लौकिक संस्कृत (5)
संस्कृत की क्लिष्टता का दूसरा कारण है द्विवचन का प्रयोग। यह किसी न किसी रूप में दुनिया की अनेकानेक प्राचीन भाषाओं में तलाशा गया है परन्तु संस्कृत ने इसे जिस पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया वह किसी अन्य में देखने में नहीं आता। संस्कृत के यूरोप तक प्रसार के चलते यह रोग लातिन, ग्रीक, जर्मनिक, स्लाव और लिथुआनी भाषाओं तक फैला और मध्येशिया से लेकर लघु एशिया तक संस्कृत भाषियों की हजार बारह सौ साल तक प्रभावशाली उपस्थिति और अश्वव्यापार की गतिविधियों के कारण इसकी छाप यूराल-अल्टाई बोलियों, हिब्रू और अरबी पर भी पड़ी, परन्तु स्लाव को छोड़कर किसी अन्य पर यह टिकाऊ प्रभाव नहीं डाल सका। ग्रीक में होमर की रचनाओं में यह प्रभाव अधिक गोचर है क्योंकि होमर लघु एशिया के थे जिसे क्लासिकी ग्रीक की जन्मभूमि कहा जा सकता है। जल्द ही ग्रीक इससे मुक्त हो गई। लातिन पर यह प्रभाव उससे भी क्षीण था, इसलिए उसने भी छुट्टी पा ली। पुरानी जर्मनिक में यह किंचित् अधिक स्पष्ट था, जिसका कारण तलाशना होगा। संस्कृत में यह वैदिक और अवेस्ता की तुलना में अधिक प्रबल हुआ और संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया सभी पर छाया रहा, जब कि संस्कृत की छायाजीवी बनी प्राकृत, पालि, अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाओं और बोलियों ने इसे धता बता दिया और इसके अभाव में किसी भाषा को कोई क्षति नहीं पहुंची। यह अनावश्यक बोझ है जिसका प्राचीन कृतियों के अध्येताओं के लिए कुछ औचित्य भले हो, परन्तु यदि संस्कृत को आधुनिक व्यवहार की भाषा बनने की रंचमात्र आकांक्षा है तो द्विवचन के जड़भार से मुक्त होना होगा और संभवतः संस्कृत को लोकप्रिय बनाने के लिए चल रहे प्रयोगों में इससे मुक्ति पाई जा चुकी हो।
पर सबसे क्रान्तिकारी खुलापन प्रायोगिक स्तर पर अपेक्षित है जिसे हासिल किया जा सके तो संस्कृत आधुनिक भारतीय भाषाओं से भी अधिक सरल और सर्वजनग्राह्य हो सकती है। इसे हम कल समझने का प्रयत्न करेंगे।