Post – 2018-04-01

मेरी राजनीतिक समझ

एक मित्र ने मुझसे सवाल किया है कि मेरी राजनीतिक समझ क्या है? सवाल जरूरी भी है और किसी दबी आशंका से प्रेरित भी। लेखक और विचारक की राजनीति सत्ता की राजनीति नहीं हो सकती और जब राजनीति सत्ता के विकल्पों तक सिमट कर रह गई हो तो यह परिभाषित करना कठिन हो जाता है कि रचनाकार की राजनीति क्या हो सकती है? लेखक और विचार की राजनीति मानसिक दासता, मिथ्याचार, कुरूपता और हिंसा के विरोध की राजनीति है। उसका विरोध सत्ता और दासता के सभी रूपों से निरंतर बना रहता है, क्योंकि सत्ता पाने, बचाने, और अनन्तकाल तक अपने अधिकार में बनाए रखने के लिए असत्य, हिंसा, लांछना सभी का सहारा लिया जाता है और अपने विरोधी को मिटाने के लिए जिन घटिया तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है वह सत्ता की राजनीति की जरूरत हो सकती हैं, परंतु समाज की जरूरत नहीं हो सकती, जो ही रचनाकार और विचारक की दृष्टि में सर्वोपरि है और जिस तक पहुंचने, साधने और अपने सपनों के अनुसार गढ़ने के लिए वह कृतसंकल्प होता है।

परंतु यदि कोई कहे कि राजनीतिविमुखता साहित्यकार का चुनाव हो सकता है तो इससे बड़ा झूठ कुछ हो ही नहीं सकता। लेखक समाज से मुंह नहीं मोड़ सकता और सत्ता या सत्ता के लिए प्रयतनशील संगठनों की ओर ओर रुख करने पर समाज की ओर उसकी पीठ ही हो सकती है। रचनाकार और विचार की राजनीति किसी भी संस्था से जुड़ने की राजनीति नहीं हो सकती, उसके आतंक के विरुद्ध होने की राजनीति हो सकती है। धनपतियों और शासकों द्वारा समादृत साहित्यकार शक्तिशाली हो सकते हैं, परंतु प्रभावशाली नहीं हो सकते। इनकी निकटता में आने के अनुपात में ही वे जनता से दूर होते चले जाते हैं, इसलिए साहित्यकार की राजनीति साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को, आतंक या प्रलोभन से, अनुकूलित करने वालों के विरुद्ध खड़े होने की राजनीति है।

यह बात आतंक के सभी रूपों पर लागू होती है। शास्त्र और शासन दोनों का मूल शास् धातु ही है। विचार और साहित्य दोनों के आतंक के विरुद्ध सबसे कारगर हथियार है। परंतु ऐसा हथियार जिसकी चोट शरीर पर नहीं मन पर पड़ती है। यह कोई नई बात नहीं है। इसे बार बार दोहराया गया है। कबीर के शब्दों में इसकी चोट बाहर से दीखे नहीं, भीतर चकनाचूर। रचनाकार और विचारक चेतना के रूप में बदलाव लाकर वह क्रांति करता है जो सत्ता की राजनीति करने वाले धन और शस्त्र की सहायता से करते हैं। शस्त्र बल से वशीभूत अवसर निकालकर अपने को अधीन बनाने वाले के विरुद्ध विद्रोह कर सकता है, परंतु चेतना को रूपान्तरित करने वाले के विरुद्ध इसकी संभावना नहीं। उसकी पकड़ अधिक गहरी और स्थाई होती है। उसके प्रभाव में आया व्यक्ति तद्रूप होकर स्वयं भी सत्ता के समक्ष तन कर खड़ा हो सकता है । लेखक और विचारक को यह शक्ति पाठकों तक उसकी पहुंच के कारण मिलती है और उसी अनुपात में अन्यायी शास्त्र और शासन का सबसे तीखा विरोध दबावों के समक्ष अडिग होकर सोचने वाले और रचने वाले बुद्धिजीवी से रहता है और वह सबसे पहले इन को मिटाने या रास्ते से हटाने या फुसलाकर अपने काबू में करने का प्रयत्न करते हैं ।

राजनीतिक जागरूकता अंध विरोध नहीं बन सकती। यदि वह किसी आंदोलन के साथ रहे तो उसकी विचलनों और कमियों को झेलते हुए उसके साथ समझौता नहीं कर सकता, उसके विरुद्ध भी खड़ा होना होगा । स्वयं अपनी दुर्बलताओं के विरुद्ध भी खड़ा होना होगा।

इस मामले में मेरे आदर्श रचनाकार प्रेमचंद है। जिस आंदोलन का समर्थन करते हैं उसकी विचलनों पर उंगली उठाने वाले। इसी कारण उन्होंने कहा था रचनाकार अपने कर्म से ही प्रगतिशील होता है। ऐसा वह समाज से जुड़कर ही हो सकता है। किसी आंदोलन से जुड़कर नहीं।

