नमो वेधाय शूद्राय सहस्र क्रतवे नम:
भारतीय समाजशास्त्र का खोखलापन इस बात से ही उजागर है कि भारतीयों सहित दुनिया के भारतविदों को शूद्र शब्द का मतलब तक पता नहीं, इसलिए इससे परिचित कराना जरूरी है। शूद्र का अर्थ होता है:
१. जो ब्राहमण, क्षत्रिय या वैश्य नहीं है, वह शूद्र है। कलकत्ता हाइकोर्ट ने एक मुकदमे में माना कि कायस्थ, जो हिन्दू समाज के सबसे शिक्षित (पुरुषों की साक्षरता १००%, महिलाएं भी सर्वाधिक शिक्षित, जिस कसौटी पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य कोई बराबरी पर नहीं आएगा), सबसे खुले दिमाग और सेकुलर समझ के होते हुए भी इसलिए शूद्र हैं क्योंकि वे इन तीन में नहीं आते। इसी कसौटी पर चूकने के कारण दक्षिण के वे राजा भी शूद्र थे जिन्होंने उत्तर भारत से ब्राह्मणों को अपने यहां आदर सहित बुलाया था और जो मानते थे कि जैसा कि उनके राजपंडित बताते हैं, वे सचमुच शूद्र हैं। जब तक ये उनके आश्रित थे इस बात से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वे शूद्र थे या क्षत्रिय, थे तो दोनों स्थितियों में ब्राह्मणों से नीचे ही।
२. प्राचीन काल में जब जमीन का लेखा रखना आरंभ हुआ तो जिन शिक्षित व्यक्तियों को लेखपाल (लिपिक) के पद पर नियुक्त किया गया वे उन्हीं वर्णों के हो सकते थे जिनको शिक्षा का अधिकार था। उच्च सार्वजनिक पदों पर नियुक्त (कार्यस्थ) किया जाता रहा वे भी इन्हीं वर्णों के होसकते थे। एक बार प्रशासनिक पदों पर नियुक्त होने के बाद उनका शादी व्याह भी अपने ही दायरे में होने लगा। विवाह अपने वर्ण में ही करना था इसलिए एक वर्ण के सभी का लगता है समान उपनाम हो गया और वे उसी में रिश्ते नाते करते रहे हैं। आज वे स्वयं भी भूल चुके हैं कि किस उपनाम के कायस्थ मूलत:किस वर्ण के हैं, और संभवत: अपने ही उपनाम में रिश्ते नाते के पीछे यह कारण हो सकता है, इसका भी उन्हें ध्यान न हो। हमारे प्रयोजन के लिए शूद्र का अर्थ हुआ राजकाज से जुड़ा अमला वर्ग।
३. आविष्कारक ((पहिया, रथ, गाड़ी, नौका, हल आदि का आविष्कार शूद्रों ने किया), वास्तुकार या आर्किटेक्ट (स्थपति या थवई), धातुविद या मेटलर्जिस्ट और टूलमेकर (लोहार, सोनार), भूविज्ञानी, चिकित्सक और शल्यचिकित्सक, पशुचिकित्सक, नर्तक, नाटककार (नट), वनस्पतिविज्ञानी, जीवविज्ञानी, यान्रिक या इजीनियर, तकनीशियन, धातुर्कमी (ठठेरा, कंसल), तक्षणकर्मी (जिसमें नौनिर्माण लेकर काष्ठशिल्प कई कोटियां आती हैं) मूर्तिकार, भांडनिर्माता, नौचालक, वासोवाय या बुनकर, रंगसाज, तेली,चर्मकार, धरिकार, पथरी या पत्थर के पात्र बनाने वाले आदि विशेषज्ञता के सभी क्षेत्रों के लोग।
४. पशुपालन से जुड़े जन गोपाल, महिपाल, अजपाल, अविपाल।
५. शारीरिक श्रम या स्वल्प निपुणता के काम भारिक या कहांर, नाई, बारी/बरेल ( पत्ते के पात्र बनाने वाले), रजक धोबी और कृषि मजदूर, आदि ।
५. पक्षियों का शिकार, मृत पशुओं के निपटान, और वधिक (मृत्युदंड को क्रियान्वित करने वाले ), मांसविक्रयी, मदिरा और ताडी के कारोबारी, जिनको अस्पृश्य माना जाता था। बुद्धधर्म के प्रभाव के बाद इनके सामाजिक स्तर में और अधिक गिरावट आई। इनके साथ बहुत क्रूरता का व्यवहार किया जाता रहा। अकेला इन्हें दलित कहा जा सकता है।
