Post – 2018-03-02

#भारतीय #समाजव्यवस्था और इतिहास

पुरुष सूक्त पर कोई चर्चा तब तक अधूरी है जब तक हम दो सवालों का सामना न करें। पहला क्या यह न्यायोचित थी? दूसरा, क्या यह न्यायोचित है? इन सवालों से जुड़े दो सवाल और है। क्या जो न्यायोचित था, यदि था तो, क्या उसे आज के जीवन मूल्यों के अनुसार न्यायोचित कहा जा सकता है? दूसरा आज जो अन्यायपरक लगता है उससे मुक्ति का कोई उपाय है? एक अन्य सवाल इसी से पैदा होता है। क्या आज जो स्थिति है वैसी ही सदैव रही है, और इतिहास की समझ कितनी दूर तक इसका निराकरण करने में हमारा सहायक हो सकती है ?

यूं तो सत्य और न्याय अपेक्षाएं हैं जिनकी कसौटी पर कोई पूरा नहीं उतरता । इसका सबसे विस्मयकारी उदाहरण न्याय के विधान और न्याय की संस्थाएं हैं । इनमें नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। साधन संपन्न लोग बहुत कम दंडित होते हैं, क्योंकि वे प्रभावशाली वकीलों के माध्यम से न्याय प्रक्रिया को प्रभावित कर लेते हैं, जबकि अपनी आबादीकी तुलना में सबसे अधिक और सबसे बड़े पैमाने पर अपराध वे ही करते हैं। अत: आज भी दंड भोगने वाले साधनहीन लोगों का अनुपात उनकी तुलनात्क जनसंख्या से कई गुना अधिक होती है। जहां न्यायाधीश अप्रभावित रहता और स्वविवेक से नियमों का सम्मान करते हुए फैसले करता हैं वहां वह कहता है विधि के अनुसार निर्णय कर रहा है, न्याय नहीं कर रहा है। यदि विधि व्यवस्था में ही गड़बड़ है, वह निजी संपत्ति रखने का भी अधिकार देती, कई तरह की शिक्षाप्रणालियों की बात करती है, अल्पजनलभ्य विदेशी भाषा को वरीयता देती है, और साथ ही अवसर की समानता की बात भी करती है, एक ओर धर्म, जाति और लिंग निरपेक्ष समानता का सपना दिखाती है दूसरी ओर, जिन भी बाध्यताओं के कारण हो धर्म और जाति आधारित रियायतें देते हुए ऐसी व्यवस्थाओं को ढकोसला बना देती है, उसमें किसी को अपना न्यायेचित अधिकार शासन, व्ययवस्था, विधि और विधान से मिल सकता है?

लोकतन्त्र गणतन्त्र के बाद अकेली ऐसी व्यवस्था है जिसमें शासित ही शासक हो सकता है पर लोकतांत्रिक गणतन्त्र (democratic republic) फरेब है। गणतन्त्र गणव्यवस्था के बाहर, और बड़े पैमाने पर और बहुमिश्र समाज में संभव ही नही, अत: लोकतंत्र अब तक की शासन पद्धतियों में सबसे अच्छी व्यवस्था है, पर इसमें जितने तरह की और जितनी भ्रष्टता पाई जाती है वह किसी अन्य तंत्रमें संभव नहीं।

हम जिस बात पर बल देना चाहते हैं वह यह कि दुनिया में कभी कोई ऐसी व्यवस्था हुई ही नहीं जिसे न्यायोचित कह सकें। अन्तर केवल यह है कि एक व्यवस्था न्यायोचित होने का दावा करती है, न्याय भले न दे पाए, पर अपने इस दावे के कारण हमें अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का अवसर देती है और दूसरी न्याय की मांग को असंभव बना देती है। कहें एक तर्क और औचित्य पर आधारित रही है और तर्कसंगति के कारण विज्ञानपूर्व अवस्थाओं में भी वैज्ञानिक कही जा सकती है, और दूसरी वे जो शक्ति पर आधारित रही हैं इसलिए जिनको शक्ति से ही बदला जा सकता था या शक्ति के अनुपात में ही बदला या झुकाया जा सकता था। इस दृष्टि से विचार करने पर भारतीय समाज कहां आता है?

