Post – 2018-02-08

इतिहास का ध्वंस

हमने उन आततायियों के बारे में सुन रखा है जिन्होंने धार्मिक उन्माद में अनुपम कलाकृतियों को नष्ट किया, उन को रौंद कर, अपवित्र करके पैशाचिक आनन्द लेते रहे, आराधना स्थलों को मटियामेट करते हुए पुरातन वास्तुकृतियों की स्मृति तक मिटा दी, शिक्षाकेन्द्रों को ध्वस्त किया और ग्रन्थागारों को जलाकर खाक किया कि दुनिया से ज्ञान-विज्ञान समाप्त हो जाये, और लोग उनके धर्मग्रन्थ में क्या लिखा, केवल उस पर विश्वास करने को बाध्य हो जायं, किसी तरह का तर्क-वितर्क तक न करें और यदि करें तो इसे धर्मद्रोह करार दे कर उनकी हत्या कर दी जाए।

हमें यह सबसे जघन्य कार्य प्रतीत होता है, यद्यपि ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो भावी निर्माण की कोई स्पष्ट कल्पना के बिना भी हर तरह की तोड़फोड़ को एक श्लाघ्य काम मानते हों, क्योंकि यदि पुराना नष्ट हो गया तो कुछ तो नया बनेगा ही। अत: मूर्तिभंजक उनके कोश में श्लाघा का अर्थ रखता है। यदि नई कृति परंपरा से हट कर और अधिक प्रभावशाली हो तो ऐसे रचनाकार को भी चौंकाने के लिए मूर्तिभंजक कह दिया जाता है। (परन्तु क्या युगान्तरकारी सर्जना को ध्वंस का पर्याय बनाया जा सकता है? यदि बनाया गया तो यह किस मानसिकता का सूचक है? गाली को अपनी संज्ञा बनाने वाले, गाली को अपनी बनाने वाले, उसी को अपने प्रतिरोध और सर्जनात्मकता का घोष बनाने वाले, और विद्रोह के तेवर के बावजूद युगों के अपमान से दहकने वाले और इसके बावजूद अपमान बोध से न उबर पाने वाले समाजों की पीड़ा का अध्ययन अभी तक हुआ नहीं है)।

परंतु हमने जिन पैशाचिक और सभ्यताद्रोही कृत्यों का हवाला दिया वे उतने ध्वंसकारी नहीं हैं जितना कुतर्क और अपव्याख्या से इतिहास को नष्ट करना। कारण भौतिक ध्वंस के बाद भी भग्न प्रतिमाएं और वास्तुकृतियां इस कुकृत्य की याद दिलाती रहती है, ज्ञानसंपदा का बहुत कुछ नष्ट होने बाद इतना कुछ बचा रहता, या जुटा लिया जाता है कि इसे हानि तो कहा जा सकता है सर्वनाश नहीं। मनोबल पर इसका असर नहीं पड़ता। अपव्याख्या से सांस्कृतिक विनाश ही नहीं किया जाता, अपितु इसके मलबे को इस हद तक शिरोधार्य बना दिया जाता है, कुतर्कों का खंडन करते हुए सांस्कृतिक पुनरुद्धार का प्रयत्न डरावना प्रतीत होने लगता है सबसे प्रबुद्ध माना जाने वाला तबका, जिसे यह काम करना चाहि, वह किसी न किसी बहाने सांस्कृतिक विनाश करने वालों के साथ लामबन्द हो जाता है । कम से कम हमारा जातीय अनुभव यही रहा है।

सभ्यताएं जहां देशज प्रतीत होती हैं वहां भी देशज नहीं होती हैं। उनके निर्माण में इतने सुदूर ज्ञात और अज्ञात देशों और इतने युगों के ईंट गारे लगे होते हैं कि उनका चरित्र सार्वभौम और बहुकालिक होता है और हम इस विषय में सावधान हों या नहीं, अपने वर्तमान में भी हम एक साथ कई कालों को जीते हैं। यह बात सभ्यता के उत्थान से लेकर आज तक के सभी चरणों पर लागू होती है। अत: किसी भी कारण से किसी भी सभ्यता या संस्कृति की अपव्याख्या मानव सभ्यता के प्रतिअपघात है। यह उन प्रधान कारणों में से एक है कि ज्ञान विज्ञान में आकाश के तारे तोड़ने के मुहावरे साकार करने वाले अपनी ही धरती को उस नरक में बदलते जा रहे हैं जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी।