शूद्र दुनिया को चलाते रहे हैं, जब कि संपत्ति पर अधिकार करके उनको काम पर लगाने वाले उनका ही उपयोग करके, संपदा के स्रोतों पर अपना अधकार भी बनाए रखते रहे हैं, और स्वयं उनका भी नियन्त्रण करते रहे हैं, क्योंकि उनमें पहल का अभाव रहा है जिसके होते ही वे स्वयं कोई न कोई नया उपक्रम करके संपत्तिवाले हो सकते थे। कहें इसके बल पर वे संपदा के स्रोतों और उत्पादन के साधनों (जिसमें यन्त्र से दोनों के स्वामी बने रहे हैं। अपने इस अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए वे नैतिकता, न्यायव्यवस्था, दंडविधान, सैन्यबल, धार्मिक विश्वास सभी का प्रयोग करते रहे है, जिससे मुक्त वे लोग उस अनुपात में रहे हैं जिस अनुपात में अपनी जीविका के लिए उन पर निर्भर नहीं रहे है।
संपत्ति संग्रह करने वालों को, संपत्ति पर नियन्त्रण करने वालों को हम इसके लिए दोष नहीं दे सकते, क्योंकि यह मानव स्वभाव है। निजी संपत्ति के विकास के बाद से व्यक्ति अपने परिवार में भी संपत्ति पर नियन्त्रण अपने हाथ में रखने के प्रयत्न में रहता है, और मनोवैज्ञानिक रूप से पूरे परिवार पर उसका आदेश चलता है जिस के नियंत्रण में संपदा होती है या जो कमाऊ होता है। पितृभक्ति की आचारसंहिता का एक पक्ष संपत्ति पर मरने के समय तक पिता का अधिकार होता था (ऋ. १.११६.२)/ है। हूणों और तातारों में जिनकी जीविका लूट पाट पर चलती थी पिता (बूढ़ों) से अधिक आदर और अधिकार युवा पुत्र का होता है और उस मूल्यव्यवस्था में पले होने के कारण मुगलों में जवान होते ही पुत्र सत्ता हथियाने के लिए विद्रोह पर उतारू हो जाते थे।
समानता के अधिकार की अवधारणा नई है, किंचित अप्राकृतिक है, क्योंकि पाशविक अवस्था से आगे इसका निर्वाह आज तक किसी समाज में नहीं हुआ और उसमें भी समाज पर भार बन चुका व्यक्ति स्वत: चुपचाप अलग हो जाया करता था। परन्तु कृत्रिम या मानव निर्मित होने के कारण यह मानव सभ्यता की उपलब्धि है। सभ्यता प्रकृति का अनुगमन नहीं उसके नियमों को जानकर, उस पर विजय है। पर इसकी सम्यक चेतना विकसित किए बिना बल प्रयोग से इसे व्यवहार्य नहीं बनाया जा सकता । जाहिर है बल प्रयोग से दूसरों को समानता के लिए बाध्य करने वाला दूसरों के समान नहीं हो सकता। वह अधिक क्रूर भी हो सकता है। सत्ता पर अधिकार करके साम्यवाद के लिए प्रयत्नशील व्यवस्थाओं में आरंभिक त्वरा के बाद जीवनयापन की अल्पतम सुविधाओं की सुनिश्चितता के कारण पहल का अभाव और अपेक्षित परिणाम के लिए बढ़ता दबाव इनकी आन्तरिक विफलता का प्रधान कारण रहा है।
परन्तु यहां हम अपने विषय से कुछ भटक गए हैं, या जिस चरण पर चर्चा अधूरी रह गई थी उससे कुछ आगे बढ़ आए हैं।
हमें यह स्वीकार करना होगा (१) कि ‘शूद्रों’ या संपदा से वंचित पर समस्त कार्यभार संभालने वालों का अपने ही समाज की व्यवस्था पर अधिकार नहीं रहा है, और जिनके हाथ में यह व्यवस्था रही है उन्होंने इनको आर्थिक दृष्टि से घाटे में रखा और सामाजिक दृष्टि से हेय बना कर रखा और इसे लेकर उनके मन में असन्तोष रहा है जो वाणिज्यिक अग्रता के दौर में यदा कदा विद्रोह बन कर उभरा, यद्पि उसे दबा दिया गया। ऋग्वेद में त्वष्टा के पुत्र, ज्ञान में चतुरानन ब्रह्मा से कुछ ही नीचे, त्रिशीर्ष और षडक्ष विश्वरूपा के वध को और समुद्रमंथन के लाभ में उचित भाग की मांग के प्रतीकांकन की तरह मैं ऐसे ही विद्रोह से जोड़ कर देखता हूं और त्वष्टा द्वारा इन्द्र से बदला लेने के लिए विषाक्त सोम पिला कर विषूची का शिकार बनाने और दूसरी मे राहु केतु चन्द्र और सूर्य ग्रास में भी बदले की कार्रवाई के प्रूतीकांकन के रूप में देखा जा सकता है।