एक दूसरी बात विज्ञान के दो चरण हैं । एक जो डार्विन से पहले का पूरा इतिहास है जिसमें आइजैक न्यूटन तक आते है। इसमें भौतिक क्रियाकलाप शुद्ध भौतिक नियमों से परिचालित होता था और मोटे तौर पर यह दूसरे जानवरों पर भी लागू होता था, परन्तु मानवीय क्रियाव्यापार में लोकोत्तर शक्ति का हस्तक्षेप था जो सर्वोपरि शासक माना जाता था और राजा से रंक तक उसके अधीन थे और उससे डरते और एक सीमा में रहते थे।

,पुरुष सूक्त में जो बात कुछ भोंड़े रूप में रखी गई है वह समाज का मान्य सत्य था, अर्थात् वर्णव्यवस्था, या समाज व्यवस्था भी ईश्वरीय विधान है यद्यपि इसे इतने इकहरे रूप में नहीं रखा जा सकता। चाहे वह गणव्यवस्था हो जिसमें मर्यादा के उल्लंघन पर व्यक्ति को गण से ( उसके अवशेष जाति से) बाहर कर दिया जाता था और उसके साथ सभी सामाजिक संबंध और संपर्क तोड़ लिए जाते थे, या वर्ण समाज जिसमें ऐसे व्यक्ति को हीन जाति का मान लिया जाता, या हीन जाति में शामिल होने को बाध्य होना पड़ता था, या किसी विशेष दक्षता वाले समुदाय के वर्ण समाज के संपर्क में आने पर एक जाति मान लिया जाता था सामाजिक हस्तक्षेप इतना स्पष्ट था कि इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता था। हमारे लिए यह आशंका स्वाभाविक है, परन्तु एक ऐसे दौर में जिसमें माना जाता था पंच के मुंह से परमात्मा बोलता है, बच्चे के मुंह से परमात्मा बोलता है, यह समझा लेना आसान था, कि जो कुछ हो रहा है, सब दैवी विधान से हो रहा है।

फिर भी हमारे देश में बहुत प्राचीन काल से एक जन समाज रहा है जो देवता या ईश्वर में विश्वास नहीं करता था। इसे देवों और असुरों के बीच मुख्य भेद माना गया है परन्तु यह अतिवादी होगा क्योंकि देव समाज के अतिरिक्त असुरों के देवता – रुद्र, काली/दुर्गा, वरुण, वृषाकपि – थे, इसलिए हम इन्हें एक भिन्न विचारधारा से जुड़े लोग कह सकते हैं जो असाधारण साधनाओं और सिद्धियों का दावा करते थे पर ईश्वर या दैवी शक्ति में विश्वास नहीं करते थे । इन्हे ऋग्वेद में अदेवयून कहा गया है, उपनिषद में इनको विरोचन की परंपरा से जुड़ा मान सकते हैं जो शरीर को या भौतिक जीवन को ही अन्तिम सत्य मानता है और आत्मा-परमात्मा के चक्कर में नहीं पड़ता। बौद्ध और जैन मत भी इसी परंपरा का विकास लगते हैं। मक्खलि घोषाल और आजीवक इसी भौतिकवादी परंपरा में आते है पर ये नियतिवादी थे, जब कि चार्वाक पुनर्जनम तक में विश्वास नहीं करते थे।
खैर चिन्तन, प्रतिवाद और विरोध की एस परंपरा मुझे आदिम अवस्था से अनवरत चली आती दिखाई देती है इसलिए वैचारिक प्रतिरोध और अन्याय के विरोध के विकल्प संभव रहे हैं। पश्चिम में जो पर्यावरण ग्रीक काल में (यद्यपि उसमें भी यदि वैचारिक भिन्नता के कारण किसी को गरल पीने को बाध्य किया जाता है तो इसे सीमित बौद्धिक स्वतन्त्रता ही कहा जा सकता है, जब कि भारत में कौत्स को वेदों की कठोरतम भर्त्सना करने पर उसकी केवल निन्दा की जाती है) था उसको कुचल कर असहमति ही नहीं किसी भी माने में अनमेल विचार के लिए यातनावध करने वालों को सन्त कहा जाता रहा और अरबों के और उनके माध्यम से पूर्व के विचारों से परिचित होने के बाद ही वैचारिक सुगबुगाहट आरंभ हुई और आज अपने उस उभार पर है कि युगों पुरानी वर्जनाओं के विरुद्ध आवाज उठाई जा सकती और उसे आन्दोलन का रूप दिया तथा व्यापक सहमति जुटाई जा सकती है।

