Post – 2018-03-31

संवाद, विवाद और विचार

एक मित्र ने यह पूछा, आप तो किसी भी समस्या पर निष्पक्ष होकर, पूरी गंभीरता से लिखते हैं, फिर भी जब कुछ लोग उल्टे-सीधे प्रश्न करते हैं तो आपको कैसा लगता है ? उनके प्रश्न का उत्तर तो मैंने यथास्थान दे दिया पर लगा इस पर दूसरों के लिए भी अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने की जरूरत है।

समाज की पहली शर्त है कि आप किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए बहस करें न कि अपनी विद्वत्ता या भाषा का कमाल या विदग्धता के प्रदर्शन के लिए। Facebook को मैं बहुत महत्वपूर्ण मंच मांगता हूं । ऐसा मंच इससे पहले न था, न इसकी मैंने कल्पना की थी । किसी बड़ी से बड़ी गोष्ठी में सभी को अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिलता। समय की सीमा होती है। पाठक भी ऊबने के बाद भी फंसे रहते हैं।

Facebook के साथ इन दोनों में से कोई सीमा नहीं होती। किसी भी समय पर, किसी भी विषय पर, एक साथ कितने भी लोग अपने विचार प्रकट कर सकते हैं और इस बात की चिंता किए बिना प्रकट कर सकते हैं कि उनके पाठक उसे ग्रहण करते हैं या नहीं। यदि विचारों में कोई सार है, यह समस्या सार्थक है तो, कुछ लोग पसंद करने वाले मिल ही जाते हैं.। परंतु Facebook की एक सीमा यह है इसमें श्रोता नहीं होते, मित्रों की एक मंडली होती है जिनकी संख्या रूचि और रुझान के अनुसार बढ़ती जाती है और यदि किन्ही कारणों से Facebook मंच पर मान्यताओं के शिविर बन जाते हैं तो सहमति और असहमति के दायरे पहले से ही निर्धारित हो जाते हैं, विचार अपना सारतत्व खो देता हैऔर मत विभाजन की स्थिति आ जाती है ।

मुझे लगता है इसके कारण इतने महत्वपूर्ण और दुर्लभ मंच का भी हम सही उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। लोग लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए चुटकुले बाजियां, हल्की टिप्पणियां, अनुचित आरोप, सचेत रूप में तथ्यों की लीपापोती करते रहते हैं जिससे उनका भले मनोरंजन होता हो, पाठकों का बहुत समय व्यर्थ चला जाता है . यदि इसे राष्ट्रीय बौद्धिक ऊर्जा के सदुपयोग या दुरुपयोग के रूप में देखा जाए तो दुरुपयोग का पलड़ा भारी रहेगा।

मुझे Facebook उन विषयों को उठाने और उन पर कुछ कहने का अवसर मिला है जिन के विषय में मैं सोचता था अपने जीवनकाल में उनको उठा भी पाऊंगा या नहीं। इतिहास, भाषा, समाज, संस्कृति, धर्म से जुड़े हुए सवालों के विषय में मुझे असंतोष रहा है कि इनकी बुनियादी जानकारी तक उन लोगों के पास नहीं है जो इस के अधिकारी विद्वान होने का दावा करते हैं। रुचि की विविधता और मेरी अपनी अपेक्षा के अनुसार तैयारी का जो स्तर होना चाहिए उस पर अपने को पूरा न पा कर पाकर लगातार दुविधा की स्थिति बनी रही। परंतु यह विश्वास अधिकारी कहे जाने वाले लोगों से मेरी समझ अधिक अच्छी है, मैं बिना किसी आशंका और दुविधा के अपने मंतव्य, मेरी ज्ञान सीमा में आने वाली जानकारी और प्रमाण और औचित्य के साथ रखने का साहस फेसबुक के कारण ही जुटा सका हूं और अपेक्षा करता हूं कि मेरी कमियां दूसरों की आलोचना के द्वारा दूर हों, जिससे मेरी मान्यता भले गलत हो जाए पर उस विषय पर सामाजिक समझ अवश्य पहले से ही अधिक अच्छी होती चले।

