Post – 2018-03-26

आज की पोस्ट लिख सका तो शाम को लिखूंगा, परंतु इस समय मैं तीन छोटी छोटी टिप्पणियां तीन अलग अलग पोस्टों के माध्यम से करना चाहता हूंः पहली कल स्मृति पर अधिक भरोसा करने से हुई एक त्रुटि को लेकर। दूसरी भारतीय मनीषा की दिक-काल विषयक विस्मयकारी उपलब्धियों को लेकर और तीसरी भारत सरकार की शिक्षानीति को लेकर।

एक
कल की मेरी पोस्ट में स्वर्ग की मेरी जानकारी में सबसे प्राचीन हवाला ऋग्वेद के नवें मंडल के 114 वें सूक्त अाया है जब कि सूक्त की संख्या 113 है और ऋचाएं निम्न प्रकार हैंः
यत्र ज्योतिः अजस्रः यस्मिन् लोके स्वर् हितम्।
तस्मिन् मां धेहि पवमान अमृते लोके अक्षित, इन्द्राय इन्दो परिस्रव ।।
यत्र राजा वैवस्वतो यत्र आरोधनं दिवः।
यत्र अमूः यह्वतीः आपः तत्र मां अमृतं कृधि …..।।
यत्र अनुकामं चरणं त्रिनाके त्रिदिवे दिवः।
लोका यत्र ज्योतिष्मन्तः तत्र मां अमृतं कृधि …..।।
यत्र कामा निकामाश्च यत्र ब्रध्नस्य विष्टपः।
स्वधाः च यत्र तृप्तिः च तत्र मां अमृतं कृधि …..।।
यत्र आनन्दाः च मोदाः च मुदः प्रमुद आसते।
कामस्य यत्राप्ताः कामाः तत्र मां अमृतं कृधि, इन्द्राय इन्दो परिस्रव ।। 9.113.7-11

ऋग्वेद का जो भी अनुवाद आपको सुलभ हो उससे इन ऋचाओं का अर्थ समझें और पश्चिमी जगत और स्वयं अपनी बाद के कालों की स्वर्ग की अवधारणा से इसकी तुलना करें और सभ्यता के चिरत्र को समझने का प्रयत्न करें।