बात केवल इतिहास की नहीं है, यदि आप किसी वस्तु, क्रिया या विचार को समझना चाहते हैं तो उसे जहां, जिस रूप में पाते हैं उसी रूप में, अपनी ओर से किसी तरह का घालमेल किए बिना ही समझ सकते हैं। समझने के बाद यह तय कर सकते हैं कि इसका हम क्या उपयोग कर सकते हैं, या इससे क्या सीख सकते हैं।

परन्तु यदि आप किसी पर हावी होना चाहते हैं, और पहली ही पहचान में आपको लगे यदि इससे टकराया तो यह हमें नष्ट कर देगा तो आप के पास दो विकल्प बच रहते हैं। या तो आप उससे बच कर, दूरी बना कर रहें या उसे मिटाने का प्रयत्न करें।

इस बात की याद दिलाना जरूरी है कि हिंदू मूल्य-व्यवस्था, संस्कृत भाषा और संस्कृत साहित्य में उपलब्ध वांग्मय – साहित्य, पुराण, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, धर्म-विश्वास – से यूरोपियनों का जब भी, जितना परिचय हुआ, इसने या तो उन्हें अभिभूत किया अथवा आतंकित किया। पहले का परिणाम मैक्नाटन जैसे लोग थेईसाई प्रचारकों को गालियां देते हुए उन्हें जाहिल और धर्मान्ध कहते थे और कहते थे धर्म और दर्शन के मामले में हिन्दुओं को वे कुछ सिखा नहीं सकते और जिनकी रुझान को देखते हुए मिशनरी शोर मचाने लगे थे कि यदि यही हाल रहा तो कंपनी का शासन और इसके शेयरधारकों की चांदी तो रहेगी, पर सारे अंग्रेज हिन्दू हो जाएंगे, इसलिए कंपनी को इस बात के लिए बाध्य किया जाना चाहिए कि वह राजशक्ति का प्रयोग करते हुए हिन्दुओं के धर्मान्तरण में सहायक हो।

अत: संस्कृत साहित्य का अध्ययन इसमें रचित कृतियों को समझने के लिए नहीं अपितु कुतर्क से इनको नष्ट करने के लिए आरंभ हुआ, इसके लिए धनबल और जनबल का प्रबन्ध किया गया, और कंपनी सरकार कितना आगे बढ़ कर इसके लिए सत्ता का प्रयोग कर रही थी इसे इस बात से ही समझा जा सकता हैं कि वह अपने ही सिपाहियों की धार्मिक संवेदना और आर्थिक विवशता को जानते हुए उनके ईसाई बनने का रास्ता तैयार करना चाह रही थी जिसके विरुद्ध आक्रोश स्वतंत्रता संग्राम के नियत तिथि से पहले आरंभ होने का कारण बना था।

रोचक बात यह है कि हिन्दुत्व के किले पर गोलाबारी करने की बात वे खुल कर करते थे, इसलिए आश्चर्य होता है कि इस पर हमारे अपने विद्वानों ने उस समय ध्यान क्यों नहीं दिया । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जैसे वे कुछ पुस्तकों और पत्रिकाओं के अंकों मे प्रकाशित सामग्री के कारण वे उन्हें प्रतिबन्धित कर देते थे, प्रतियां जब्त कर लेते थे, प्रेस ऐक्ट के दबाव से ऐसी सामग्री छपने नहीं देते थे, उसी तरह कुछ सामग्री ऐसी रही हो सकती है जिसे केवल यूरोपीय विद्वानों के लिए ही सुलभ कराते रहे हों। हमें इस बात पर आश्चर्य अवश्य होता है कि जब वे भारतीय लेखकों के, अपने लिए असुविधाजनक व्याख्याओं और निष्कर्षों को खारिज करने के लिए उन्हें देशप्रेम से प्रेरित बताते थे, तो किसी ने खुले रूप में स्वीकार किए जाने वाले हमलों को धर्मांधता से प्रेरित कह कर उनकी आलोचना क्यों नहीं की।