मैं सक्रिय राजनीति से सचेत रुप में दूर रहा हूं, क्योंकि किसी संगठन और दल से जुड़ाव के बाद विचारक और रचनाकार अपनी स्वतंत्रता खो देता है। उसे अपने संगठन के किसी भी काम की आलोचना करने की अनुमति नहीं होती, कारण इससे संगठन को क्षति पहुंचती है, वह कमजोर होता। संगठन को मजबूत करते हुए लेखक स्वयं कमजोर होता चला जाता है अपनी वाणी की ताकत खो देता है। उसे न्याय अन्याय सभी का समर्थन करना पड़ता है, वह ढोंग और पाखंड से बचने की इच्छाशक्ति तक खो देता है। कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े हुए रचनाकारों की सबसे बड़ी विडंबना यही रही है। मार्क्सवादी होते हुए भी जिन्होंने कुछ काम कर लिया वे संगठन से अलग ही रहे और अक्सर संगठन की आलोचना की शिकार रहे है।

राजनीति के नाम पर मैं लोकतंत्रवादी हूं । लोकतंत्र की मर्यादाओं का सम्मान करता हूं लोकतांत्रिक प्रक्रिया को विफल करने वाले सभी हथकंडों का विरोध करता हूं, परंतु किसी राजनीति में सम्मिलित होकर नहीं । मुझे यह भ्रम है कि मैं हिन्दी का सबसे निर्भीक ऐक्टविस्ट लेखक हूं और मेरी सभी रचनाएं औपनिवेशिक मानसिकता और सत्ता के राजनीतिक से लेकर शास्त्रीय आतंक और जड़ता के विरुद्ध है।

मैं स्वयं अपने को मार्क्सवादी कहता हूं और मार्क्स की भी आलोचना करता हूं। मैंने अपने को कभी गांधीवादी नहीं कहा, परंतु मेरी भाषा, सोच और मनोबल पर जितना गांधी का प्रभाव है उतना किसी अन्य का नहीं। इसके बावजूद मैं गांधी की सीमाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकता न ही उन्हें अपने आचरण के लिए आदर्श मान सकता हूं।

राजनीति में ना होते हुए भी आपको सुलभ विकल्पों के बीच किसी का चुनाव करना पड़ता है और उसके साथ सहानुभूति रखनी होती है। मेरी यह सहानुभूति लंबे समय तक कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रति रही है और उनसे भी हटने का कारण यह कि वे सत्ता के लिए वर्जित तरीकों को भी उचित मानती रही हैं और साधन की पवित्रता में उनका कोई विश्वास नहीं। लेखक के लिए यह वांछनीय नहीं हो सकता।

संयोग कुछ ऐसा कि मेरे मित्रों में अधिकांश मार्क्सवादी सोच के ही लोग हैं परंतु हिंदू समाज के प्रति उनकी उपेक्षा, प्राचीन इतिहास की उनकी उपनिवेशवादी समझ, भारतीय मूल्यों और मान्यताओं का अंध विरोध मुझे कभी सही नहीं लगा। इसलिए स्वयं भले अपने को मार्क्सवादी कहूं उनके आकलन में, मित्रता के बावजूद, मैं मार्क्सवादी नहीं हो सकता। विडंबना यह है कि मैं अपने आकलन में उनको, पार्टी से लगाव के बावजूद, अच्छा मार्क्सवादी नहीं मानता – भाववादी मानता हूं। वे मुझे स्वयं हिंदुत्ववादी मानते हों तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टियों ने, स्वयं कांग्रेस ने और अपने को सेकुलर कहकर अलग पहचान रखने वाले दलों ने जिनके पास दूसरा कोई सिद्धांत नहीं है, सभी ने हिंदुत्व के प्रति जिस तरह का तिरस्कारपूर्ण रवैया अपना रखा है उसका मैं घोर विरोधी हूं ।

हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को कभी कभी लगता होगा कि मैं उनको सही मानता हूं, जब कि मैं उन्हें मात्र लीगी या क्रिस्तानी चेतना से ग्रस्त दलों से कम गलत मानता हूं। इतिहास पर मेरी पुस्तक आने के बाद उनके प्रयास से पूरे देश में दर्जनों सेमिनार हुए जिनमें चर्चा केवल इस बात तक सीमित रही कि भारत पर आर्यों का हमला नहीं हुआ था। यह मेरी दो खंडों सें प्रकाशित पुस्तक का मात्र एक अध्याय था। कई में मैने उत्साह से भाग लिया तब कहीं पता चला कि इन आयोजनों के पीछे कौन है और इतिहास में उनकी रुचि की सीमा क्या है। वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हिंदू समाज सदा से यहीं रहा है इसलिए उसका इस देश पर अधिक अधिकार है और दूसरे जो बाहर से आए हैं उनका कम। उनकी सोच में इतिहास का यह कटु सत्य तक शामिल नहीं कि नब्बे प्रतिशत मुसलमान उतने ही पुराने समय से इस देश के निवासी हैं और उनके धर्मान्तरण के लिए स्वयं वे नहीं, हम उत्तरदायी हैं।

मोदी संघ की पृष्ठभूमि के बावजूद लोकतंत्रवादी हैं और भाजपा ने अपने पूरे इतिहास में सत्ता और विपक्ष दोनों ही भूमिकाओं में लोकतांत्रिक मर्यादाओं का जितनी गरिमा से निर्वाह किया है उसके कारण उपलब्ध विकल्पों में उसे सबसे उपयुक्त पाता हं। यह मेरी समझ है, जरूरी नहीं कि वह दूसरों को भी सही लगे।