टिप्पणी -2
भारतीय अतीत की कुछ बातें हमें विस्मित करती हैं। दूसरी सभ्यताओं की उपलब्धियां कम विस्मयकारी नहीं रही हैं परन्तु वे भव्यता, विराटता के कारण अधिक रही हैं जिसका दूसरा पक्ष रहा है सामान्य जनता का उसी क्रूरता से दोहन, उत्पीड़न, और असहायता। भारत में स्थिति ठीक इसके विपरीत दिखाई देती है। इसकी विस्मयकारी उपलब्धियां चिंतन, दर्शन, विज्ञान की सैद्धान्तिकी के क्षेत्र में और सकल संपदा के अधिक न्यायसंगत वितरण, तकनीक और कौशल के व्यापक उपयोगितावादी विनियोजन और दूसरी सभ्यताओं की तुलना में विस्मयकारी समृद्धि के होते हुए भी आर्थिक परिपक्वता में दिखाई देती है जिन सभी के पीछे इसकी विश्वदृष्टि और जीवनदृष्टि है।
इन पहलुओं पर मेरा ध्यान इसलिए गया कि मैंने देखा सैद्धांतिक विवेचन में उनकी उपलब्धियां आधुनिक युग से पहले दूसरों के लिए अकल्पनीय थीं। यहां तक कि कुछ शताब्दी पहले तक भी शेष जगत को अविश्वसनीय सी लगती थी और इसलिए इन पर ध्यान देने की बजाय, इनमें से कुछ
की उपेक्षा की जाती थी और शेष का उपहास किया जाता था। और उनकी पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त करने वाले और ऊंची हैसियत रखने वाले विद्वान इस अतिरंजना पर शर्म से पानी पानी हो जाते थे और उसी शिक्षा प्रणाली द्वारा और उन्हीं पुस्तकों के अध्ययन से ज्ञान अर्जित करने वाले हम सबके मन में ऐसे ही विचार पैदा होते रहे हैं।
उदाहरण के लिए गति की सापेक्षता का सिद्धांत जिसके अनुसार यदि किसी गतिमान पिंड पर स्थित या वाहन पर बैठे हुए हैं तो अचल वस्तु या पिंड गतिमान प्रतीत होगा और आप और आप का वाहन अचल।
खगोलीय स्तर पर पहुंचने पर इसके बहुत विस्मयकारी परिणाम होते हैं। यह अनायास नहीं है कि भारत ने वैदिक काल में ही यह जान लिया था कि धरती गोल है और साथ ही कई गतियों से गतिशील है । संभवतः ग्रहों और उपग्रहों दृष्टिगोचर होने के समय और सप्तर्षि की स्थिति के अध्ययन से वे इस परिणाम पर भी पहुंचे थे कि सभी पिंड स्थिर नहीं हैं, गतिशील है – विवर्तेते अहनी चक्रियेव ।
इसी तरह पदार्थ और काल के सूक्ष्मतम अंशों और विभागो तथा वृहत्तम संख्याओं को देख कर जिनका उपयोग ज्योतिर्विज्ञान में ही हो सकता था, लोग इसका उपहास करते थे। काल की सापेक्षता उस तरह के साधनों, यंत्रों और सुविधाओं का अभाव होते हुए जो आज उपलब्ध है कैसे इस नतीजे पर पहुंच गए कि काल सापेक्ष है। मनुष्य के एक दिन, देवों के (जिसका अर्थ है ज्योतिर्मान पिंडों के) एक दिन और ब्रह्मा के एक दिन में सापेक्षतः अकल्पनीय अंतर है। यह आइंस्टाइन से पहले किसी के चिंतन का हिस्सा नहीं रहा। परंतु आइंस्टाइन ने भी यह निष्कर्ष गणितीय आधार पर निकाला था न कि दूरदर्शी यंत्रों के माध्यम से ब्रह्मांड को देख कर।
मेरी जानकारी में किसी अन्य देश या समाज के चिंतकों ने पहले कभी नहीं सोचा था कि काल और दिक् के बीच सापेक्षिक संबंध है, न ही यह कि केवल हमारा जीवन ही नश्वर नहीं है, समस्त ब्रह्मांड महाकाल द्वारा अनुक्षण विनष्ट किया जा रहा है। प्रत्येक वस्तु यहां तक की ग्रह पिंड और सूर्य चंद्रमा भी विनाश की विभिन्न अवस्थाओं में हैं। यह अवधारणा महाकाल के दिव्य रूप में जितनी स्पष्ट है वह चकित करने वाली है।
यह सोच कहां से आई, कैसे पैदा हुई यह मेरी समझ में नहीं आता है । कारण यह है कि हमारे ज्ञान साहित्य का बहुत बड़ा अंश मनोविक्षिप्तों द्वारा नष्ट कर दिया गया। उस इतिहास को दोहराने की आवश्यकता नहीं। इसलिए नष्ट प्रासाद के मलबे में से हमें जहां-तहां से कुछ कीमती रत्न और चिन्दियां मिलती हैं, कुछ चौंकाने वाली सूचनाएं मिलती हैं, जिनको आगे पीछे से हम जोड़ नहीं पाते इसलिए आविश्वास करने को मजबूर हो जाते हैं ।
चीन को इस तरह के दुर्भाग्य से गुजारना नहीं पड़ा, इसलिए उसका जो कुछ था, उससे भी अधिक बढ़-चढ़कर वहां के कम्युनिस्ट इतिहासकार दावा करते रहे, जिसका परिणाम है साइंस ऐंड सिविलाइजेशन इन चाइना जिसके खंडों की सही संख्या तक का ज्ञान मुझे नहीं।
हमारे अधिकांश प्रतिभाशाली तरुण मार्क्सवाद के सुनहले आकर्षण से अपने को रोक नहीं सकते थे, परंतु भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी लीग के प्रभाव में आ जाने के कारण उपेक्षा और उपहास द्वारा इतिहास के इन साक्ष्यों को भी नष्ट करने के लिए कृतसंकल्प रही और उसका असर हम सभी पर है। हम परंपरा विमुख बुद्धिजीवी अपने अतीत को समझने की जगह उस इतिहास के धनात्मक पक्ष का भी उपहास करने लगे।
मुझे अपने विचारों को आपके समक्ष रखते हुए भी बहुत संकोच होता है, क्योंकि भाजपा में ब्राह्मणवाद प्रबल है और इससे जुड़े लोग देवता से लेकर इतिहास तक को भुनाने के लिए किसी सीमा तक पहुंचने के लिए आतुर रहते हैं । यह हमारा दायित्व है जैसे ब्राहमणवादी चंगुल से शिक्षा को बाहर लाने में सफल हुए उसी तरह अपने इतिहास को भी उनके चंगुल से बाहर रखते हुए उसकी सही समझ विकसित करें।