Post – 2018-03-23

हमारी भाषा (९)
उल्टा-सीधा एक समान

फिकरा तो पहेलियों से संबन्धित है । बच्चे आज भी बुझाते होंगे। रबर, नमन जैसे शब्द और १२१ या इसी से मिलती जुलती संख्याएं बतानी होतीं। मनोरजन होता था।

भाषा में यदि एक ही शब्द के सीधे उल्टे दुहरे अर्थ हों तो मनोरंजन नहीं होता। उलझन पैदा होती हैं । बीज वपन में वपन का अर्थ बोना हो और केश वपन में काटना हो, वप्ता के दो आशय हो जायं, बोने वाला और काटने वाला तो उलझन तो पैदा होगी। पूत का अर्थ पवित्र हो और साथ ही सड़ा हुआ भी हो और फिर उसी का अर्थ पुत्र भी हो, तो सर पीटने की नौबत तो आएगी ही। किसी एक मामले में ऐसा हो तो क्षम्य भी है, यदि ऐसे शब्दों की संख्या बहुत अधिक हो तो इसके पीछे कोई विवशता तो होगी ही कि हम इस सीमा को लांघ न पाएं और इस उलझन से बचने केलिए उस शब्द का एक ही आशय में व्यवहार करने की आदत डाल लें और यथासंभव दूसरे अर्थ में प्रयेग बन्द कर दें, फिर भी उसकी छाया बनी रह जाय।

इस बाध्यता से भाषाविज्ञान की एक बहुत बड़ी समस्या का समाधान होता है। यह है वाक् और अर्थ की नैसर्गिक अभिन्नता जिसे कालिदास ने वागर्थ की संपृक्तता कहा है। इसका बोध वैदिक काल में बहुत स्पष्ट था, कवियों में बना रहा, पर वैयाकरणों में यदि लुप्त नहीं तो इतना दबा रह जाता है कि हैरानी होती है। कतिपय दूसरी बातें भी हैं जिनसे लगता है कि संस्कृत के विद्वान लोक से कट गए थे, जब कि काव्यधारा का ऐसा विलगाव गुप्तकाल के बाद ही हुआ, जब कि लोक उस परंपरा से जुड़ा रहा जिसका प्रमाण तुलसी हैं दो कालिादस से भी अधिक मार्मिकता के उसी बात को दुहराते हैंः गिरा अन्ल जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न। पश्चिमी परंपरा में उसकी पुराणकथा के दबाव में यह माना जाता रहा कि जिस चीज को आदम ने जो नाम दे दिया वही उसकी संज्ञा बन गई, अर्थात् भाषा मनुष्य की मरजी से रची गई है, मनुष्य वस्तुओं, क्रियाओं और विशेषताओं के लिए शब्द विशेष का प्रयोग करने में पूरी तरह स्वतंत्र था ।

यह लंगड़ी सोच थी। इससे कई तरह के प्रश्न खड़े होते थे जिनकी अनदेखी कर दी गई। उदाहरण के लिए (१) नयी संज्ञाओं के लिए सभी भाषाओं में स्व-व्य (CVC) के कुछ लघु विन्यास उपलब्ध थे, उनका उपयोग करने की जगह लम्बे और उच्चारण में क्लिष्ट विन्यासों का चयन क्यों किया गया ? इसके विस्तार में न जाकर हम इतना ही याद दिलाना चाहेंगे कि किसी भी अन्य भाषा के एकाक्षरी या द्वयक्षरी (अल, आल, इल, किल जैसे)शब्दों को जे उसकी प्रकृति से भी मेल खाते हों सामने रख कर देखें कि मनचाहा चुनाव करने की स्थिति में उनका उपयोग संभव थ । (२) भिन्न आशयों और व्यंजनाओं के लिए पृथक शब्दों का चयन क्यों नहीं किया गया। किसी वस्तु के लिए एक संज्ञा पर्याप्त थी, उसके लिए एकाधिक पर्यायों का क्या आवश्यकता थी? (३) समनादी (homophonic) शब्दों का सहारा क्यों लेना पड़ा ? आदि। इनके समाधान भाषा को पूर्णत: मानव रचित मानने कि स्थिति में तलाशना जरूरी हो जाता है पर इसे छेड़ना भानमती का पिटारा खोलने जैसा था जिससे तुलनात्मक भाषाविज्ञान का चरित्र ही बदल जाता और सारे नतीजे उलट जाते।

ऋग्वेद का महत्व यह है कि इसमें ऐसे शब्दों की संख्या काफी बड़ी है जिनमें नैसर्गिक आशय बना रह गया है जिसका सामना होने पर हम चकित रह जाते हैं। अन्न= जल, और अनाज; अन्ध= जल, रस, सोम रस, और दृष्टिहीन; को = जल, ईश्वर, कौन; घृत= जल और घी; अमृत= जल, अमरता दायक; पीयूष =जल, अमृत, कोई पेय; मधु= जल, सोमरस, शहद; घर्म = पानी, पसीना, ऊष्ण, धूप; तेल = पानी(इस बात का कोई संकेत नहीं है कि तिलहनों की खेती होने लगी थी जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता था कि वे तेल का सेवन करते थे। पर बाद में तेल के रूढ़ अर्थ से हम परिचित हैं); तिल्विल = नम या सिंचित; रेत =जल, मूत्र,और रेतस्; विष = जल और विष; धन= जल और धन; पुरीष =जल और मल; अर्क =जल और प्रकाश। मूत का प्रयोग नहीं हुआ है, पर जीमूत =जीवन दायक जल में स्पष्ट कि इसका एक अर्थ जल था। संख्या और बढ़ाई जा सकती है।

पाश्चात्य अनुवादकों ने जिन्होंने सायण से मदद भी ली थी और जलर्थक प्रयोगों से अवगत थे अर्थ का अनर्थ करने के लिए जान बूझ कर बाद के रूढ़ अर्थ को ही लिया है ताकि आशय भोंड़ा लगे। हम उनके अनुवाद और अनर्थ पर बात नहीं कर रहे हैं अपितु इस बात पर कि जल की ध्वनियों से भाषा की उत्पत्ति हुई।