अब इसी परिदृश्य में हम अपनी समाज व्यवस्था के इतिहास को आज के सामाजिक समीकरण का मूल्यांकन करने का प्रयत्न कर सकते हैं:

सबसे पहले हम इस प्रश्न का सामना करें कि यदि #वर्ण की उत्पत्ति #बलिपशु बने यज्ञ से हुई तो, या यदि किसी को लगे कि वह तो परमेश्वर ही था ( यद्यपि उस दशा में यह समस्या पैदा होगी कि यदि एक बार बलिपशु बन कर दूसरे रूपों में रूपान्तरित हो गया फिर #परमेश्वर जैसी पृथक सत्ता तो बची नहीं, भौतिक सृष्टि ही परम सत्ता के रूप में बच रहती है) तो भी उसके चार अंगों से चार वर्ण बन गए, पर जातियां कहां से पैदा हुईं और एक ही वर्ण के भीतर ऊंच नीच का भाव कैसे पैदा हुआ। कनौजिया #ब्राह्मणों के भीतर तेरह चूल्हों की नौबत कहां से आई? क्षत्रियों के बारे में कहा जाता था कि इनकी और धान की किस्मों का अंत नहीं! फिर एक ही वर्ण के इतने उपभेद कैसे हो गए?

फिर कृषिकर्मी समाज मेंजो विभाजन कर्म आधारित था वह जन्म आधारित कैसे बन गया?

इसका सीधा जवाब है कि आरंभ में कृषिकर्मी या देव समाज में आदिम कृषि-विमुख/विरोधी समाज के लोग सम्मिलित होते रहे। यह सम्मिलित होना इस तरह का नहीं था कि मैं आज से ब्राह्मण या क्षत्रिय या वैश्व बनना चाहता हूं, मुझे अपने वर्ण में मिला लो। कृषि के लाभों से परिचित हो जाने के बाद वे स्वयं संगठित होकर वन्य भूमि की सफाई करके खेती करने लगते थे। इसका संकेत उन्हीं कृतियों में है जिसमें यज्ञ के विरोध का हवाला है, ‘देवगण जो कुछ करते, असुर उसकी नकल करने लगते।’ यदि उल्लेख न होता तो भी ऐतिहासिक कालों तक कृषिकर्मी बन कर क्षत्रिय होने का दावा करने वाले शाक्यों, बज्जियों की गणसमाजी व्यवस्था, कृषिकर्म में सक्रिय भागीदारी के उदाहरणों से इसे आसानी से समझा जा सकता है। यह ध्यान रहे कि गोतमबुद्ध का विवाह कोलिय (क्षत्रियत्व का दावा करने कोल मूलीय) समुदाय में हुआ था। कोसंबी ने पता नहीं क्यों ब्राह्मणों के गोत्र तक ही अपने अध्ययन को सीमित रखा और इस नतीजे पर पहुंचे कि आदिम जनों के बहुत से गोत्रनाम ब्राह्मणों से मिलते हैं और एस ही आटविक समुदाय के कुछ लोग दूसरे वर्णों में शामिल हुए, जब कि कुछ दूसरे पशुपालन तक बढ़े और कुछ पिछड़े ही रह गए। यह क्रम आज भी जारी है। हम इसके विस्तार में न जाकर यह कहना चाहते हैं कि जिन लोगों में पहल, लगन और जोखिम उठाने की प्रवृत्ति थी वे आगे बढ़े, भूसंपदा के स्वामी और वर्ण समाज के सदस्य बने, कहे स्वीमिवर्ग में शामिल होते रहे। जो आलस्य, वर्जना या पहल के अभाव में पिछडे रह गए उनके पिछड़ेपन के लिए क्या उनको दोष दिया जा सकता है जो आगे बढ़ गए?

