एक ही धातु तीन या चार गणों में हो या कहें उसकी रूपावली में अंतर हो,- तो इसका अर्थ है उस भाषा का उपयोग उतने भाषाई पृष्ठभूमियों से निकले हुए लोग कर रहे हैं। अर्थात संस्कृत में तीन चार भाषा परिवारों में गिने जाने वाले समुदायों का योगदान था। इसे हाल के दिनों में कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने लक्ष्य तो किया है परंतु भाषा विज्ञान की वर्तमान सीमाओं के कारण उसे सही संदर्भ नहीं दे पाए हैं। अन्य सभी सीमाओं के रहते हुए भी वैदिक भाषा भारतीय अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा थी,जबकि संस्कृत को केवल ब्राह्मणों की भाषा बनाकर रख दिया गया।

भाषाओं के अध्ययन का आधार बदलने के बाद ही हम उनका वैज्ञानिक अध्ययन कर सकते हैं ।मेरा कार्य उसी दिशा में, मेरी सीमाओं को देखते हुए एक दुस्साहसिक प्रयत्न है। आज के दिन तक ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन भाषाशास्त्र रहा है और जब तक विज्ञान होने का दावा करता है, परंतु भाषा वैज्ञानिकों के उसे अपनी गोष्ठी में स्थान देने के उपयुक्त नहीं माना। ऐसा करके उन्होंने गलत नहीं किया है परंतु उनकी इस निराशा को भी सही नहीं माना जा सकता कि द्विकालिक अध्ययन वैज्ञानिक नहीं हो सकता। जहां आरंभ से ही सिर के बल चला गया हो, इस नतीजे पर पहुंचना कि चलने का तरीका वैज्ञानिक नहीं है, गलत नहीं कहा जा सकता। एक बार पांव से चल कर देखें और तब पता चलेगा इसमें कितने अंतर्विरोध हैं और कितनी समस्याओं का वैज्ञानिक समाधान हो जाता है यह प्राकृतिक संगीत या सूनृता वाक् से मानवीय व्यवहार की भाषा की विकास यात्रा से ही संभव है। इसमें न तो धातु प्रत्यय उपसर्ग की पद्धति हमारी मदद कर सकती है और न ही पाश्चात्य विद्वानों का अध्ययन और उनकी उद्भावनाओं के आधार पर तैयार किया गया आद्य भारोपीय का धातुकोश। हम इनकी सीमाओं पर प्रमाणों के साथ कल विचार करेंगे।