आसमान की तलाश
मेरे तीन आसमान हैं, एक जिसमें सूरज चांद चक्कर लगाते हैं, दो मेरी लालसाओं के जिन्हें पूरा करने की कोशिश में मैं कुछ दूर चल कर जाने कैसे भटक जाता हूं। इनमें से एक है मेरी अपनी कहानी, वह कौन सी चीज है जो मुझे किसी से भी पूरी तरह सहमत नहीं होने देती, स्वयं अपने आप से भी। लगता है सब कुछ अधूरा है, जो लिखता हूं वह भी, जो लिखा वह भी, अौर यह अधूरापन ही उसे सार्थक बनाता है। अपने बारे में लिखना अपने निजी को निर्व्याज सार्वजनिक बनाना है। यह कष्टकर काम है और इतना कठिन कि लिखना भी चाहता हूं और इस ताक में भी रहता हूं कि कोई बहाना मिले और छूट भागूं।
पर मैंने दो दिन पहले जब कहा था निगाह फिर से आसमान पर है तो यह आसमान भारोपीय भाषा का आसमान था। इसे समझने के लिए मैंने अब तक जितने प्रयत्न किए, सभी अधूरे रह गए। कुछ कमियां मेरी अपनी हैं, मैं प्रशिक्षित भाषाविज्ञानी नहीं हूं।
मैं जिस भाषाविज्ञान की बात कर रहा हूं वह भाषाविज्ञान है भी नहीं। यदि होता तो मेरे लिए इसमें विधिवत प्रशिक्षित होना अपरिहार्य होता। इसके लिए पहले से भाषाशास्त्र या फिलालोजी का प्रयोग होता रहा है। केवल कुछसमय के लिए इसे ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषाविज्ञान कहाने का गौरव मिला, और फिर यह पता चला कि ऐतिहासिक और तुलनात्मक होने की अपनी विशेषता के कारण ही यह विज्ञान नहीं हो सकता।
परन्तु एक दुखद सचाई यह कि यह न ऐतिहासिक बन पाया न तुलनातमक। दोनों मामलों में इतनी धौंस-पट्टी और इतनी ढकोसलेबाजी से काम लिया गया कि यह जिस सीमित भूमिका का निर्वाह कर सकता था उसे भी पूरा नहीं कर पाया। गलतियां सभी क्षेत्रों में होती हैं और यहां भी होतीं तो कोई हानि न होती। इसमें पहली नजर में ही गलत अटकलबाजियों को सही ठहराने के लिए पश्चिमी विद्वान आकाश-पाताल एक करते रहे। इसलिए वे उन बुनियादी गलतियों को भी सही नहीं कर पाए जिनको उन्होंने सवयं भांप लिया था। इसके कारण
भारतीय इतिहास और भाषाविज्ञान में असंभव को संभव और संभव को दरकिनार करने के लिए कुतर्क जुटाते हुए यह समझाया जाता रहा कि ऐसा कहीं और तो संभव नहीं पर भारत में यही नियम रहा है। सबसे बड़ी बात यह कि तुलनात्मक भाषाविज्ञान की अकाट्य बना दी गई स्थापनाएं उनकी थीं जो अपने साहसिक दावों को देखते हुए न तो सुशिक्षित थे न प्रशिक्षित। ऐसी दशा में मेरा प्रशिक्षित न होना कोई दोष नहीं रह जाता।
मेरी समस्या प्रशिक्षण से और बढ़ती है क्योंकि तुलनात्मक अध्ययन के लिए जो विधि विकसित की गई वह लंगड़ी और औंधी है। इसमें एक पूर्ण विकसित परिनिष्ठित भाषा को आदि भाषा या उसके सर्वाधिक निकट मान कर अध्ययन आरंभ किया गया था और यह जिद आज तक पालनी होती है अन्यथा सारे किए कराए काम कौड़ी मोल के भी न रह जाएं।
इन कठिनाइयों के अतिरिक्त फेसबुक पर इस विषय की चर्चा की अपनी सीमाएं हैं। हम जानते हैं गणित और भाषा ये दो चीजें ऐसी है जिनके बिना ज्ञान संभव नहीं है इसके बाद भी किसी व्यक्ति को सबसे कम दिलचस्पी गणित और नई भाषा सीखने, भाषा का इतिहास जानने में होती है । ये दोनों जितने आसान हैं उतने ही कठिन। अपनी व्याप्ति में ये दोनों। समस्त ब्रह्मांड को अपने भीतर समेट लेते हैं इसलिए इनका गहन ज्ञान उतना ही दुष्कर भी है और जिनकी इनमें गति है उनके लिए अक्षय आनन्द के स्रोत।
सबसे पहले मैं भाषा की उत्पत्ति और विकास प्रक्रिया को समझना चाहता हूं । भाषा क्या है? यदि इस प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में देना हो तो कहना होगा की भाषा श्रुत सार्थक ध्वनियों का पुनरुत्पादन है। मोटे तौर पर यह शर्त सभी जीवों जंतुओं की बोली पर लागू होती है और इसीलिए प्राचीन भारतीयभाषा चिंतकों ने पशु-पक्ी आदि की भाषा की कल्पना की थी और मानुषी वाणी को उसी क्रम मेंअगला विकास माना था।
हम जानते हैं कि मनुष्य जो कुछ सुनता है उसी की अनुकृति करता है। गूंगे बच्चे को कुछ सुनाई नहीं देता । कमी उसके उच्चारण तंत्र में नहीं होती, उसकी श्रवणशक्ति में होती है। वह सुन नहीं पाता इसलिए बोल नहीं पाता।
बहुत प्राचीन काल से अब तक बहुत सारे लोगों ने यह समझने की कोशिश की शिशु को यदि कोई भाषा सुनने सीखने को न मिले तो वह कौन सी भाषा बोलता है । असल में उनकी जिज्ञासा यह थी कि दुनिया की सबसे पहली भाषा कौन सी है। उनकी रुचि भाषा से अधिक अपने धर्म की श्रेष्ठता का प्रमाण ढूंढ़ने में थी। ईसाई बहुत बाद मानते थे कि आदम ने जिस भाषा में चीजों को नाम दिया होगा वह हिब्रू थी।
हमारे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा कौन सी है बल्कि यह है की मनुष्य ने सार्थक भाषा का आविष्कार कैसे किया ? दूसरे जीव जंतुओं की एक सीमित संकेत प्रणाली है जो दृश्य सीमा में बहुत सही काम करती है। जो दूर है, अनुपस्थित है, उसे किस तरह व्यक्त किया जाए इसके लिए उनके पास कोई संकेत प्रणाली न थी।
हम कहें कि मनुष्य की भाषा अनुपस्थित का साक्षात्कार तो बहुत गलत नहीं होगा । जो दृश्य है उसके लिए भाषा की आवश्यकता नहीं थी। हम संकेतों से अभी तक काम लेते हैं और कई दृष्टियों से यह भाषा की तुलना में अधिक प्रभावशाली होती है और कम समय में कार्य करने में सक्षम होती हैं । उदाहरण के लिए ट्रैफिक संकेत को ले सकते हैं । वाचिक भाषा के साथ जितनी अनिश्चितता बनी रहती है उतनी अनिश्चितता संकेत प्रणालियों के साथ नहीं देखने में आती है। एक ही शब्द उच्चारण की भिन्नता के हिसाब इतने तरह के आशय वहन कर सकता है उसके विधि और निषेध दोनों उसी में समाहित हो जाएं ।