इस बुनियादी समझ के कारण मुझे असहमतियों की प्रतीक्षा रहती है। यदि किसी ने किसी कमी की ओर ध्यान दिलाया या कोई ऐसा पहलू विचारार्थ प्रस्तुत किया जो मुझसे छूट गया था तो मैं उसका उपकार मानता हूं और इसे स्वीकार भी करता हूं। ।समय-समय पर मैं इसके लिए आग्रह करता हूं । इसके दो कारण हैं पहला यह कि मेरी सोच अपने समय के दूसरे सभी विद्वानों से अलग है और यह उन सभी विषयों में है जिनमें मैं कभी कभी हस्तक्षेप करता हूं।

अकेला आदमी अपने को कितना भी सही समझे कुछ चीजों को छोड़ ही जाता है । वह किन्हीं न किन्हीं अंतर्विरोधों का शिकार हो सकता है और इसका उसे आभास तक नहीं हो सकता। यदि मेरी चिंता अपने को सही सिद्ध करने की होती तो संभव है मुझे ऐसी आलोचनाओं से असुविधा अवश्य होती ।

कभी-कभी मैं विनोद में कहता हूं, मैं कभी पराजित नहीं हो सकता। मुझे पराजित करने की कोशिश करने वाले स्वयं पराजित हो जाते हैं। जिसे जीतना न हो वह पराजित कैसे हो सकता है। मैं उसकी सही बातों को सम्मान के साथ स्वीकार कर लेता हूं। अपने पहले के विचार को उसके अनुसार सुधार या बदल लेता हूं।इसमें यदि जीत जैसी कोई वस्तु है तो आलोचना करने वाले के साथ मेरी अपनी भी जीत होती है। यह कोई नई सोच नहीं है। इसे मैंने आज से 50 साल पहले बहुत स्पष्ट रूप में महाभिषग में लिखा थाः

“पराजित तुम कभी नहीं हुए अश्वघोष! बंधु, तुमने जीवन में सर्वत्र विजय ही पाई और जिसे तुम पराजय कह रहे हो वही तो तुम्हारी परम विजय है, मित्र। सत्य के सन्मुख, धर्म के सन्मुख, विनय के सम्मुख विजय से बड़ी पराजय और समर्पण से बड़ी विजय क्या होगी? जहां समर्पण ही परम विजय है वहां समर्पित होकर तुम पराजित कैसे हो सकते हो ?”

इसे मैंने मात्र एक कृति में दर्ज नहीं किया था अपितु अपितु अपने जीवन में उतारा था । यह मेरी अपनी जीवनदृष्टि है इसलिए मैं विरोधी विचारों को अनुद्विग्न भाव से सुनता और जहां वे सार्थक लगें उन्हें अपनाता रहा हूँ। अतः विरोध से मुझे कभी खिन्नता नहीं हो सकती।

परंतु राजनीतिक प्रश्नों पर प्रबुद्ध लोगों, यहां तक कि समाज का मार्गदर्शक होने का दम भरने वालों की भी दलगत राजनीति इतनी स्पष्ट है कि वे व्यावहारिक राजनीति करने वालों के स्तर पर उतर आते हैं। उनमें कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो केवल असमत नहीं होते, बौखला जाते हैं । कभी कभी अशिष्ट हो जाते हैं। उनका हस्तक्षेप अरुचिकर तो लगता है परंतु उत्साहवर्धक भी लगता है। इसका अर्थ है, हमारे विचारों और तर्कों का विरोधियों के पास कोई उत्तर नहीं है। उत्तेजना इसका प्रमाण है न कि मात्र गर्हित उक्ति। इससे जितना क्षोभ होता है उससे अधिक यह आश्वस्ति कर लगता है। गाली वैचारिक दृष्टि से कमजोर और पराजित लोगों का अंतिम ब्रह्मास्त्र है।