एक दूसरे पहलू पर विचार करना भी जरूरी है, जिन भी पेशों में, शूद्रों में परिगणित जन लगे थे क्या उनके लिए उन्हें किसी ने बाध्य किया था? बल प्रयोग से किसी को किसी कौशल के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। प्रेरित अवश्य किया जा सकता है, परन्तु वह भी तब जब उस योग्यता या कौशल का तंत्र पर अधिकार रखने वालों को स्वयं पता हो।

इसे हम अपने उदाहरण से समझें, क्योंकि हम सभी जो नौकरी करते हैं, शूद्र हैं। हमें शिक्षा की सुविधाएं संस्थाओं के माध्यम से तन्त्र से अवश्य मिली हैं, पर पहले यह राज्य का काम न होकर धर्मतन्त्र का काम था जो शिक्षा के माध्यम से परोक्षत: सामाजिक चेतना को नियंत्रित और राजसत्ता के समानान्तर, उस पर भी हावी होने वाली धर्मसत्ता कायम करना चाहता था। राजकीय तन्त्र शिक्षा के माध्यम से अपने कल पुर्जे तैयार करना चाहता है और शिक्षा के माध्यम से अपने को अधिक से अधिक उपयोगी पुर्जा बनाने की होड़ मे रहते हैं ताकि हमें अधिक से अधिक ग्रीज और मोबील आयल मिल सके। यह तो अमला तंत्र की बात हुई। इसी तरह तकनीकी योग्यताएं बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा में उतरते हैं, उद्योगतन्त्र में अपने लिए कोना तलाशते हैं जिसमें हमारा मोल इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने नियोक्ता को किसी भी तरकीब से कितना लाभ पहुंचा पाते हैं। हमारा सीधा टकराव अपने नियोक्ता से नहीं उस पद या काम के लिए प्रयत्नशील या समकक्ष लोगों से होता हैऔर हम इस प्रतिस्पर्धा में समर्पित स्वामिभक्त और कुशलतम कार्यभारी सिद्ध होने का प्रयत्न करते हैं। जो ऐसा नहीं करते वे साधन और पहल होने पर स्वयं ऐसा उत्पादन, प्रसाधन, या सेवाएं, जैसे वितरण, आदि के तरीके निकालते हैं। जो किसी तरह की योग्यता विकसित नहीं कर पाते या इस स्तर की योग्यता नहीं अर्जित कर पाते वे शारीरिक श्रम वाली जगहें भरते हैं। इनकी सबसे बड़ी समस्या कहीं न कहीं काम पाने की होती है। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति सबसे निचले स्तर का काम पाने की नहीं होती (क्योंकि वे जानते हैं अपनी योग्यता से वे इससे अधिक के पात्र न थे) अपितु बेकार रह जाना होता है।

कृषिकर्मियों द्वारा संपदा के स्रोतों पर अधिकार कर लेने के बाद सेवा, निपुणता, श्रमकार्य के बदले भरण पोषण और कुछ दक्षताओं के बाद इसके अतिरिक्त सम्मान और ख्याति की आकांक्षा में परंपरागत शूद्र उसी तरह अनुद्विग्न और समायोजित भाव से काम करते और काम होने पर सन्तुष्ट अनुभव करते थे जैसे आज के शूद्र। अन्तर केवल यह है कि वर्णव्यवस्था वाली पारिभाषिक शब्दावली में हमारी जो सही संज्ञा है उससे सबोधित किए जाने पर हम मुंह चुराने लगेंगे।
(लेख अधूरा है पर इतना लंबा हो चुका है कि इसके कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करने से पहले वर्तमान रूम में इससे कई तरह के भ्रम पैदा हो सकते हैं इसलिए अच्छा कि आप इसका शेष अंश पोस्ट होने के बाद पढ़ें।)