पर यह वैदिक काल में इसलिए संभव था कि वैदिक कारीगर बाजार के लिए माल बनाता था (जरतीभि: ओषधीभि: पर्णेभि: शकुनानां। कार्मारो अशमभि द्युभि: हिरण्यवन्तं इच्छति )और इसलिए उसकी गुणवत्ता, प्रयोग, उत्पादन की मात्रा सभी का व्यापार पर प्रभाव पड़ता था और इसलिए जैसा ऋभुओं और अश्विनीकुमारों के प्रति व्यवहार और सोमपान के उनके अधिकार से प्रकट है, उनका आदर भी था और आय भी अधिक थी परन्तु उस प्राकृतिक प्रकोप के बाद जो कई शताब्दियों तक चला, और जिसमें भारत की प्रथम नगर सभ्यता के अधिकाश लक्षण प्रभावित हुए, गुणवत्ता नष्ट हो गई, सामाजिक उथल-पुथल मच गई, कृषि एक मात्र संबल रह गई और मौसम की अनिश्चितता के कारण उसका भी बुरा हाल था, शूद्रों या उत्पादकों की आर्थिक और सामाजिक अवस्था में भारी गिरावट आई जिसे संभलने में हजार एक साल का समय लग गया फिर भी पुराने दिन नहीं लौटे।
इस दौर में सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि इस अराजक सी स्थिति में उत्पादन का पुराना प्रबन्ध प्रभावित हुआ। भू संपदा पर क्षत्रियों ने अधिकार कर लिया, वाणिज्य देसी सीमा में सिमट गया। समुद्र यात्रा से घबराहट का हाल यह कि उस पर रोक सी लग गई, स्थल मार्ग से भी अपने सुरक्षित दायरे से बाहर जाने पर लोगों का धर्म नष्ट होने लगा। इस दहशत भरी कूपमंडूकता से अर्थव्यवस्था से लेकर सामाजिक संबंध तक सभी प्रभावित हुए । यह भारतीय सामन्ती व्यवस्था का दौर है जिससे मुक्ति पूंजीवादी विकास ही दे सकता है जो आज भी प्राथमिक स्तर का है इसलिए सामन्ती मूल्यों और बाजार सृजित उपभोक्तावादी घोल के दौर से गुजरते हुए हम कोई काम सलीके से नहीं कर पा रहे हैं। सोचना तक।
परन्तु हम जिस ऐतिहासिक दौर की बात कर आए हैं उसमें शूद्रों की दशा कभी उतनी बुरी नहीं थी जितनी कंपनी शासन के बाद हुई । शूद्रों के पास जो भी रोजगार थे वे बल प्रयोग से बन्द कर दिए गए। बेकारी के दिन और कृषि पर बढ़ती निर्भरता ने उनकी आर्थिक स्थिति और सामाजिक दशा को और भी दयनीय बनाया, अन्यथा दूसरों के लिए कुंए और पोखरे खोदने वाला अपने पानी का अलग इंतजाम तो कर ही सकता था। ऐसी शिकायतें कवियों से लेकर उपदेशकों तक किसी के माध्यम से मध्यकाल तक सुनने में नहीं आती, पर कंपनी के कुचक्र के बाद जीने मरने के बीच के बफरलैंड में जिन्दगी गुजारनेवालों को अपने लिए श्रम करने के अवसर और साहस से भी वंचित कर दिया था। इसका एक नया पहलू मध्यकाल में शहरीकरण के नए खाके के अस्तित्व में आने के बाद भंगी प्रथा के कारण आया जो पहले मृत जानवरों को बस्ती से हटाने के सीमित और सह्य कारोबार तक सिमटा हुआ था।
अब हम इस समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में रख कर समझ सकते हैं। गाधी का ग्रामोद्योग, पेशीय बल का लघु यन्त्रों को चलाने और दक्षता का आधार रखने की योजना हमारी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का सबसे उत्तम समाधान था। हम उस अवसर को खो चुके हैं। दूसरा पर अधूरा समाधान है औद्योगिक क्रान्ति जो पूंजीवाद की जकड़ में होने के कारण दुर्गति का कारण भी बन सकती है, पर इसकी विफलता और इससे पैदा हुई तकनीकी दक्षता के योग से गांधीवादी साम्यवाद इसका सही समाधान होगा यह मेरा विश्वास है क्योंकि सामन्ती सोच के भीतर सामाजिक समता का शोर तो मचाया जा सकता है पर यह सुविधाओं के लिए हंगामे और घटिया राजनीति के लिए नारेबाजी से आगे इसलिए नहीं बढ़ सकता कि अपने को दलित बनाए रखना मुखर लोगों को इससे मुक्ति से अधिक लाभकर प्रतीत हो सकता है।